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Wednesday, November 27, 2019

इसे उम्मीद कहें या नाउम्मीदी

इसे उम्मीद कहें या नाउम्मीदी

इस शहर में वह कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां

महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ उसके लिए कुछ भी कहना और समझना बड़ा कठिन है। अजित पवार के अपना पक्ष परिवर्तन कर लेने के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा को बुरी तरह शर्मसार होना पड़ा और वह एक तरह से मैदान से बाहर हो गई। यह एक तरह से दुखद और सुखद नाटक का मिश्रण है।  यह नाटक सिर्फ सरकार बदलने तक सीमित नहीं है यह आने वाले समय में भाजपा के भविष्य पर भी असर डालेगा और इससे ज्यादा इसका प्रभाव भारतीय राजनीतिक संस्कृति और देश की राजनीतिक नैतिकता पर भी  पड़ेगा। राजनीति किस तरह से देश की जनता की सोच को बदल देती है इसका उदाहरण पिछले तीन दशकों में कई बार देखने को मिला। तीन दशक पहले हमारे मोहल्ले , हमारे शहर और देश  घटनाओं से हम विचलित हो जाते थे और अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने लगते थे। 1976 की आपात स्थिति के दौरान जयप्रकाश नारायण को केंद्र करके लिखी गई कविता,
     खलक खुदा का
मुल्क बादशाह का
और हुकुम शहर कोतवाल का
सब लोग अपने अपने घरों की
खिड़कियां बंद कर लें

जनता को मौन रहने और उस पर दबाब डालकर चुप्पी साध लेने की सरकार की क्रिया पर इससे बड़ा व्यंग नहीं सकता । उधर इसी पर अपनी व्यथा जाहिर करते हुए लिखा गया
कहां तो तय था चरागां हर घर के लिए
यहां रोशनी मयस्सर नहीं है शहर भर के लिए

हालात बदलते गए और समाज भी बदलता गया। 30 वर्षों के अंतराल में हम मानवद्वेषी हो गए और राजनीतिक संगठन की दुरभिसंधियों के प्रति चुप रहने लगे। वह बात बेमानी हो गई कि जिंदा कौमें 5 वर्ष तक इंतजार नहीं कर सकतीं। पिछले पांच - सात वर्षों में क्या हम कभी कोई जन आंदोलन देख सके हैं, संभवत नहीं। पिछले 5-7 दिनों में  महाराष्ट्र में जो हुआ वह और विचित्र हुआ। भाजपा शिवसेना को अपने साथ नहीं रख सकी। भाजपा नेतृत्व का अहंकार खास करके इस वर्ष के संसदीय चुनाव के बाद  जो कुछ भी हुआ वह आंशिक रूप से इस स्थिति के लिए दोषी है।  भाजपा की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा तथा शिवसेना की क्षेत्रीय वर्चस्व बनाए रखने के प्रति   असाधारण आसक्ति के बीच का बेमेल संयोग इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह विचलन पिछले  में 25 वर्षों से कायम है लेकिन पिछले चुनाव के बाद जब भाजपा और शिवसेना को मिली सीटों में अनुपातिक गड़बड़ी हो गई तो यह बेमेल संयोग खुलकर सामने आ गया। शिवसेना के नेतृत्व को यह मुगालता हो गया था कि अब उसे अलग कुछ दिखाना पड़ेगा ताकि वह मराठा गौरव के रखवाले के रूप में खुद को प्रस्तुत कर सके। शरद पवार की पार्टी एनसीपी इस पद के लिए या कहिए मराठा गौरव के प्रतिनिधि के रूप में खुद को प्रस्तुत करने के लिए पहले से ही संघर्ष कर रही है। शिवसेना से अलग होने के बाद भाजपा नेतृत्व ने एनसीपी की तरफ हाथ बढ़ाया ताकि मुंबई में सरकार बना सकें। यह फैसला सीधा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की ओर इशारा कर रहा है और इसके नाकामयाब होने का मतलब है कि भाजपा के दो सबसे बड़े  नेताओं ने अपनी अपरिपक्वता जाहिर कर दी।
         इस मामले में जिस तरह से सभी पार्टियों का आचरण देखा गया तो  ऐसा नहीं लगता कि कोई भी इस कीचड़ से बाहर है। अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा के लिए पहला मौका है जब उसे इतनी ज्यादा सीटें मिलीं और सरकार नहीं बन सकी है।  गोवा और हरियाणा जैसे राज्यों में बहुमत से बहुत दूर रहने के बावजूद उनकी सरकार बन गई। यह जो कुछ भी हुआ वह भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली घटना है। क्योंकि, जब भी कोई पार्टी सरकार बनाने का दावा पेश करती हैं तो उसके पास संख्या बल होता है लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। अजित पवार के हाथ से सत्ता फिसल जाने का अर्थ है उनके पास विधायकों की उचित संख्या नहीं थी। उधर शरद पवार ने 54 में से 53 विधायकों को पेश किया। लिहाजा अजीत पवार को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। इस पूरे खेल में सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा और देवेंद्र फडणवीस को हुआ । अब चर्चा है कि फिर राजनीति की शतरंज में शरद पवार ने अमित शाह को पीट दिया। अब महाराष्ट्र में जो सरकार बनेगी वह भी बेमेल संयोग की सरकार होगी। इसलिए जरूरी है कि इनको अपने अंतर्विरोध खत्म करने पड़ेंगे और यह सुनिश्चित करना पड़ेगा की केवल वहां सरकार बनाने के लिए नहीं है शासन के लिए भी हैं। क्योंकि महाराष्ट्र में भाजपा अलग हो गई और वह सत्ता से अलग होकर रचनात्मक सवाल उठाएगी जिससे यकीनन महाराष्ट्र की जनता प्रभावित होगी।
      परिंदे अब भी पर तोले हुए हैं
     हवा में सनसनी खोले हुए हैं
    तुम ही कमजोर पड़ते जा रहे हो
     तुम्हारे ख्वाब तो शोले हुए हैं


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