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Sunday, November 3, 2019

राष्ट्रीयता के बदलते मायने

राष्ट्रीयता के बदलते मायने 

कभी आपने गौर किया है कि राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद में फर्क क्या है ? शायद किसी ने इस ओर सोचा नहीं है या उस पर सोचने का वक्त नहीं मिला है। हाल के दिनों में राष्ट्रवाद बड़ी सफाई से राष्ट्रीयता में प्रवेश कर गया है। यानी, जो राष्ट्रवादी है वही राष्ट्र का नागरिक है, बाकी सब इस देश के नहीं हैं। राष्ट्र राज्य , सिंहासन, राष्ट्रगान इत्यादि के प्रतीक हमारी चेतना से लगभग ओझल हो चुके हैं वैसे कायम जरूर है विलुप्त नहीं हुए हैं। अगर मनोवैज्ञानिक तौर पर देखें तो आधुनिक राष्ट्र राज्य शक्तिशाली हो गया है । इसलिए इन प्रतीकों का महत्व अब स्मृति केंद्रित हो गया है। जरा सोचिए झंडा क्या है. अगर नेपोलियन की बात करें  तो झंडा महज कपड़े का एक टुकड़ा है जिसे कुछ ज्यादा महत्त्व दे दिया गया है। नेपोलियन के बाद से वक्त बहुत बदल गया है और बदलते वक्त के साथ प्रतीक भी बदल गए हैं आज यह सवाल कि झंडा क्या है ,इसलिए उठाया जा रहा है कि पिछले कुछ महीनों से कई जगह झंडो की बात चली । जिसमें कुछ तो बहुत ही झकझोरने वाले  थे। वे थे कश्मीर में एक ध्वज निरस्त हो गया और दूसरा है नगालैंड में रक्तरंजित बगावत को खत्म करने की जल्दी।  शांति वार्ता अब आखरी पायदान पर है और ऐसे ही सवाल पर आकर अटक गई है । नगा क्रांति की बात चल रही है। इससे एक बात स्मृति में आती है। इसे लेकर दोनों पक्ष क्या कहते हैं यानी क्रांतिकारी नगा और सरकार जहां तक खबर है दोनों मानते हैं कि दोनों ने एक दूसरे के साथ बुरा किया है। हिंसा से कुछ मिलने वाला नहीं है। लेकिन बात झंडे पर अटक गई है ।  नगा पक्ष अभी भी पृथक झंडे की मांग कर रहा है और मोदी सरकार यह मांग नहीं मान रही है। मामला है नागालैंड की राजधानी कोहिमा में भी तिरंगा लहराने की है। बात यहां तक आ गई है कि  सरकार कह रही है कि वे अपने सांस्कृतिक और सामुदायिक अवसरों के लिए बेशक अपना झंडा रख सकते हैं। लेकिन नगा आंदोलनकारी इसे मानने को तैयार नहीं है उनका कहना है यह तो एक एनजीओ वाली बात हुई।  आप विशेष अवसरों के लिए अपना झंडा रख सकते हैं। समझौता वार्ता ऐसी होनी चाहिए कि दोनों थोड़े थोड़े असंतुष्ट रहें। कम से कम यह तो कहा जाए कि दोनों  कुछ ऐसी बातें मानते जो भी नहीं मानना चाहते थे। नगा नेताओं को झंडेवाली अपनी शर्त  पर समझौता करना अपमानजनक महसूस हो रहा है । दूसरी तरफ राष्ट्रवाद का ढोल बजाने वाली मोदी सरकार के लिए भी यह विकल्प  है क्योंकि अभी हाल में श्रीनगर में जम्मू कश्मीर का झंडा उतारे जाने का जश्न सरकार मना चुकी है और इसे सरदार पटेल के जन्मदिन की श्रद्धांजलि के तौर पर पेश किया। राष्ट्रवाद को रेखांकित करते हुए जो चीज एक बड़े राज्य से छीन ली गई एक छोटे आदिवासी राज्य को कैसे सौंपी जा सकती है?
        नरेंद्र मोदी की चिंतन धारा और अटल बिहारी वाजपेई की चिंतन धारा में एक बुनियादी फर्क है। अटल जी से एक बार जब सन्मार्ग ने एक बार पूछा  था की भारत सरकार संविधान के ढांचे के अंतर्गत वार्ता के लिए अड़ी है तो इसमें कश्मीरी अलगाववादी कैसे शामिल होंगे? बाजपेई जी ने ऐसा उत्तर दिया था सब लाजवाब हो गए  थे। उनका कहना था कि हम इंसानियत के ढांचे के अंदर बात करेंगे। लेकिन नरेंद्र मोदी ने ऐसा कुछ  भी कभी नहीं कहा है। उन्होंने राष्ट्रवाद को एक कठोर स्वरूप दे दिया है और इस तरह का राष्ट्रवाद कभी भी लचीला नहीं हो सकता। यही कारण है कि किसी राज्य के झंडे को उतारना एक वक्त में जश्न बन जाता है ।  जब कोई  राज्य अपने खुद के झंडे मांग करता है तो उसका प्रतिकार किया जाता है जबकि एक अन्य राज्य, कर्नाटक, के झंडे को बमुश्किल बर्दाश्त किया जाता है। सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाना बंद नहीं किया गया है उसे ऐसा करने की हिम्मत ही नहीं है जबकि इससे संबंधित आदेश सुप्रीम कोर्ट वापस ले चुका है। जब कोई राष्ट्रगान के बजने के दौरान अपनी सीट से खड़ा नहीं होता तो उसे परेशान किया जाता है। इसका मतलब है कि नई पीढ़ी के भारतीय एक दूसरे को यह जताना चाहते हैं कि वह केवल देश भक्त ही नहीं राष्ट्रवादी भी हैं।
      1960 के दशक आज तक हम जिस खौफजदा माहौल में रह चुके हैं शायद आज का नौजवान उसकी कल्पना नहीं कर सकता। 1961 से  लेकर 1971 तक का भारत ने चार बड़ी और कई छोटी-छोटी लड़ाइयां लड़ी है। 1961 में गोवा का युद्ध और 71 में बांग्लादेश का युद्ध। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि  1971 का युद्ध अगले 5 दशक के लिए आखरी युद्ध होगा और इस अंतराल में भारत  अलगाववादी राजनीतिक आंदोलनों को खत्म कर देगा। ऐसा  2014 के बाद नहीं हुआ अगर आप इतिहास देखेंगे 2003 में ऑपरेशन पराक्रम खत्म हुआ था और भारत उस मोड़ पर दबाव की रणनीति का प्रयोग किया। यानी, आज से 15 साल पहले ही भारत अपने शिखर पर पहुंच चुका था और वहां से उसे लौटना आसान नहीं है। लेकिन यहां भी एक बात कहनी जरूरी है कि आज की हमारी राजनीति हमारी सामाजिक समरसता को अगर खत्म नहीं करती है। भारत बिल्कुल सुरक्षित है। आज का भारत इतना ताकतवर और महत्वपूर्ण हो गया है कि उसे दबाया नही जा सकता है ना उसकी जमीन हड़पी जा सकती है। लेकिन शायद हमारी विचारधारा ऐसी नहीं है । हम आज चिंतित हैं और हमारे चिंतित होने का मुख्य कारण है कि इस सरकार के कुछ आलोचक जो लगातार आरोप लगा रहे हैं कि भारत ने कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया। लेकिन शायद इससे कोई विचलित नहीं हुआ है। कश्मीर में धारा 370 हटाने के बाद से अब तक शायद ही किसी देश ने इस बदलाव को रद्द करने के लिए कहा है । सबने इसे भारत का आंतरिक मामला माना है। बेशक यह हमेशा नहीं हो सकता। कश्मीर में स्थिति बहुत जल्दी सामान्य होनी चाहिए इसके नेताओं को ज्यादा दिनों तक कैद में नहीं रखा जा सकता। संचार संवाद पर से रोक हटाने होगी वरना अंतरराष्ट्रीय समुदाय से दबाव पड़ने लगेगा। यहां एक सवाल है कि क्या कश्मीर  राष्ट्रीय गीत गाने की उतनी ही मजबूत उपस्थिति कायम रखेगा जैसा देश के अन्य भाग में है या सामूहिक असुरक्षा को भड़काता रहेगा।
          कश्मीर के नए हालात से ऊपजी चुनौती यह नहीं है कि इसका अंतरराष्ट्रीय होगा बल्कि यह है कि इससे पहले यह इतना बड़ा आंतरिक मामला नहीं बना था। कश्मीर में समस्या का मतलब है पाकिस्तान ,इस्लामाबाद, पांचवां खंभा, जिहादी आतंकवाद वगैरह ।  1972 से 2014 के बीच के वक्त में भारतीय राष्ट्रवाद तनाव मुक्त सुरक्षित एहसास के साथ आगे बढ़ रहा था लेकिन अचानक कुछ ऐसी स्थिति पैदा कर दी गई हमें उसी भय से मुकाबले के लिए कहा जा रहा है जिसे 50 साल पहले दफनाया जा  चुका है। एक तो है झंडे को उतारा जहां  एक तरफ जश्न बन जाता है वहीं इसकी मांग को मानना  सुविधाजनक मजबूरी हो जा रही है। हमें इस मानसिकता से उबरना होगा वरना हम पीछे लौटने के लिए बाध्य हो जाएंगे।


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