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Thursday, November 14, 2019

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का भी कार्यालय अब आरटीआई के दायरे में

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का भी कार्यालय अब आरटीआई के दायरे में 

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कार्यालय भी अब सूचना के अधिकार के अंतर्गत आ गया। यह फैसला मुख्यतः पारदर्शिता और स्वतंत्रता के अधिकार के संतुलन के लिए आया है। यह फैसला अत्यंत महत्वपूर्ण है । यह महत्व इसलिए है क्योंकि सूचना के अधिकार के दरवाजे खोल रहा है। लेकिन, इसके विभिन्न बिंदुओं का अध्ययन करने से यह ज्ञात होगा कि कौन सी लाल पट्टी इसके प्रभाव के बारे में निर्णय करेगी। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि पारदर्शिता से न्यायिक आजादी कभी प्रभावित नहीं होती। प्रधान न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई की संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि निजता और गोपनीयता का अधिकार अपने आप में एक महत्वपूर्ण स्थिति हैं और मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय से जानकारी प्राप्त करते समय यह संतुलित होनी चाहिए। 2010 का यह मामला सुप्रीम कोर्ट में एक अपील के तौर पर था और यह अपील सुप्रीम कोर्ट के महासचिव ने दिल्ली हाई कोर्ट के एक आदेश के तहत की थी। संविधान पीठ ने 4 अप्रैल को इस पर अपना फैसला दे दिया था, लेकिन उसे सुरक्षित रख लिया गया था।  हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया का कार्यालय आरटीआई कानून की धारा 2 (एच) के अंतर्गत पब्लिक अथॉरिटी है यह पूरा मामला तब शुरू हुआ जब आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल में चीफ जस्टिस के कार्यालय को आरटीआई के तहत जाने की याचिका दायर की।
        जहां तक आरटीआई का मामला है इसकी शुरुआत 1766 में स्वीडन में हुई थी और फ्रांस में 1978 में स्वीडन में 1982 में लागू हुआ भारत में यह कानून  2005 में लागू हुआ था । अब एक ऐसे संस्थान जिसकी सार्वजनिक जांच नहीं हो सकती है और जो अपने भीतर झांकने की शायद ही कभी इजाजत देता है उस संस्थान के दरवाजे न्यायिक  जिम्मेदारी को स्पष्ट करने के लिए खोल दिए गए हैं। अक्सर देखा गया है की कार्यपालिका और न्यायपालिका में नियुक्तियों को लेकर रस्साकशी चलती रहती है और कोर्ट अपने फैसले के बारे में आम जनता को बताने के लिए बाध्य नहीं होता। जबकि सरकार अपने किसी भी फैसले के बारे में आम जनता को बताने के लिए बाध्य होती है। सार्वजनिक बहस में कभी भी उसपर उंगली नहीं उठाई जाती । लेकिन इस   मामले पर बहुत खुश होने की जरूरत नहीं। क्योंकि, अदालत द्वारा सूचना के अधिकार के आवेदन को स्वीकार करने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि हो सकता है वह उसे स्वीकार ही ना करे।  ऐसा करने के कई कारण गिना दिए जाएंगे। अभी जो व्यवस्था दी गई है आम आदमी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियों और तबादलों के बारे में जानकारी ले सकता है। इस अधिकार के तहत व्यक्तिगत सूचना निर्णयाधीन रहेगी।
      जब यह कानून बनाया गया तो कुछ अप वादों को छोड़कर सब पर लागू करने के लिए कहा गया। जिन अपवादों को छोड़ा गया वह भारतीय कानून की धारा 8 के अंतर्गत आते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा मसला या जहां तक किसी आपराधिक मामले की जांच जिससे प्रभावित हो ऐसे कुछ अपवाद हैं इसके अलावा सब कुछ सूचना के अधिकार के तहत आता है भारतीय कानून की धारा 24 के तहत खुशियां और सुरक्षा एजेंसियों को छोड़कर यह सब पर लागू होता है। इन एजेंसियों में भी भ्रष्टाचार और मानवाधिकार के मामले में सूचना देनी पड़ती है। यह कानून बहुत व्यापक है इसलिए सुप्रीम कोर्ट इसके अंतर्गत ना आए यह तो अजीब था।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से एक बार फिर आरटीआई कानून की श्रेष्ठता से उभर आई है और एक बार फिर यह कानून न्याय की कसौटी पर खरा उतरा है। यह खासकर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि सरकार ने लगातार इस कानून को और इससे जन्मी प्रणाली को कमजोर करने की कोशिश करती रहती है। मौजूदा सरकार ने हाल ही में इस कानून में संशोधन करके सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और उनके वेतन पर अपना नियंत्रण और बढ़ा दिया इसके पहले भी कई बार इस कार्यालय को कमजोर करने की कोशिशें हुई हैं एक संशोधन के तहत सभी राजनीतिक पार्टियों को इसके दायरे से बाहर रखा गया था।


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