कांग्रेस और विपक्षी दलों ने गुरुवार को लोक सभा में चुनावी बांड का मामला उठाया और सरकार पर भ्रष्टाचार को अमलीजामा पहनाने का आरोप लगाते हुए काफी शोर-शराबा मचाया तथा सदन से बहिर्गमन कर गया।
दरअसल कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद वहां हालात सामान्य करने को लेकर कांग्रेस ने संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत को मुद्दा बनाया। गृह मंत्री अमित शाह के जवाब के बाद अब चुनावी बांड का मुद्दा उठने लगा । बुधवार को सोनिया गांधी ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ बैठक की। उसमें चुनावी बांड के बारे में प्रदर्शन करने का फैसला किया गया।
कांग्रेस का कहना है कि रिजर्व बैंक के मना करने के बावजूद भाजपा ने चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था की ताकि ना चंदा देने वाले का और ना चंदे की राशि के स्रोत तथा ना चंदा पाने वाले का पता चले। जहां तक पता चला है कि 2017 के बजट के ठीक पहले रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने चुनावी बांड का विरोध किया था । लेकिन मोदी सरकार ने रिजर्व बैंक की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए चुनावी बांड की घोषणा कर दी । रिजर्व बैंक ने चुनावी बांड का खुलकर विरोध किया था। लेकिन कुछ नहीं हुआ और तत्कालीन राजस्व सचिव हंसमुख अढिया ने रिजर्व बैंक की आपत्तियों को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि बैंक इस सिस्टम को सही ढंग से समझ नहीं पाया। उन्होंने रिजर्व बैंक के पत्र के जवाब में लिखा कि बैंक की सलाह देर से आई है और वित्त विधेयक छप चुका है। इसलिए सरकार इस प्रस्ताव पर आगे कदम बढ़ा सकती है। कुल मिलाकर बैंक की आपत्तियों को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया गया। बांड जारी करते हुए सरकार का दावा था कि इसके माध्यम से राजनीतिक दलों के खातों में चंदा जमा करने की गुमनाम व्यवस्था पर रोक लगेगी और चुनाव में काले धन पर अंकुश लगेगा। लेकिन, बांड खरीदने वाले की पहचान को गुप्त रखने का जो प्रावधान इस योजना में रखा गया उससे सरकार क्या चाहती है यह स्पष्ट हो गया। एक तरफ चुनावों में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों का खर्च बेतहाशा बढ़ रहा है और चुनाव आयोग इस खर्च पर अंकुश लगाने में खुद को असमर्थ पा रहा है। कारपोरेट क्षेत्र से प्राप्त चंदे की अब चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका है। सात- सात चरणों तक चुनाव को खींच ले जाना सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में जा सकता है । क्योंकि , चुनावी बांड के माध्यम से प्राप्त धन को वह चुनाव प्रचार में झोंक सकती है ।
अपने देश में चुनाव में सबसे अधिक काला धन खर्च होता है 2017 के बजट से पहले 20000 रुपए से ऊपर चंदा देने वालों को चेक से देने की व्यवस्था थी और उसके बाद उससे कम के लिए रसीद लेनी होती थी ।राजनीतिक पार्टियां इस प्रावधान का गलत इस्तेमाल करने लगी थीं। इससे देश में काला धन बढ़ रहा था। इस धन का इस्तेमाल चुनाव में भी होता था। कुछ दलों ने तो ऐसा दिखाया 80- 90% चंदा 20,000 से कम रुपय के रूप में हासिल हुआ। चुनाव आयोग की सिफारिश पर 2017 18 के बजट सत्र में केंद्र सरकार ने गुमनाम नगद की सीमा घटाकर ₹2000 कर दी थी। इसका मतलब यह हुआ कि ₹2000 से अधिक चंदा लेने के लिए राजनीतिक दलों को बताना होगा कि यह चंदा किस स्रोत से आया है। सरकार ने घोषित तौर पर इसे रोकने के लिए बड़े जोर जोर से चुनावी बांड की व्यवस्था की। लेकिन शायद उससे घोषित उद्देश्य पूरा नहीं हो सका।
विधि आयोग ने अपनी 255 वीं रिपोर्ट में 20000 के नीचे राजनीतिक चंदों को भी राजनीतिक दलों द्वारा सार्वजनिक किए जाने की जाने की अनुशंसा की थी जबकि सब मिलकर 20 करोड़ से ज्यादा धन हो जाते हैं।
राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय पार्टियों की ओर से चुनाव आयोग को दाखिल की गई वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट में जो जिक्र है उसके अनुसार 2018 - 19 में जो चुनावी बांड बिके और उसके आधार पर जो आंकड़े सामने आए हैं उनसे ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए 45 सौ करोड़ रुपये के बांड खरीदे गए हैं। हालांकि भाजपा ने अभी तक अपनी रिपोर्ट पेश नहीं की है जबकि वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट जमा करने की अंतिम तारीख 31 अक्टूबर थी।
रिपोर्ट जमा नहीं करने की सूरत में यह समझ में नहीं आ रहा है कि भाजपा को कितना मिला और पार्टी की ओर से इस पर चुप्पी साध ली गई है । जनप्रतिनिधि कानून की विभिन्न धाराओं के मुताबिक राजनीतिक पार्टियों को चुनावी बांड के बारे में जानकारी देने की जरूरत नहीं है लेकिन इनकम टैक्स के मुताबिक राजनीतिक पार्टियों के लिए अपनी आय की जानकारी चुनाव आयोग को देनी जरूरी है। चुनाव आयोग के पास इस मामले में बहुत ज्यादा अधिकार नहीं हैं। वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट ना जमा करने की सूरत में आयोग पार्टियों को केवल कारण बताओ नोटिस दे सकता है। यहां सवाल उठता है कि आखिर क्यों मोदी सरकार में जनवरी 2018 में इस बांड योजना अधिसूचित की गई थी और उसके साथ कहा गया था कि इससे चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता आएगी लेकिन शायद ऐसा नहीं हो सका। क्योंकि यह जरूरी नहीं है कि राजनीतिक पार्टियां चुनावी बांड खरीदने वालों के बारे में चुनाव आयोग को बताए। अब इससे कभी पता नहीं चल पाएगा कि 6000 करोड़ के चुनावी बांड खरीदने वाले कौन लोग थे। कुल मिलाकर इससे राजनीतिक भ्रष्टाचार को एक तरह से बढ़ावा ही मिलता है और काला धन भी प्रोत्साहित होता है। ऐसा नहीं कि कांग्रेस दूध की धुली है लेकिन लोकसभा में कांग्रेस द्वारा इस बात को उठाया जाने का स्पष्ट अर्थ मोदी सरकार को घेरने का एक अवसर पैदा कर रही है । राजनीति में यह चलता ही है लेकिन इसमें जो रणनीति है वह बिल्कुल इमानदारी भरी नहीं है, क्योंकि कमोबेश बांड की राशि उसे भी तो मिली है।
Friday, November 22, 2019
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