वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बुधवार को राज्यसभा में माना कि देश की अर्थव्यवस्था सुस्त हो गई है ,मंद नहीं है। लेकिन यह सुस्ती कैसी है? यह सुस्ती बेहद निराशाजनक है। बेरोजगारी बढ़ रही है यह किसी से नहीं छिपा है। कुछ दिनों में फैक्ट्रियां बंद होगी, काम धंधे बंद होंगे , बेरोजगारी और बढ़ेगी। सरकार ने आर्थिक सुस्ती खत्म करने के लिए और खपत बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए हैं, लेकिन कुछ नहीं हो पा रहा है। उल्टे देश में खास करके नौजवानों में एक विशेष प्रकार की खीझ बढ़ती जा रही है। विख्यात समाजशास्त्री मास्लोव ने लिखा है की समाज को स्वस्थ और शांतिपूर्ण रहने के लिए आवश्यक है मनुष्य पर किसी किस्म का हमला न हो और उसकी सुरक्षा तथा स्थायित्व का पूरा बंदोबस्त हो। आर्थिक मंदी के कारण इंसानी हिफाजत और स्थायित्व को आघात पहुंच रहा है। लोग खुद को भीतर से परेशान पा रहे हैं और उसका साफ असर हमारे समाज पर दिखाई पड़ रहा है। खास करके वह समाज जो आर्थिक सुस्ती से गुजर रहा है और अनिश्चितता तेजी से बढ़ती जा रही है। आज से लगभग एक दशक पहले यह कहा जाता था कि भारत नौजवानों का देश है। यहां नौजवानों की संख्या सबसे ज्यादा है और हमें इसका डेमोग्राफिक डिविडेंड मिलेगा। लेकिन यह देश इस डिविडेंड से अमीर बनने के पहले बूढ़ा होता जा रहा है। अगर अर्थव्यवस्था को सुस्ती से उबारने के जल्दी कोई प्रभावकारी प्रयास नहीं किए गए तो समाज पर इसका गहरा असर पड़ेगा और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सभी इसके शिकार होंगे । सबको इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। इस बिगड़ती स्थिति का प्रभाव जो हमारे समाज पर पड़ रहा है उसका पहला उदाहरण हम अपने आसपास देख सकते हैं। हमारे देश में अरसे से या कहिए प्राचीन काल से नौकरी शुदा बच्चे अपने बुजुर्गों की मदद करते हैं और अगर नौकरी है ही नहीं कहां से मदद करेंगे लिहाजा परिवार और आश्रितों पर दबाव बढ़ेगा खासकर के परिवार के बुजुर्गों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी । अक्सर अखबारों में खबर आती है कि बुजुर्ग माता-पिता के साथ बच्चे बदसलूकी करते हैं। क्योंकि अपने बच्चों की शिक्षा के मुकाबले बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल उनकी प्राथमिकता सूची में बहुत नीचे होती है। खासतौर पर ऐसा तब जब उनकी आमदनी कम हो जाती है। दूसरी तरफ हमें यह भी अखबारों में पढ़ते हैं के बच्चे मुश्किल हालात से निकलने के लिए बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल के लिए अपनी नौकरी छोड़ देते हैं। दोनों ही मामलों में मुश्किलें बुजुर्गों के सामने आती हैं और सरकार की कोई दखल इसमें नहीं होती।
हमारे देश में 60 साल या उससे अधिक उम्र वाले लोगों की स्थिति तुलनात्मक तौर पर अधिक खराब है। क्योंकि ,वह कमा सकते नहीं और देखभाल के लिए परिवार के सदस्यों पर आश्रित रहते हैं। इन बुजुर्गों ने अपनी कामकाजी जिंदगी में बचत से जो घर खरीदा होता है बढ़ती उम्र के साथ वह बच्चों के नाम कर देते हैं और बाद में कुछ बुजुर्गों को उसी घर से बेदखल कर दिया जाता है। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और एकल परिवारों का चलन बढ़ता जा रहा है । देश में 87.8% बुजुर्ग अपने बच्चों के साथ रहते हैं। परिवार हमारे देश में बुजुर्गों का मुखिया होता है और जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती है वह कमजोर होते जाते हैं। परिवार पर उनकी निर्भरता बढ़ती जाती है सामाजिक सुरक्षा के मामले में भारत दूसरे देशों से पिछड़ा हुआ है । यहां बुजुर्गों की देखभाल की संस्थागत व्यवस्था का भाव है देश की 70% आबादी को ही किसी न किसी तरह से सामाजिक सुरक्षा हासिल है हमारे देश में 26.3% बुजुर्गों के लिए वित्तीय तौर पर आत्मनिर्भर हैं जबकि 20.3% बुजुर्ग आंशिक तौर पर दूसरों पर आश्रित हैं। देश की 53.4% बुजुर्ग आबादी आंशिक सुरक्षा के लिए अपने बच्चों पर ही निर्भर हैं। बच्चों के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। दूसरी तरफ भारत में रहने वाले की औसत उम्र 27.1 साल है इसलिए यह युवा देश लेकिन जन्म दर में गिरावट के कारण भारत में बुजुर्गों की संख्या तेजी से बढ़ रही है । अभी हाल में इकोनामिक एंड पॉलीटिकल वीकली में प्रकाशित 'इकोनामिक इंडिपेंडेंस एंड सोशल सिक्योरिटी इंडिया एल्डरली" रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में उम्र दराज लोगों की बढ़ती संख्या की पड़ताल करने और उससे खड़ी होने वाली समस्याओं को हल करने की जरूरत है जन्म दर में गिरावट के कारण आबादी की बनावट में बहुत बुनियादी बदलाव हो रहे हैं। देश में साल 2011 में 10 .34 करोड़ बुजुर्ग थे 2040 तक 15% सकता है आर्थिक सुस्ती का जो हाल है उसके अनुसार धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था भी खस्ताहाल होती जाएगी और कामकाजी आबादी कम होती जाएगी
इनकम टैक्स में छूट और बचत पर अधिक ब्याज भी बुजुर्गों के लिए बहुत जरूरी है इससे में वित्तीय सुरक्षा हासिल करने में सहायता मिलेगी। रेल और हवाई किराए में रियायत से उन्हें घूमने फिरने के लिए प्रेरित किया जा सकता है । जिससे हुए खुद को प्रसन्न महसूस कर सकें। समाजशास्त्री डॉक्टर साहेब लाल के अनुसार बाजारवाद और उदारीकरण के बाद बदले हुए समाज में बुजुर्गों का सम्मान गिरा है। उपभोक्ता समाज में बुजुर्गों को खोटा सिक्का समझा जाने लगा है। अगर आपसी सामंजस्य हो तो आज भी बुजुर्ग परिवार और समाज के लिए काफी उपयोगी है। बुजुर्गों को सम्मान प्राप्त होगा तो समाज भी संगठित होगा ढेर सारी सामाजिक बुराइयां यहां तक कि आतंकवाद पर भी अंकुश लगेगा।
Friday, November 29, 2019
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