महाराष्ट्र में विधानसभा को निलंबित कर दिया गया है और राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया है। इसका मतलब है की वहां सत्ता के जितने भी दावेदार हैं वह किसी भी वक्त अपेक्षित समर्थन के सबूत लेकर राज्यपाल का दरवाजा खटखटा सकते हैं। विशेषज्ञों का मत है कि चुनाव के बारे में चुनाव आयोग की अधिसूचना को नई विधानसभा के रूप शिवसेना और कांग्रेस के बीच सुरती एनसीपी की यह गति शरद पवार की राजनीतिक शास्त्रीय प्रतिगामी माना जा सकता है अब ऐसे हालात नगर चुनाव होते हैं तो बीजेपी के लिए मैदान खुला हुआ है भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी लेकिन सरकार नहीं बना पाए और इसके कारण शिवसेना विचारधारा से विपरीत जाकर सरकार बनाने की कोशिश में लग गई भाजपा इस नई स्थिति को चुनाव प्रचार के दौरान खूब भुना सकती है बाकी दल इस सियासी हालात को कैसे फोन आएंगे यह तो कहीं कोई योजना स्पष्ट नहीं दिख रही है लिया जाएगा। 1994 में एसआर बोम्मई के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उन परिस्थितियों के बारे में व्यवस्था दी थी जहां अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू करना जरूरी हो जाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद ऐसे परिदृश्य बन सकते हैं कि राष्ट्रपति विधानसभा भंग कर सकते हैं और जल्द चुनाव कराने के लिए कह सकते हैं या विधानसभा को निलंबित रखकर राजनीतिक पार्टियों को सरकार बनाने के राज्यपाल के समक्ष दावा पेश करने की अनुमति दे सकते हैं। अब यह राज्यपाल की प्राथमिकता है कि वह राज्य में सरकार बनने देते हैं अथवा नहीं।
ऐसा बहुत कम होता है की चुनाव के पूर्व राजनीतिक दलों में जो गठबंधन हुआ और जिस गठबंधन के बल पर बहुमत हासिल हुआ वह सरकार नहीं बना सका। भाजपा और शिवसेना के गठबंधन ने महाराष्ट्र में बहुमत हासिल किया लेकिन यह गठबंधन सरकार नहीं बना सका और वहां राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। भाजपा और शिवसेना में यह राजनीतिक समझौता लगभग तीन दशकों से चला आ रहा है। वहां स्थानीय निकायों में, प्रांतीय सरकार में और यहां तक कि केंद्र में भी दोनों पार्टियां शासन में शामिल हैं। दोनों के आदर्श बहुत मिलते जुलते हैं । खासकर हिंदुत्व के मामले में और इसी के कारण इनके रिश्ते भी बड़े मजबूत हैं। अब खटपट शुरू हुई है और महाराष्ट्र में सरकार बनाने के मौके दोनों चूकते जा रहे हैं। "नई भाजपा" फिलहाल विजय रथ पर सवार है लेकिन उस के लिए यह आत्म निरीक्षण का वक्त है। कुछ साल पहले तक भाजपा को कांग्रेस से विपरीत समझा जाता था । समझा जाता है कि इस पार्टी में लचीलापन है और गठबंधन में आई दरार को पाटने का हुनर भी है। 1996 में जब 13 दिन की सरकार के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई बहुमत हासिल करने से चूक गए थे तब से इस पार्टी के बारे में कहा जाता था यह राजनीतिक विभाजन कर अपना वर्चस्व बढ़ा रही है। लेकिन इस दौरान इसने खुद को इतना काबिल बनाया कि किसी भी गठबंधन के साथ निभा सके। अब थोड़ा बदलाव आ रहा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कमान में कई चुनाव जीतने के बाद अब पार्टी में धीरे-धीरे पुराना लचीलापन खत्म होता जा रहा है। दूसरों के साथ गठबंधन करने की उसकी इच्छा समाप्त होती जा रही है। महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव के नतीजे भारी बहुमत से भाजपा के दूसरी बार लोकसभा चुनाव जीतने के बाद आए। यह नतीजे अपने आप में एक संदेश भी हैं। वह कि कोई भी पार्टी मतदाताओं का स्थाई विश्वास नहीं पा सकती है और यह लोकतंत्र के लिए एक अच्छी बात है।
महाराष्ट्र में जो कुछ भी हुआ शिवसेना के साथ उसके बाद कहा जा सकता है कि महाराष्ट्र में भाजपा ने अपना आखिरी पत्ता खोल दिया। वहां राष्ट्रपति शासन लागू हो चुका है । लेकिन एक सवाल जो सबके मन में आता है कि जब राज्यपाल ने एनसीपी को मंगलवार की रात 8:30 बजे तक का समय दिया तो दोपहर आते-आते हैं उनका मन क्यों बदल गया? शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की गोटी किसने बिगाड़ दी। अब यह देखना जरूरी है कि इस सारे गेम में किसने सबसे ज्यादा खोया?
जहां तक शिवसेना का प्रश्न है उसने मुख्यमंत्री पद की मांग की थी लेकिन वह नहीं हो सका। अब यहां तो वह सत्ता से बेदखल हो गए और केंद्र में भी मंत्री पद जाता रहा। उधर एनसीपी कांग्रेस के हाथ में सत्ता की लगाम दिखने से आदित्य ठाकरे के करियर का शानदार आगाज होते होते रुक गया। हालांकि शिवसेना सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है लेकिन शायद ही उसे कुछ हासिल हो पाएगा।
दूसरी तरफ दुविधा के संक्रमण से पीड़ित कांग्रेस एक बार फिर फैसला नहीं कर पाई। कांग्रेस ने इस सारी प्रक्रिया को विशेषकर राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की प्रक्रिया को लोकतंत्र का अपमान बताया है। कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा कि राज्यपाल संवैधानिक प्रक्रिया का मखौल उड़ा रहे हैं। सुरजेवाला ने कहा कि चुनाव के पहले सबसे बड़े गठबंधन को सरकार बनाने के लिए बुलाना चाहिए था इसके बाद चुनाव से पहले बने दूसरे गठबंधन को बुलाना चाहिए था और राज्यपाल सिंगल पार्टियों को बुला रहे थे। उन्होंने कांग्रेस को क्यों नहीं बुलाया? सुरजेवाला का आरोप है राज्यपाल ने समय का मनमाना आवंटन किया। भाजपा को 48 घंटे दिए और शिवसेना को 24 घंटे तथा एनसीपी को 24 घंटे भी नहीं। जो लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं उससे ही लगता है कि महाराष्ट्र कांग्रेस चाहती थी कि सरकार को समर्थन दे दिया जाए लेकिन सोनिया गांधी ने ऐसा कुछ नहीं किया और मामला धरा का धरा रह गया। अब हो सकता है आने वाले दिनों में कांग्रेस में टूट-फूट हो।
जहां तक एनसीपी की बात है तो शरद पवार को कांग्रेसियों से बातचीत के लिए अधिकृत किया गया था और कांग्रेस के सुशील कुमार शिंदे के साथ एनसीपी की बातचीत चल रही थी। बात चलती रही और उधर बात बिगड़ गई। अब क्या भाजपा को यह भनक लग गई कि शायद शिवसेना ,एनसीपी और कांग्रेस में बात बन जाए और उसने अपना पत्ता चल दिया ।
वैसे महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा विधायक दल के नेता देवेंद्र फडणवीस का मानना है कि सरकार न बनने के कारण राष्ट्रपति शासन लगना दुर्भाग्यपूर्ण है। क्योंकि महागठबंधन के पक्ष में स्पष्ट जनादेश था। उन्होंने उम्मीद जताई है की जल्दी ही स्थिर सरकार बनेगी साथ ही उन्होंने अस्थिरता से होने वाले खतरों को लेकर आगाह किया है।
शिवसेना और कांग्रेस के बीच झूलती एनसीपी की यह गति को शरद पवार की राजनीतिक प्रक्रिया का प्रतिगामी माना जा सकता है। अब ऐसे हालात अगर चुनाव होते हैं तो बीजेपी के लिए मैदान खुला हुआ है। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी लेकिन सरकार नहीं बना पाई और इसके कारण शिवसेना विचारधारा से विपरीत जाकर सरकार बनाने की कोशिश में लग गई। भाजपा इस नई स्थिति को चुनाव प्रचार के दौरान खूब भुना सकती है बाकी दल इस सियासी हालात को कैसे भुनाते हैं यह तो कहीं कोई योजना स्पष्ट नहीं दिख रही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सरकार बनाने के मौके अभी भी हैं बशर्ते राजनीतिक तालमेल हो और उस तालमेल के पक्के सबूत हों। उनके साथ राज्यपाल से पार्टियां मुलाकात करें और राज्यपाल को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो सकें कि सरकार कायम रहेगी। अगर ऐसा नहीं होता है यह मौका भी हाथ से निकल जाएगा तथा चुनाव की रणभेरी बज उठेगी जो ऐसी स्थिति में लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।
0 comments:
Post a Comment