आंकड़ों से गड़बड़ ना करें
आंकड़ों से गड़बड़ ना करें
पिछले हफ्ते 100 से ज्यादा शोधकर्ताओं और योजनाकारों ने सरकार से मांग की है कि वह राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय ( एनएसएसओ) एस ओ द्वारा किए गए घरेलू खपत के आंकड़ों को जारी करें। इन आंकड़ों को राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एन एस ओ) द्वारा रोक दिया गया है। सांख्यिकी कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय (एम ओ एस पी आई) द्वारा किए गए सर्वेक्षणों के आंकड़े को लेकर शोधकर्ताओं ने सरकार पर दबाव डाला है कि वह सभी सर्वेक्षण आंकड़ों को जारी करें। कुछ दिन पहले एम ओ एस पी आई ने घोषणा की थी की वह एनएसओ द्वारा 2017 -18 के घरेलू खपत के बारे में किए गए सर्वेक्षणों के आंकड़ों को जारी नहीं करेगा। हाल में जो आंकड़े लीक हुए ,वह बताते हैं कि भारतीय कि प्रति व्यक्ति खपत 3.7 प्रतिशत कम हो गई है। एनएसओ की रिपोर्ट के बारे में उम्मीद की जाती थी कि यह इस वर्ष जून में जारी हो जाएगी। लेकिन ,आंकड़ों की गुणवत्ता के मामले को लेकर इन आंकड़ों को रद्द कर दिया गया । सरकार के अनुसार एनएसओ इस सर्वे के आंकड़ों तथा राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी (एन ए एस ) के आंकड़ों में अंतर है। भारत में आंकड़ों का इस्तेमाल करने वाले हर व्यक्ति को यह मालूम है कि हमारे देश में आंकड़ों की प्रणाली कैसे काम करती है। अब यहां सवाल उठता है कि आखिर कारण क्या है? सरकार आंकड़ों को छुपा रही है। कारण है कि लगातार तेजी से बदहाल होती अर्थव्यवस्था पिछले 1 महीने के आंकड़ों को अगर देखें तो पाएंगे कि हर चीज का उत्पादन गिर गया है। खास करके कोयला तेल प्राकृतिक गैस सीमेंट स्टील और बिजली सब का उत्पादन समग्र रूप से 5.2% गिरा है। अगर, सितंबर 2018 से इसकी तुलना की जाए तो यह 8 सालों में सबसे कम है और बाकी अर्थव्यवस्था यानी सकल घरेलू उत्पाद 6 वर्षों में सबसे कम है। फिर भी, हैरतअंगेज ढंग से शेयर बाजार नई ऊंचाइयों की ओर इशारा कर रहे थे। ऐसा क्यों? खपत के आंकड़ों में तेजी से गिरावट आई है । कोर सेक्टर में सुस्ती है । पिछले 5 वर्षों में सबसे कम कारपोरेट मुनाफा हुआ है। बैंक संघर्ष कर रहे हैं। बैंकों में 3.4 लाख करोड़ के कर्ज बट्टे खाते डाल दिए जाने के बावजूद बैंकों का सकल घाटा 10.3% हो गया था। सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र में बैंकों को पूंजी उपलब्ध कराने में थोड़ी उदासीनता दिखाई है। इसमें मदद की गयी लेकिन परेशानियां कम नहीं हुईं। पिछले 2 वर्षों में पब्लिक सेक्टर की हालत खराब हो गई। कृषि क्षेत्र में विकास दर 2.7% रह गई थी, जो विगत 11 तिमाहियों में सबसे कम थी और इससे अनाज तथा खाने-पीने के सामानों के भाव गिरते रहे। रोजगार बुरी तरह घट गये। बेरोजगारी बढ़ गई।
लोगों ने सोचा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा पर इस गिरती अर्थव्यवस्था का असर पड़ेगा। चुनाव में बेशक किसी के हारने की उम्मीद नहीं थी लेकिन 2014 वाली बात होने की भी उम्मीद नहीं थी। यह देखकर सब हैरान रह गए कि इस बार लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को पहले से बहुत ज्यादा सीटें मिलीं। जैसे ही मोदी को रिकॉर्ड तोड़ विजय मिली बाजार की उम्मीदें भी आसमान छूने लगी । लोगों को लगा की राजनीतिक शक्ति के बदौलत बड़े आर्थिक सुधार होंगे। जिससे अर्थिंग बेड़ियां कट जाएंगी। यदि, ऐसा नहीं हुआ मोदी सरकार का दूसरा पहले दौर से भी खराब स्थिति में पहुंच जाएगा। "द इकोनॉमिस्ट" ने प्रधानमंत्री को छोटे छोटे कदम उठाने वाला कहा था। उन्होंने बड़े फैसले लिए। जैसा कि अनुमान था दुनिया ने इस पर ध्यान दिया। प्रधानमंत्री ने सुपर टैक्स लगाने की अपनी योजना को गलत स्वीकार भी किया । अब वक्त आ गया है कि तमाम विसंगतियों दूर की जाए और बड़े आर्थिक सुधारों को दिशा दिखाई जाए । ऐसा कुछ नहीं हुआ सरकार की हर जगह बढ़ती दखलंदाजी दिखाई पड़ी। जिस दिन मोदी सरकार ने दूसरे कार्यकाल का पहला बजट पेश किया था उस दिन यह दखलअंदाजी अपनी पराकाष्ठा पर थी। सरकार ने जो सबसे निष्ठुर कदम उठाया वह था सीएसआर के तहत स्वेच्छा से Mकिए गए योगदान को फौजदारी मामला बना देना। शुक्र है कि जल्दी उसे हटा दिया गया। लेकिन इससे सरकार की मूल प्रवृत्ति का उदाहरण प्राप्त हो गया। अब हालत यह है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था एक ऐसे दौर से गुजर रही है जहां चारों तरफ बदहाली दिख रही है। महंगाई बढ़ती जा रही है। बिजली की खपत घट रही है , कर राजस्व काफी धीमी गति से बढ़ रहा है और भी कारण हैं। इससे सरकार को अपना लक्ष्य हासिल करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। सेंटीमेंट को अर्थव्यवस्था की कुंजी माना जाता है लेकिन सेंटीमेंट पस्त हो रहा है। सवाल है कि ऐसे मैं सरकार को क्या करना चाहिए। अर्थव्यवस्था में जान डालने के लिए कई प्रस्तावों पर विचार हो रहा है। इनमें बुनियादी ढांचे पर अतिरिक्त निवेश, नीतिगत सुधार और निजी करण इत्यादि शामिल हैं। इससे सरकार को मदद मिलेगी मगर इनके नतीजे तुरंत नहीं दिखेंगे। आर्थिक मंदी से केवल निवेश बढ़ाकर और नीतिगत सुधार करके नहीं निपटा जा सकता। आर्थिक मंदी के स्वरूप और उससे पैदा होने वाली चुनौतियों के बारे में लोगों के साथ पारदर्शी संवाद जरूरी है। यह संवाद तभी हो सकता है जब सरकार सर्वे के निष्कर्षों को कबूल करे। इसके बगैर सुधार संभव नहीं है। अगर अर्थव्यवस्था की हालत नहीं सुधरी तो हमारा विकास भी संभव नहीं है। विकास के सारे सपने धरे रह जाएंगे। इससे सरकार की प्रतिष्ठा गिरेगी।
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