आतंकवाद ने हमें कितना बदला
हरिराम पाण्डेय
पिछले हफ्ते ईरान की संसद पर आतंकियों ने हमला कर 30 लोगों को मौत के घाट उमार दिया। उसके दो दिन पहले लंदन ब्रिज पर आतंकियों ने हमले किये और कई लोगों को मार डाला। इसके पहले भी कई घटनाएं हुईं। दुनिया के किसी ना किसी कोने में अक्सर इस तरह की कोई ना कोई घटना होती है और कुछ लोग- बेकसूर लोग- मारे जाते हैं। मारे जाने वालें में स्कूल जाने वाले बच्चे होते हैं, सुबह घूमने जाने वाले या बाजार में खरीदारी करने वाले बूढ़े लोग होते हैं, औरतें होती हैं या इसी तरह के रोजमर्रा के काम निपटाने वाले निर्दोष लोग होते हैं। ये आतंकियों के हिंसाचार के शिकार होते हैं। बार बार मीडिया में सवाल उठता है कि आतंकी आखिर क्यों निर्दोष लोगों की जान लेते हैं। कुछ लोगों ने इसका कारण आतंकियों के राजनीतिक इरादों को इसका कारण बताया साथ ही कहा कि सोशल मीडिया इसके प्रभाव को और कट्टरपंथी आचरण को बढ़ावा दे रही है। कुछ लोगों ने इसे देखा देखी बताया है और कुछ कहते हैं ऐशसा कुछ भी नहीं , बस यह आपराधिक आचरण की अभिव्यक्ति है। लेकिन तो सच तो यह है कि किसी आतंकवादी के दिल- ओ – दिमाग को समझ पाना असंभव है। कोई भी समाजशास्त्री या अपराधशास्त्री यह नहीं जान पाता कि लंदन ब्रिज पर हमला करने वाले वे तीन आतंकी या ईरान की संसद पर हमला करने वाले वे आतंकी क्या चाहते थे। उनके मन में क्या था? हमें उनके कामकाज , चाहे वह हिंसक कार्य ही क्यों ना हो , को ही सोचना चाहिये। वे आतंकवादी हैं उनका काम आतंकवाद है। इससे एक सवाल सामने आता है कि क्या ये हमलावर सचमुच अपने लक्ष्य को हासिल कर पाते हैं? एक अर्थ में उत्तर मिलता है मिलता है बिल्कुल नहीं। हमले का बद समाज का जीवन सामान्य हो जाता है , सबलोग अपने समान्य कामकाज में लग जाते हैं। कोई भी डरा-डरा नहीं रहता है। लेकिन क्या यह रोज- ब – रोज का सामान्य आचरण अपने पीछे एक महत्वपूर्ण सवाल नहीं खड़े कर रहा है? हमारे समाज के मानस पर एक बेहद घातक प्रभाव धीरे-धीर पड़ता दिख रहा है। अभी इसपर ध्यान नहीं जा रहा है किसी का। इसके जवाब की पड़ताल करने के लिये हमें आतंकवाद की भावनाओं को समझना होगा कि ये भावनाएं किस तरह उकसाती हैं। मनोशास्त्री शेल्डन सोलोमन के मुताबिक ‘केवल इंसान ही आतंक को महसूस कर सकता है क्योंकि एकमात्त यही जीवधारी है जिसमें यह सोचने की शक्ति है कि हम सब खत्म हो जायेंगे। चाहे जब खत्म हो जाएं चाहे जैसे खत्म हो जाएं।’ इस भाव और विचार के बावजूद दुनिया की तमाम संस्कृतियां हमें भय और आतंक के खिलाफ जीने का सलीका सिखातीं हैं। सारी संस्कृतियां एक अज्ञात द्वारा सुरक्षा का आश्वासन देती हैं बशर्ते हम हम उनके बताये तौर तरीको को मानें। कुछ संस्कृतिया जैसे हमारी सनातनी संस्कृति तो जीवन के बाद भी जीवन का आश्वासन देती हैं। हम आश्वस्त होते रहते हैं कि जो हो रहा हषै वह होता रहेगा पर अगर हम ‘सही’ काम करेंगे तो हम सुरक्षित रहेंगे। अगर हम अपनी संस्कृति ओर अपने धर्म के सुझाये गये तौर तरीकों का अनुसरण करेंगे तो महफूज रहेंग। लेकिन मन के किसी कोने में एक डर होता है कि हमने भी तो कबी कुछ गलत किया है। बस यहीं से शुरू होता है डर। अगर आप विश्लेषण करें तो पायेंगे कि धर्म और संस्कृति का सारा कारोबार ही डर से चलता है। आतंकवाद डर या कहें मनोवैज्ञानिक आरक्षा की इसी दीवार में सेंध लगाता है। आतंकवाद के बारे में भरोसे से कुछ कहा ही नहीं जा सकता। 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई के लोग अपने काम काज में लगे थे किसी को मालूम नहीं था कि क्या होने वाला है। इसी तरह ईरान की संसद में लोग अपने काम जुटे थे। लंदन ब्रिज पर लोग रोज की तरह टहल रहे थे। कुल मिला कर कहाल जा सकता है कि आतंकवाद हमें यह बताता है कि कोई सुरक्षित नहीं है। यानी यह धर्म और संस्कृति के आश्वासनों की एंटीथीसिस है। अब सवाल है कि अगर आतंकवाद यह बताता है कि हम सुरक्षित नहीं हैं तो क्यों नहीं इसका भय हमें हयदम सताता रहता है। मनोविज्ञानी जेफ ग्रीनबर्ग के अनुसार ‘जब आतंकवाद का डर बड़ता है तो हमारा धार्मिक-सांस्कृतिक विचार या कहें आस्था हमें और जोर से जकड़ लेती है।’ ग्रीनबर्ग की बातों से यह जाहिर होता है कि किसी खास देश में जहां राष्ट्रवाद की संस्कृति या धार्मिक आस्था का ज्यादा प्रभाव है वहां आतंकवाद का विकास होता है। भारत का उदाहरण लें यहां कट्टर राष्ट्रवादी संस्कृति और गहरी आस्थाओं के मुकाबले ही दूसरी आस्था का आतंकवाद उभरा, मध्यपूर्व मुस्लिम देशों में या कट्टर इसाई देश इंगलैंड में यही हालात हैं। अमरीका में जब 9/11 का हमला हुआ तोश् उसके बाद लगबग हर घर या वाहन पर राष्ट्रीय ध्वज नजर आने लगे। यह एक तरह का राष्ट्रवादी आश्वासन था। लोग बाढ़ या विपदा में दिल खोलकर दान देते हैं। यह भी एक तरह से सांस्कृतिक डिफेंस मेकेनिज्म है। लेकिन इसका एक अंधेरा पक्ष है। यह दूसरे धर्म या दूसरी संस्कृति के लोगों से पहले विभेद पैदा करता है और फिर उससे रोष उत्पन्न होने लगता है। अब जब हमला होता है तो उसके बाद हम अपनी संस्कृति और धार्मिक आस्था के खोल में प्रवेश कर सुरक्षित और आरामदेह महसूस करने लगते हैं। बिना यह सोचे कि हमलावर तो इसी को लक्ष्य बना रहे हैं। आज वैश्विकता के बाद हमारी सांस्कृतिक विश्व द्ष्टि के लिये चुनौतियो का उत्पन्न होना तो स्वाभाविक है। रोज हमारी जिंदगी दूसरी संस्कृति पर हावी होने या असे खारिज कर देने की कोशिशों में लगी है। यानी एक ही भूभाग में रहने वाले लोगों के वजूद को खारिज करने कोशिश होने लगती है। भारत में सिख आतंकवाद, मुस्लिम आतंकवाद और अब धीरे धीरे सिर उठाता दलित आतंकवाद इसी मनोदशा का कारण है। यह खुद में एक सिद्धांत नहीं है बल्कि बदलते आचरण का संकेत है। आतंकवादी हमला चाहे वह हथियारों से हो या विचारों से हमें अपने जीवन- आदर्श और विचार की नश्वरता की याद दिलाता है। अभी यह बात खुल कर सामने नहीं आ रही है पर जिस तरह के बदलाव दिख रहे हैं वे भविष्य में इतर संस्कृति और धार्मिक आस्था वालों के साथ एक भारी दुराग्रहपूर्ण और संदेहभरे राजनीतिक , सामाजिक विभाजन का कारण बन सकते हैं। यह एक खतरनाक संकेत है और इसे रोकना जरूरी है। इसीलिये हमारे नेताओं ने सर्वधर्म समभाव और बहुसंस्कृतिवादी देश की कल्पना की थी। आज उसे स्यूडो सेकुलरिज्म का जामा पहनाने का प्रयास किया जा रहा है। आतंकवाद हमें बुरी तरह बदल रहा है। अभी से उसकी धमक सुनायी पड़ रही है।
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