बड़ा अजीब संयोग है 26 नवंबर को संविधान दिवस है । संविधान की रक्षा और उसकी शक्तियों पर लंबी-लंबी बहसें रही हैं और ठीक इसके 1 दिन पहले महाराष्ट्र में जो सियासी नाटक हुआ वह संविधान द्वारा प्रदत्त संस्थानों को अपना अधिकार छोड़ने और राजनीतिक हेरा फेरी का परिणाम था। पहली संस्था जो अपने पद से या अधिकार से नीचे गिरी वह था राज्यपाल का कार्यालय। ऐसा अन्य राज्यों में भी होता देखा गया है। इसके बाद संविधान के संरक्षक के तौर पर तैनात राष्ट्रपति का कार्यालय। 23 नवंबर की सुबह राष्ट्रपति के कार्यालय ने धारा 356 खत्म कर दिया। इस बात पर विचार करने की जरूरत नहीं है कि भाजपा के पास बहुमत था या नहीं लेकिन प्रश्न यह है कि सुबह-सुबह दावा क्यों स्वीकार कर लिया और उस पर कार्रवाई क्यों हुई ? लोकतांत्रिक संस्था का अधिकार खत्म करने की संपूर्ण प्रक्रिया तब पूरी हुई जब कोर्ट ने सदन में बहुमत साबित करने की प्रक्रिया के आदेश देने के बदले सुनवाई की तारीख को टालना शुरू कर दिया। यहां रूसो का "थ्योरी ऑफ सोशल कॉन्ट्रैक्ट" का एक कथन याद आता है कि "एक राजनीतिक दल विभाजित आस्था पर काम करता है। किसी भी राजनीतिक दल के सदस्यों द्वारा अपने दल के घोषित सिद्धांतों के विपरीत अपनी मर्जी से वोट लेने की आजादी ना केवल दल को शर्मसार करेगी बल्कि इसकी प्रसिद्धि एवं जनता के बीच इसकी छवि को भी आघात पहुंचाएगी। जबकि जनता का भरोसा ही इसके कायम रहने का जरिया है।" लेकिन, रूसो का आदर्शवाद का सिद्धांत बहुत पुराना हो चुका है। बट्रेंड रसैल की पुस्तक "पॉलिटिकल पावर" के मुताबिक इन दिनों राजनीति में आदर्शवाद की उम्मीद रखने वाले लोगों को बेवकूफ माना जाता है। नेता सत्ता हड़पने के लिए हर बार ज्यादा से ज्यादा दुस्साहस दिखाते हैं और नागरिक मौन रहकर उस नेता का मनोबल बढ़ाते हैं। सत्ता के लिए ध्रुवीकरण के दौर में ऐसा लगता है कि सही अथवा गलत की परिभाषा बदल चुकी है। हम जो करें और सब सही है दूसरा करे वह गलत। हम संविधान दिवस का जश्न मनाते हैं उस पर बहस होती है लेकिन संविधान जिस पर आधारित है वह है लोकतंत्र। लोकतंत्र के अस्तित्व से जुड़े प्रश्नों पर सार्थक चर्चा की गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है। राजनीतिक खिलाड़ियों के किसी भी काम पर हम चुप रहते हैं जबकि जिंदा कौमें या विचारशील कौम 5 साल तक इंतजार नहीं करती। अब जनादेश का अपमान देखकर लोग बौखलाते नहीं है। विगत कुछ वर्षों में कई राज्यों में जनादेश की अनदेखी हुई है लेकिन जनता में इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं देखी गई। मजबूत और सत्ताधारी दल हमेशा से मनमानी करते हैं । अपने दौर में कांग्रेस ने तो आपातकाल लगा कर उदाहरण ही स्थापित कर दिया था। लेकिन अभी जो हो रहा है वह सब कुछ जाएज है और पर सवाल नहीं उठने चाहिए । पिछले कुछ वर्षों के अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लोकतांत्रिक मूल्यों में किसी का भी विश्वास नहीं रहा । महाराष्ट्र के मामले में ही देखें जनादेश शिवसेना और भाजपा के गठबंधन को मिला था, लेकिन हो क्या रहा है । जनता तो ठगी सी महसूस कर रही है । भले वह कुछ ना बोले । लेकिन यहां यह मानना जरूरी है कि हर खेल के कुछ तो नियम होते हैं, चाहे वह कितना भी छोटा खेल क्यों ना हो। जो कुछ भी हो रहा है वाह संविधान और लोकतंत्र की बुनियाद से जुड़ा मसला है। इसलिए इस पर गंभीरता से बात होनी चाहिए। कुछ सवाल ऐसे हैं जिनके जवाब राज्यपाल महोदय महामहिम कोशियारी से मांगे जाने चाहिए । उनकी गतिविधि को देखकर ऐसा महसूस होता है कि उन्हें अपने पद का खतरा था और नियम मानने की बजाय उन्होंने हुक्म मानना बेहतर समझा। हालांकि वे पहले राज्यपाल नहीं हैं जिन्होंने ऐसा किया । उनके पहले कई आ चुके हैं जो नियम और कानून को ताक पर रखकर काम करते रहे हैं।
महाराष्ट्र में राजनीतिक दलों ने जो कुछ किया ऐसा लगता है कि उन्होंने मतदाताओं और वहां के लोगों की उम्मीदों को पैरों तले रौंद दिया। ऐसे दल जिनके सिद्धांत राजनीतिक तौर पर एक दूसरे से विपरीत थे वे साथ आ गए । उन्होंने सत्ता की भागीदारी कर ली। यहां एक बात उठाई जा सकती है कि अगर किसी राजनीतिक पार्टी के उम्मीदवार की आपराधिक पृष्ठभूमि तथा उसकी दौलत की घोषणा हो सकती है और उसे कानूनन मान्य किया जा सकता है तो फिर क्यों नहीं चुनाव आयोग किसी भी राजनीतिक दल के उम्मीदवार अथवा इंडिपेंडेंट उम्मीदवार से यह घोषणा पत्र मांगे कि उसके सिद्धांत क्या हैं और वह किन सिद्धांतों के आधार पर किसी दल से गठबंधन करेगा । इससे मतदाताओं को यह तय करने का अवसर मिलेगा कि किसी विशिष्ट दल पर कितना भरोसा किया जा सकता है। उसकी क्या प्रतिबद्धता हो सकती है। संविधान सभा में बीआर अंबेडकर ने कहा था कि "किसी भी संविधान का कार्य पूरी तरह से संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करता। संविधान की आवाज राज्य जैसे तंत्र मुहैया करा सकता है।" इसमें प्रमुख कारक हैं वहां की जनता और सत्तारूढ़ राजनीतिक दल, जो जनता तथा राजनीति की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए अपने तंत्र तैयार करेंगे। लोकतंत्र केवल वोट देना नहीं है या सरकार बनाना नहीं है। यह मतदाताओं तथा चुनाव के बाद बनी सरकार के बीच एक भरोसा भी है। महाराष्ट्र में क्या हुआ? यह भरोसा कहां तक खत्म हुआ है यह हमारे देश की जनता खुद तय करे।
Tuesday, November 26, 2019
ये जो कुछ हो रहा है इसपर चुप क्यों हैं आप ?
ये जो कुछ हो रहा है इसपर चुप क्यों हैं आप ?
Posted by pandeyhariram at 5:25 PM
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