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Sunday, April 30, 2017

भाजपा का " अश्वमेध "

भा ज पा का "अश्वमेध " 
उत्तर प्रदेश और दिल्ली निगम चुनावों भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा) की भारी विजय के बाद अब लगने लगा है कि पार्टी राजनीतिक रूप में अपराजेय होती जा रही है। 2014 के चुनाव में तमिल नाडु में अन्नाद्रमुक, ओडिशा में बीजद और   बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने उसे मजे की टक्कर दी थी पर इस बार तो वे उतनी ताक़तवर नहीं दिख रही हैं। बस उम्मीद  पश्चिम बंगाल में तृणमूल से  है बाकी से तो कुछ सोचना  ही व्यर्थ है। पश्चिम बंगाल में भी भाजपा मुस्लिम तुष्टिकरण का बवंडर खड़ा कर बंगाली  भद्र लोक समाज को विभाजित करने में लगी है। जहां तक तमिल नाडु का प्रश्न है तो जयललिता की मौत के बाद पार्टी पस्तहाल है तथा ओडिशा में स्थानीय निकायों के चुनाव में भारी पराजय के बाद बीजद नर्वस सी दिखने लगी है। जहां तक अखिल भारतीय पार्टियों का सवाल है तो कांग्रेस का दम फूलता नज़र आ रहा है। स्थानीय नेताओं से गठबंधन के लिए सोनिया गांधी सक्रिय नहीं दिख रहीं हैं। इसासे साफ ज़ाहिर होता है कि राहुल गांधी की संभावनाएं  बहुत अच्छी नहीं हैं। वैसे सोनिया गांधी अब उतनी सक्रिय नहीं रह गईं हैं कि गैर भाजपाई दलों को इकठ्ठा कर 2004 वाली स्थिति तैयार कर सकें। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और बिहार में नीतीश कुमार सरीखे नेता जिन्होंने 2015 में भाजपा को पटखनी दी थी अब खुद अखाड़े के किनारे बैठे हैं। ऐसे में यह आश्चर्यजनक नहीं है कि भाजपा पूर्वी और उत्तर पूर्वी भारत पर निशाना साढ़े हुए है। सबसे बड़ा खतरा तो है कि कांग्रेस विधायक और पुराने कार्यकर्ता पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं , इससे यह संदेश जाता है कि कांग्रेस अब भविष्य नही है। साथ ही जनता को यह समझने का आधार मिलता है कि पार्टी में अब पुरानी वाली बात नहीं रह गयी। उधर भाजपा भी समस्याओं से मुक्त नहीं है। वह व्यावहारिक तौर " वन मैन " पार्टी हो गई है। इसे नगर निगम चुनावों मैं विजय  के लिए भी नरेंद्र मोदी पर ही निर्भर रहना पड़ रहा है। पार्टी के पास दूसरी रक्षा पंक्ति है ही नहीं। यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और लाल कृष्ण आडवाणी जैसे लोग संगठन में प्रयोजनहीन  हो गए हैं। दूसरी मुश्किल है कि अर्थ वव्यवस्था उतनी तेजी से विकासित नही हो रही है कि मोदी जी के विकास एजेंडे पर भरोसा कायम हो सके। अब प्रधान मंत्री ज्यादा गरीबों के बारे में बातें कर रहे है ना कि तीव्र विकास की, जैसा इंदिरा गांधी किया करतीं थीं।
विपक्ष ने तो अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। मसलन मनमोहन सिंह आर्थिक मोर्चे पर बहुत साढ़े हुए कदम से आगे बढ़ रहे थे पर सोनिया गांधी ने फिजूलखर्च भरे लोकलुभावन उपायों को शुरू कर अपनी सरकार के विकास के एजेंडे को मोदी जी के सामने परोस दिया। बाद में चिदंबरम ने " ठिसुआये" हुए कहा कि हमारी सरकार को " विकास के एक्सलेटर से पैर नही हटाना चाहिए था।"  
उसी तरह केजरीवाल भी साफ सुथरी सरकार के लहीम शहीम वादे के साथ सत्ता में आये लेकिन कुछ नही किये।पार्टी के चलाये जा रहे आंदोलनों के समय जो भ्रष्टाचार खत्म करने के वादे किए थे वे भी पूरे ना हो सके। एडमिरल एल रामदास तक को पार्टी छोड़नी पड़ी। आम आदमी का आम आदमी पार्टी से मोहभंग होने लगा जो दिल्ली नगर निगम चुनाव में साफ दिख गया। केजरीवाल की तरह नीतीश कुमार भी पिट गए। अपने पहले शासन काल में उन्होंने बिहार को " जंगल राज " से मुक्त करा कर उम्मीद पैदा की थी। लालू जैसे नेता को लोग जंगल राज के लिए जिम्मेदार मानते थे और अब उनके साथ ही गठबंधन कर उन्होंने लोगों को फ्रस्ट्रेट कर दिया। लोग समाझने लगे कि यह सब गद्दी  पाने के लिए किया गया है।
अब सवाल है कि भाजपा के अश्वमेध के अश्व को रोकेगा कौन? किसी के पास ऐसा  आशा जनक आर्थिक एजेंडा नहीं है जो नौजवानों में  मोदी जी मेक इन इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसे कार्यक्रमो की तरह उत्साह पैदा कर सके।

Saturday, April 29, 2017

अब डायमंड से किया जा रहा है " टेरर फाइनैंसिंग " 

कोलकाता के हीरा कारोबार में आतंकी गिरोहों ने लगाया पैसा 
अब डायमंड से किया जा रहा है " टेरर फाइनैंसिंग " 

हरिराम पाण्डेय

कोलकाता: आतंकवादियों को धन मुहैय्या करने के लिए इन दिनों यहां "डी डी" का चलन बढ़ रहा है। "डी डी" यानी ड्रग और डायमंड से आतंकवादियों को धन दिया जा रहा है। बंगला देश से ड्रग और जाली नोट  भारत तस्करी के जरिये आता  है और उसके लिए इन दिनों हीरों के माध्यम से भुगतान किया जाता है। जाली नोट का उपयोग अब केवल हमारी अर्थ व्यवस्था को चोट पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। आतंकवादियों को धन  पहले यह सोने से दिया जाता था पर अब हीरों से भुगतान हो रहा है। चूंकि हीरों को आसानी से लाया और ले जाया जा सकता और और उसे सरलता से छिपा कर लंबे समय तक रखा जा सकता है इसलिए उसे विकल्प फाइनैंसिंग के लिए उपयोग में लाया जा रहा है। रॉ के सूत्रों के मुताबिक गत वर्ष सरकार को यह जानकारी दी गई थी कि जिंसों की खरीदारी और रुपयों की लेनदेन के बदले अब आतंकियों को डायमंड के जरिये भुगतान किया जा रहा है। यही कारण है कि नोटबंदी के बाद भी इस पर कोई असर नहीं पड़ा। हीरों में कई खूबियां होती हैं मसलन काम वज़न और छोटे आकार की ज्यादा कीमत, उसका टिकाऊपन , कीमत की स्थिरता और पकड़े जाने का खतरा कम इत्यादि। एक वरिष्ठ खुफिया अधिकारी के मुताबिक लहू और पत्थर का यह रिश्ता बहुत तेज़ी भयावहता की ओर बढ़ रहा है।  उक्त अधिकारी के मुताबिक मुम्बई हमला और पठानकोट हमले के लिए हीरों में ही भुगतान हुआ था। इस मामले में एक सनसनी खेज रिपोर्ट यह भी है कि  मुम्बई ए टी एस के अफसर हेमंत करकरे केवल इस लिए मार दिए गए थे कि उन्हें इस हमले के लिए  भुगतान करने वाले हीरों के व्यापारी का सुराग लग गया था( सन्मार्ग इस मामले की तह तक जाने के प्रयास  में है )। सूत्रों के अनुसार यहां हाल तक जमायतुल मुजाहीदीन , बंगलादेश का बहुत धन अन्य माध्यमों  शेयर बाज़ार में लगा था जिसे हटा कर डायमंड के कारोबार में लगा दिया गया है। यहां हीरा व्यापार सूत्रों के मुताबिक कुछ संदेहास्पद लोग इस धंधे में घुस आए हैं। व्यापार के सूत्रों के मुताबिक यहां जनवरी से मार्च के बीच बहुत बड़ी राशि के हीरे बिके हैं। केंद्रीय वित्तीय खुफिया इकाई ( एफ आई यू ) के एक बड़े अफसर ने सन्मार्ग को बताया कि  शेयर बाजार के चढ़ाव उतार और हीरों के कारोबार में अच्छा मुनाफे के कारण आतंकी गिरोह इसमें प्रवेश कर रहे हैं। हीरों के सबसे बड़े बाजार सूरत के डायमंड असोसिएशन के अध्यक्ष सी टी वनानी के मुताबिक भी  कुछ महीनों से अचानक हीरों की खरीदारी तेज़ हो गई है और खरीदारों का पता नहीं चल रहा है। कोलकाता महानगर धीरे धीरे इस्लामी आतंकियों के लिए ट्रांजिट पॉइंट बन गया है और शक है कि बहुत जल्द कोई बहुत बड़ा विध्वंस हो सकता है।

Friday, April 28, 2017

एक बेदर्द महीना

एक बेदर्द महीना 
कश्मीर आये दिन खबरों में रहता है और खबर भी कुचग ऐसी मानो देश का जिगर कट जाय। वैसे केवल कश्मीर ही नहीं हमारे देश में अक्सर कुछ ऐसी ही  खबरें सुनने को मिलती हैं। अमूमन अखबारों की सुर्खियों में या  तो अक्खड़ राजनीतिक जुमलेबाजी होती  है या   खून खराबे की खबरें होती हैं। ये खबरें कश्मीर से कुछ ज्यादा आ रहीं हैं। खास कर गर्मियां तो कश्मीर के लिए निहायत बेदर्द महीना बन जाती हैं। खून और शोक का महीना बन जाती हैं। 9 अप्रैल को श्रीनगर  संसदीय  सीट के लिए  वोट डाले गए थे। यहां फकत 7 प्रतिशत मतदान हुआ। कश्मीर के किशोर जो संभवतः दुनिया के सबसे ज्यादा सैन्यीकृत इलाके में न केवल जवान हो रहे हैं बल्कि  उनके मन में एक खास तरह की ऊब और पाशविकता भरती जा रही है। देशवासियों ने टी वी पर देखा होगा कि मतदान के दिन कैसे कश्मीरी नौजवानों ने मतदान केंद्रों को घेर रखा था। कुछ पत्थ मार रहे थे।फौज ने भी कार्रवाई की और नतीजतन 8 लोग मारे गए , पैलेट गन्स की फायरिंग से अंधे भी हो गए। मारने वालों में 12 साल का एक लड़का भी था। दूसरे दिन घरों से लाशें निकली , कब्रिस्तान तक का वह सफर कुछ ऐसा दिखता था मानो हम  कोई फिल्म देख रहे हैं। पिछले साल भी कुछ ऐसा ही हुआ था। इस स्थिति का लाभ उस पर के आतंकवादी उठाते हैं और  भारत में उपद्रव करने के अवसर खोजते हैं। गुरुवार को ही कुपवाड़ा में घुस आए आतंकियों  ने  फौज के तीन जवानों  मार डाला। उधर कश्मीर सरकार ने बुधवार को राज्य में 22 सोशल मीडिया पर रोक लगा दी। इरादा था कि अफवाहें ना फैलें । कश्मीर की जनता ने इसे ई कर्फ्यू का नाम दिया है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग कहा जाता है और डिजिटल इंडिया के इस युग में यहां इंटरनेट पर  पाबंदी एक अजीब घटना है। पाबंदी के आदेश में लिखी गयी भाषा में बार बार राष्ट्र विरोधि शब्द का प्रयोग किया गया था। ऐसे शब्द जान मानस के अहं को आघात पहुंचते ही हैं साथ ही उसे उस तरफ जाने के लिए उकसाते भी हैं। ऐसी स्थिति से आतंकवाद को फैलने का मौका मिलता है। अमरीकी लेखक मार्क जर्मन ने अपनी ताज़ा पुस्त " थिंकिंग लाइक आ टेररिस्ट" में लिखा है कि " आतंकवाद एक तरीका है , क्रियाविधि है और उकसावे में फंसे लोग इसके चक्कर में आ जाते हैं।" 26/11 के हैमल के बाद यह सोचा गया कि भारत में इस तरह का नया वाकया है पर गुरदासपुर के हैमल और कश्मीर के कई हमलों में उसकी झलक साफ दिखती है। सबसे दुखद तथ्य है कि हमारी सरकार वही करती है जो आतंकवादी संगठन उससे करवाना चाहते हैं। कश्मीर में फसाद होता रहे यह उनकी मंशा है और  उस मंशा के पूरे होने का कारण बन रही है। कि दशक से आतांकि देश की जनता को भयभीत किये हुए हैं और इस भय की भीति को समाप्त करने  के लिए जो कदम उठाए जाते हैं वे पर्याप्त नहीं हैं। वे उपाय हमें महफूज नहीं रख सकते। दर असल समस्या क्या है कि हमारे सरकार जनता को यह बताने में कामयाब नहीं है कि वास्तव में झगड़ा किस बात का है और हो क्या रहा है। समस्या यह नही है कि कश्मीर पर हमारी नीति सही नही है बल्कि समस्या है कि सरकार ने जब देखा कि नीति कामयाब नही है तो उसने वहां दोगुनी फौज झोंक दी। यानी गलती बड़ी हो गई और जनता ने इसका विरोध कर इसे और बड़ा बना दिया। मोदी जी की सरकार या  महबूबा की सरकार वही कर रही है जो पिछली सरकारें करतीं आई हैं। नतीजा यह हुआ कि देश की जनता अल्पसंख्यकों को संदेह की नजर से देखने लगी।आतंकवादी संगठन यही तो चाहते हैं कि एकजुटता खत्म हो जाय। आज हमारी आबादी की दिल बनते दिख रहे हैं। अगर आप दुनिया भर के अधिनायक वादी शासन के इतिहास देखेंगे तो पाएंगे कि सब ने भय और हिंसा के माध्यम से सत्ता हथियाई है। इन दिनों एक नया जुमला सुनने को मिल रहा है कि " आतंकवाद बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।" यह एक रेटोरिक है और निशाने पर वही हैं जिन्हें उकसाया जा रहा है। इसासे मानस विभाजित होगा एकजुट नहीं होगा।  इसमें कई खतरे भी हैं । आतंकवाद चूंकि एक कॉन्सेप्ट है इसलिए इसे खत्म नही किया जा सकता है। इस विचार को शुरू से ही गलत स्वरूप दे दिया गया है। जबकि हमारे नेता जानते हैं कि कई कई अलग समूह भी हिंसा से जुड़े हैं , हमारे देश की यह एक बड़ी समस्या है। हम हिंसा की ओर देखते हैं उसके विचारों की ओर नहीं।सरकार सोशल साइट्स पर पाबंदी लगा सकती है विचारों पर नहीं।

Thursday, April 27, 2017

आदिवासियों की रोटी से जुड़ा है हमले का कारण

छत्तीसगढ़ में सी आर पी एफ पर हमला

आदिवासियों की रोटी से जुड़ा है हमले का कारण

हरिराम पाण्डेय

 आदिवासी विद्रोह की जड़ें ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध और आदिवासियों की रोजी से जुड़ी हैं। आज भी जब वैसे हालात होते दिखते हैं तो आदिवासियों में गुस्सा उफनने लगता है तथा निहित स्वार्थी तत्व इसी गुस्से का लाभ उठाते हैं। सोमवार को छत्तीसगढ़ में सी आर पी एफ की टुकड़ी पर जो आक्रमण हुआ उसकी जड़ें इतिहास में पेवस्त हैं। सरकार के खिलाफ या फौजी टुकड़ी के खिलाफ आदिवासियों के गुस्से की पहली घटना फरवरी 1910 में बस्तर रियासत में हुई थी। जब आदिवासियों ने वहां तैनात अंग्रेजी फौज पर औचक हमला कर दिया था। उस हमले को भूमकल यानी भूकम्प कहा गया था। उस घ्टना ने बस्तर को अंग्रेजही हुकूमत के खिलाफ रणक्षेत्र में बदल दिया। इसके लगबग 100 साल के बाद 2010 में दक्षिण बस्तर के छत्तीसगड़ के सुकमा जंगल में नक्सलियों ने सी आर पी एफ की टुकड़ी पर हमला कर 25 जवानों को मौत के घाट उतार दिया और उनके असलहे लेकर फरार हो गये।

हालांकि गृहमंत्री ने आश्वासन दिया है कि हमले के कारणों की पड़ताल कर उन्हें खत्म करने की कोशिश की जायेगी पर ऐसे आश्वासन केवल देने के लिये होते हैं और अक्सर देते सुने जाते हैं।  

बस्तर के बारे में जो सबसे उलझनभरी हकीकत है वह कि बस्तर कभी भी प्रत्यक्ष ब्रिटिश नियंत्रण में नहीं आया। पूर्ववर्ती बस्तर रियासत छत्तीसकगड़ राज्य के अंतर्गत था। लगभग 13000 हजार वर्गमुल की इस रियासत की आबादी 3 लाख 6 हजार 501 थी। यहां गोंड आदिवासियों की आबादी सबसे ज्यादा थी और राजा आदिवासी नहीं थे , वे राजपूत हुआ करते थे। दंतकथाओं के अनुसार बस्तर रियासत की स्थापना करनेवाले राजपूत राजा 14 वीं सदी में  वारांगल से मुसलमानों द्वारा खदेड़े गये थे। वे बस्तर आये आये ओर आदिवासियों की देवी दंतेश्वरी के मुख्य पुजारी हो गये। यहां दशहरा अजीब ढंग से मनाया जाता है। रिवाज है कि दशमी के दसरे दिन आदिवासी राजा को कैद कर लेते हैं ओर दूसरी सुबह उनहें आजाद कर देते हैं। यह आदिवासियों और राजा में एक खास सम्बंध भी दर्शाता है।

 बिटिश हुकूमत के पहले यहां मुगलों ओर मराठों का आधिपतय था पर जंगल होने की वजह से हमेशा अलग थलग रहा। सेटृल प्रॉविंस के डेपुटी कमिश्नर विल्फ्रेड ग्रिगसन ने बस्तर को ‘भारतीय इतिहास का अवरुद्दा जलाशय कहा है।’ 1818 में जब अंग्रेजों पूरे मध्य बारत को मरालठों से मुक्त कराया तो वे बस्तर से राजनीतिक समझौते करने लगे ओर 1853 में बस्तर परोक्ष रूप से अंग्रेजी शासन के तहत आ गया। अंग्रेजों ने बस्तर में तितयफा दखलंदाजी शुरू कर दी​। पहला कि, उनहोंने नयी वनसम्पदा नी​िति लागू कर दी। दूसरा कि, आदिवासियों को उनकी बूमि से हटाने लगे ओर तीसरा कि, राजा को हटाह कर अंग्रेज अफसरों या देसी अफसरों को राज्य का जिम्मा देने लगे। इसके लिये बहाना बनाया गया कि बस्तर में नरबलि रोकने के लिये यह सब किया जा रहा है। लेकिन कभी इसकी जांच नहीं हुई। महत्वपूर्ण वजह यह थी कि बस्तर में लौह अयस्क तथा अन्य अयस्क प्रचुर मात्रा में थे साथ ही बेशकीमती लकड़ियां थीं जिनपर कब्जा कर उनहें लूटना था। 1876 में अंग्रेजों ने बस्तर पर पूरी तरह कब्जा कर लिया और राजा नाम मात्र के लिये रह गये। इसके बाद आदिवासियांें का विद्रोह आरंभ हुआ। 1876 और 1910 में दो महत्वपूर्ण विद्रोह हुये। 1876 के विद्रोह का कारण था कि उस साल प्रिंस ऑफ वेल्स बारत आये थे आंेर उनकी बस्तर के राजा से मुलाकात होनी थी। आदिवहसियों को लगा कि यह राजा को कैद करने की साजिश है और उन्होंने विरोध में हथियार उठा लिये। राजा मिलने नहीं जा सके। लेकिन इसमें बहुत कम खून खराबा हुआ। इसके बाद 1910 में विद्रोह हुआ पर उसे कुचल दिया गया। इसके बाद जंगलों पर कब्जा शुरू हुआ ओर आदिवासियों की रोजी छिनी जाने लगी। लौह अयस्क के भंडारों की खुदायी होने लगी ओर उन्हें पट्टे पर उठाया जाने लगा। राजा को हटाया जाने लगा। राजा जो आदिवासियों के पूज्य थे उनहें हटाकर अफसरों को गद्दी सौंपी जाने लगी।

विद्रोह बढ़ता गया पर जंगलों को लेकर ब्रिटिश नीतियों में कोई बदलाव नहीं आया। जंगलों और खानों पर समझौते होते रहे उन्हें पट्टे पर दिया जाना जारी रहा। 1923,1924, 1929 और 1932 मे पुराने पट्टों का नवीकरण हुआ। उदाहरण के तोर पर बस्तर में लौह अयस्क निकालने के लिये टाटा को लाइसेंस दिये गये। जंगल की जमीन को भी आरक्षित किया जाने लगा। बस्तर के पॉलिटिकल एजेंट के प्रशासक ने 1940 में इस जंगल आरक्षण के खिलाफ रिपोर्ट भेजी थी जिसमें कहा गया था कि आदिवासी इसे पसंद नहीं करते हैं, पर कोई बदलाव नहीं आया। अंग्रेजों ने आदिवासियों की सबसे बड़ा रोजी रोटी का साधन बीड़ी पत्ता तोड़ने पर भी रोक लगा दी। वह रोक आज भी कायम है। यहां तक कि उन्होंने आदिवासियों से मवेशियों को चराने का भी शुल्क लेना शुरू कर दिया।

 जिन्होंने ब्रिटिश भारत का इतिहास पढ़ा है उन्हें ज्ञात है कि ब्रिटिश शासन के दौरान कई भारतीय समूहों ने विद्रोह किया था। कई आदिवासी समूहों ने हथियार अठाये थे ओर इतिहासकारों ने उनके कारणों की समीक्षा भी लिखी है। आजादी के बाद ब्रिटिश शासन की कई नीतियां थीं ​जिन्हें ना संशोधित न रद्द किया गया ओर वे यथावत लागू रहीं। लिहाजा आदिवासियों का गुस्सा कायम रहा या भड़कता रहा। नक्सलपंथी या माओवादी उसी गुस्से का शोषण करते रहे। यहां दो सवाल सामने हैं, पहला कि , क्यों बस्तर रियासत आदिवासी संघर्ष का बारत में सबसे बड़ा केंद्र बना रहा और दूसरा कि क्यों इस छोटी सी रियासत में इतना खून खराबा हुआ? 

इसके दो कारण हैं। पहला कि, बस्तर में अंग्रेजों ने सबसे ज्यादा हस्तक्षेप किया ओर असकी समपदा का शोषण किया तथा दूसरा कि आजादी के बाद सरकार ने नीतियों में कोई संशोधन नहीं किया ओर इससे वह आंदोलन तथा विद्रोह चेहरे बदल बदल कर उभरते रहे। आदिवासियों का विद्रोह इस समय माओवाद के नाम से दिख रहा है। इतिहास मे. इेसे कई अदाहरण देखने को मिलते हैं कि कैसे अंग्रजों ने ग्रामीण भारत में बेचौनी पैदा कर आतंकवाद की ​िच्ंगरी को हवा दी। 18वीं और 19 वीं शताब्दी में देश में सबसे ज्यादा आदिवासी आंदोलन हुये। इतिहासकार कैथलीन गोख का कहना है कि ‘ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीय ग्रामीण जीवनशैली में सबसे ज्यादा अवरोध पैदा किया, यहां तक कि मुगलों से भी ज्यादा।’ इतिहासकारों ने तो यह भी बताने की कोशिश की है कि भारत सरकार ने औपनिवेशिक काल की नीतियों, खासकर , जंगल से सम्बंधित नीतियों, में संशोधन नहीं किया ओर आदिवासी संघर्ष कायम रहा खासकर के बंगाल, ब्गिहार , झारखंड ओर मध्यप्रदेश के वे इलाके जहां प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन था। बस्तर या छत्तीसगड़ में जो वर्तमान नक्सल आंदोलन या विद्रोह है वह भी इसी का कारण है। यह आदिवासी विद्रोह का ताजा अवतार है। इससे जाहिर होता है कि वर्तमान सरकार भी उन कारणों की पड़ताल कर उन्हें खत्म करने में सक्षम नहीं हो पा रही है। आज हमारीण् सबसे बड़ी मजबूरी है कि केंद्र सरकार या छत्तीसगड़ सरकार के पास कोई ऐसा नहीं है जो आदिवासियों को विश्वास में लेकर बात कर सके। जो उनके नेता बने बषैठे हैं वे बाहरी लोग हैं और वे लोग युन्नान, कम्बोडिया और नक्सलबाड़ी से दीक्षित लोग हैं जिनमें आदर्श कम और स्वार्थ ज्यादा है। जो लोग अमन की काहेशिश करते हैं उन्हे ‘चुप’ कर दिया जाता है। आज सरकार या तो ताकत दिखा रही है या राजनीतिक जोड़ तोड़ में लगी है।

यहां सबसे जरूरी है कि सरकार दूरदर्शिता दिखाये ओर पुराने राजप्रमुखों के वारिसों को सामने लाकर आदिवासियोंसे वार्ता शुरू करे। इससे माओवादी ततव अलग थलग पड़ने लगेंगेनितियों में सुधार हो और रोजी रोटी का मुकममल आश्वासन दिखायी पड़ने लगे। आंदोलन खुद खत्म हो जायेगे।   

रक्षकों से मुकाबला?

रक्षकों से मुकाबला ? 
अगर सियासती बड़बोले नारों को दरकिनार  कर दें तो हमारा देश इन दिनों गंभीर सामाजिक- आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है। यहां रिजगार का अभाव है, कृषि दिनोंदिन पिछड़ती जा रही है और हम गो रक्षा , मूर्तियों और प्रेमी जोड़ों के विहार पर बहस कर रहे हैं, उसे रोकने में लगे हैं। गायों के आधार कार्ड बनाये जायँ या नहीं इन्हीं सब बातों में उलझे हुए हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ लगातार सेवा भावी लोगों से अपील कर रहे हैं कि गैरकानूनी कसाई घरों के विरुद्ध लड़ाई को जारी रखें। इसी में से कुछ लोग छेड़खानी करनेवाले मजनुओं के खिलाफ गोलबंद हो गए हैं और सहमति के   प्रेम संबंधों से जुड़े युगलों को भी परेशान करने का अधिकार ले बैठे हैं। अयोध्या के विवादित ढांचे के अभियुक्तों में से कुछ ने तो यह घोषणा कर दी है कि उनका यह कार्य उतना ही गौरवशाली है जितना देश स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले नौजवानों का था। भारत अपनी " आन- बान और शान की रक्षा करने वाले , भ्रष्टाचार से दो- दो हाथ करने वाले और राष्ट्र की प्रतिष्ठा बचाने वाले " रक्षकों की तलाश में था जो उसे मिल गए। दिल्ली में पशु व्यापारियों की पिटाई होने लगी और पुलिस ने पीड़ितों को " पशुओं से क्रूरता" के आरोप में जेल भेज दिया। जैसा कि ऐसी हर घटना में होता है इन रक्षकों ने औरों के उत्प्रेरित - प्रेरित कर रक्षकों की जमात बना ली। इन रक्षकों के कारनामो से कई जगह आतांक व्याप गया , मुस्लिमों को धमकियां दी जाने लगीं, यू पी में तो कश्मीरियों के खिलाफ पोस्टर- बैनर लग गए। उन्हें चेतावनी दी जाने लगी कि यहां से तत्काल भागो वरना परिणाम झेलना होगा। बॉलीवुड का एक गवैया तो मुस्लिमों के खिलाफ गाने गाता घूमने लगा। इस हालात से प्रोत्साहित कश्मीर में तैनात हमारे जवान भी कुछ लोगों को वहां मारने पीटने लगे और पाकिस्तान मुर्दाबाद कहने के लिए बाध्य करने लगे। यही नही पिछले साल हमारे प्रधान मंत्री जी हठात नोटबंदी की घोषणा कर दी जिससे अर्थ व्यवस्था में शामिल 86%  करेंसी बेकार हो गई। ... और इस साल वित्त मंत्री अरुण जेटली ने  वित्त विधेयक 2017 में संसद में बगैर बहस के 33 संशोधन घुसा दिए। यह रक्षक भाव का ही रूप है क्योंकि इसे कानून की मंजूरी नहीं मिली थी। ये रक्षा कर्म वास्तव में विधि सम्मत नही होते और ये संभावित चोर दरवाजों का लाभ उठाते हैं। अब आधार कार्ड के ही मसले को देखें, इसमें कई कमियां हैं लेकिन संसद से मंजूरी दिला कर इस दोषपूर्ण प्रणाली को मानने के लिए बाध्य किया जा रहा है। राजनीतिक दलों द्वारा धन उगाही के क़ानून में संशोधन कर उसे कम पारदर्शी बना दिया गया।  
इन रक्षा कर्मों को उचित ठहराने के लिए तरह  तरह की कहानियां प्रचारित की जा रहीं हैं। उत्तरप्रदेश चुनाव ने तो अवांतर सत्य का नया प्रतिमान गढ़ दिया। लोगों को यह बताया जा रहा है तथा मानने पर बाध्य किया जा रहा है कि इस बहुमत का अर्थ नोटबंदी का समर्थन है। जन साधारण को यह समझाया जा रहा है कि धर्म और जाति आधारित मतदान अब पुराने दिनों की बात हो गई। भा ज पा को बहुमत का अर्थ देश भर में मुस्लिम और दलित विरोध है। ये रक्षक धीरे धीरे फैलते जा रहे हैं और संविधान उनकी ओट होता जा रहा है।प्रतिक्रियावादी खबरों के ताबड़तोड़ प्रचार से सही बात समझ पाना कठिन हो गया है । ऐसे में सांप्रदायिकता के विरूद्ध खड़ा होना मुश्किल होता जा रहा है। इसासे साफ पता चलता है कि राजनीतिक विरोध समाप्त हो चुका है और समाज के रूप में हम निर्बल होते जा रहे हैं। कुछ लोग तो यह भी कहने लगे हैं कि लोकतंत्र के योग्य हमारा समाज है ही नहीं। कोई कुछ नहीं बोल रहा है। अगर कोई कुछ कहता है तो उसकी बोलती बंद कर दी जाती है । यह बहुत दुखद स्थिति है। हालात ऐसे होते जा रहे हैं कि    कुछ दिनों के बाद देश भर में मुनादी होती सुनी जाएगी कि, ( भारती जी से क्षमा याचना सहित) 
खलक खुदा का , मुलुक बाश्शा का
हुकुशाहर कोतवाल का 
हर खासोआम को आगाह किया जाता है कि 
खबरदार रहें 
बच्चों को सड़क पर ना जाने दें
क्योकि रक्षकों का गिरोह देश गौरव रक्षा के लिए 
सड़कों पर निकल पड़ा है 
शहर का हर बशर वाकिफ है 
कि मार खाते भले आदमी को 
और अस्मत लुटती औरत को 
और गाय लेकर जाते लोगों को 
बचाने की बेअदबी ना कि जाय ।