CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Sunday, June 11, 2017

भारी किसान आंदोलन की सुनगुन

भारी किसान आंदोलन की सुनगुन

भारत सरकार ने जो कृषि आधारित कार्यक्रमों तथा योजनाओं का कम्प्यूटरीकरण किया उससे वे मुख्य धारा से बाहर आ गये। एक तरह से उनका वहिष्करण हो गया है।यह सरकार द्वारा किया गया एक भारी जुल्म कहा जा सकता है। एक तो देश के किसान हर सरकार के काल में हर तरह के आश्वासनों के बावजूद भारी विपत्ति से जूझते रहे हैं। कभी सूखा तो कभी अस्थिर कीमतें कभी पैदावार की कमी के कारण भारतीय कृषि क्षेत्र नरक तुल्य बन गया है। अबल पिछले साल से सरकार की नोटबंदी की नीति , आधार से कामकाज जोड़ने की प्रक्रिया और कम्प्यूटरीकरण (डिजीटाइजेशन) ने इस पीड़ा को और बढ़ा दिया। किसान जो एक जमाने में देश की मुख्यधारा का एक अंग था वह अलग थलग हो गया। अभी हाल में जो किसानों का आंदोलन आरंभ हुआ हे वह भी इन्हीं बदलावों के कारण से हुआ है। सरकार को इसपर गंभीरता से तथा ईमानदारी से विचार करना चाहिये वरना जिस दिन यह व्याहपक रूप लेगा उस दिन शायद काबू में ना आ सके। कृषि क्षे की पीड़ा और किसानों का दुख सरकार के लिये नया नहीं है। अगर किसानों की मौत को ही​ मापदंड मानें तो 2013 से हर साल 12 हजार किसान आत्म हत्या करते आये हैं। सरकार ने वादा किया था कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जायेगी। इसके लिये 14 प्रतिशत विकास दर की जरूरत है। लेकिन वर्तमान विकास दर महज 4 प्रतिशत है। यह विकास दर लक्ष्य प्राप्ति के लिये पर्याप्त नहीं है। अगर लक्ष्य प्राप्त हो भी जाता है तो उससे क्या होगा। ओ चाटने से प्यास बुझी है क्या कभी। किसानों की औसत वार्षिक आय 6400रुपये है जो अगर दोगुनी हो भी जाती है तो कुलराशि होगी 12,800 रुपये। बड़ती महंगायी के इस दौर में अबसे 5 साल के बाद 12800 रुपये सालाना आय की क्या औकात होगी इसका अंदाजा कोई भी लगा सकता है। वैसे आय दोगुनी होने की आस शायद ही पूरी हो क्योंकि कृषि क्षेत्र तो अकाल,अनावृष्टि, सिंचायी के अपार्यप्त साधनों और उत्पादों की कीमतों की अनिश्चयता कंटकपूर्ण राहों से गुजरता है। इधर सरकार का यह मानना है कि डिजिटाइजेशन की प्रक्रिया, सीधे बैंक खाते में ट्रांसफर की विधि और उन खातों का आधार प्रमाणीकरण से लघु और मध्यम दर्जे के किसानों को सीधा सरकारी लाभ पहुंचाया जा सकता है। उन लाभों में बंदरबांट हो जाने की आाशंका नहीं रहेगी। अब विमुद्रीकरण को आधार प्रमाणीकरण तथा डिजीटल भुगतान का जरिया बनाया गया। मार्च 2017 में कई कृषि योजनाओं को हासिल करने के लिये आधार को अनिवार्य कर दिया गया। 31 मार्च से देश भर में आधार कार्ड के बिना कोई किसान अपनी दिट्टी की उत्पादकता की जानकारी से जुड़ी सूचनाएं हासिल नहीं कर सकता है। फसल बीमा के लिये भी आधार अनिवार्य हो गया। खाद और खेती के लिये अन्य सामानों की खरीद के लिये आधार नम्बर के बाद ही भुगतान किया जा सकता है। अगर आधार नहीं है तो खाद पर सब्सीडी नहीं हासिल हो पायेगी। आधार प्रमाणीकरण को सरकार ने अपने तीन वर्षो की सबसे बड़ी अपलब्धि बतायी है। अब जिस तरह विमुद्रीकरण से किसान पीड़ित हुये थे उसी तरह इस भुगतान डिजीटाइजेशन से बी हो रहे हैं। जबकि देश की कुल आबादी खास कर कार्यबल का आधा हिस्सा किसी ना किसी रूप में खेती से जुड़ा है और सकल ारेलू अत्पाद में इसका 15 प्रतिशत योगदान है। अब सरकारी योजनाओं का लाभ उठघ्ने के लिये आदार कार्ड जरूरी है जबकि खुद सरकार ही स्वीकार करती है कि लगभग देश की 75 प्रतिशत आबादी के पास ही आधार कार्ड है। अब जिनके पास यस कार्ड नहीं होगा वे सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित रहेंगे।

अभी जो समस्याएं आ रहीं हैं वे तो बस यूं समझ लिजीये कि शुरूआत हैं। आने वाले दिनों में इनका विकराल रूप देखने को मिल सकता है। जिनलोगों को आधार कार्ड नहीं मिला है उनमें से अधिकांश गरीब लोग हैं और समाज के हाशिये पर जी रहे हैं। उन्हें सरकारी सहायता नहीं मिलेगी। इसके अलावा जिनके पास कार्ड है भी उनमें बहुतों का प्रमाणीकरण नहीं हो पा रहा है क्योंकि उंगली की छाप का मिलान करने वाली अधिकांश मशीनें ठीक से मिलान नहीं कर पा रहीं हैं। जिससे कठिनायी बढ़ जा रही है। यही नहीं आधार संख्या से जमीन के अभिलेख नहीं मिलते हैं, बैंक खाते नहीं जुड़े हैं जैसी समस्याएं बढ़ती जा रहींी हैं। हाल की एक रपट के मुताबिक तेलांगना के 36 प्रतिशत लोगों के आधार के विवरण से उनकी पड़ताल नहीं हो पायी। कर्नाटक में लगभग 40 हजार किसानों को फसल मार खाने का मुआवजा केवल इसलिये नहीं मिल सका कि बैंक खातों में उनके आधार आंकड़े सही नहीं दर्ज हो पाये थे। यही नहीं इंटरनेट के सिग्नल की कमी के कारण एक आदमी के आधार के प्रमाणीकरण में लगभग 7 मिनट लगते हैं। यानी एक घंटे में महज 9 आदमी का प्रमाणीकरण हो सकता है। इसका अर्थ हुआ कि एक प्वाइंट पर आठ घंटे की सामान्य कार्यावधि में 72 से 80 लोग ही निपटाये जा सकेंगे। एक हजार की सामान्य आबादी के एक गांव के लोगों इस रफ्तार से सरकारी लाभ हासिल करने में खेती का पूरा एक सीजन निकल जायेगा। फिर ‘‘का बरखा जब कृषि सुखाने।’’ किसी भी बदलाव के लिये जागरुकता और सादान का प्राचुर्य जरूरी है। सरकार आनन फानन में बदलाव लाना चाहती है और उम्मीद करती है कि लोग अससे होने वाली मुश्किलों को झेलें। यही नहीं आधार के आंकड़ों की गोपनीयता भी एक मसला है। कुछ माह पहले की ही तो बात है कि सरकारी पोर्टल से बड़ी संख्या में आधार के आंकड़े चोरी हो गये थे। जमीनों के अभिलेखों का आधार से जोड़ने को लेकर गावों मशें भारी डर व्याप्त हे। लोग यह समझ रहे हैं कि इसके जरिये उनकी जमीन हड़पी जा सकती है। डर के माध्यम से बड़े आंदोलनों का भी खतरा होता है। बहिष्करण है यह एक तरह से गरीब किसानों का। यह खुश्में बहुत बड़ा अपराध है तथा जैसा महसूस हो रहा है खेती के दो मौसमों के बाद इसका प्रभाव देखने को मिलेगा। अभी तो बस शुरुआत है।         

0 comments: