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Tuesday, June 6, 2017

मोदी सरकार का सबसे बड़ा हथकंडा

मोदी सरकार का सबसे बड़ा हथकंडा
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी सरकार का सबसे हथकंडा है कि बौद्धिक विमर्श को खत्म करो। सरकार की खिलाफ कोई भी प्रतिक्रिया मोदी जी के भक्तों के हुजूम द्वारा मुखालफत मैन ली जाती है और उसके बाद शुरू हो जाती है लानत-मलामत। अभी हाल में कश्मीर पर ट्वीट्स की बाढ़ आ गयी थी कि  समस्या को बौद्धिक रूप क्यों दिया जा रहा है? ट्वीट में कहा गया कि ' राष्ट्र प्रथम और कुछ नही , बकवास बंद करो।' एक और बहस के दौरान राष्ट्रीय स्वयं संघ ने कहा कि ' दो तरह के राष्ट्र विरोधी होते हैं पहला जो आतंकित करते हैं और दूसरा जो बौद्धिक औचित्य बताते हैं।" सरकार के भक्तों का कहना है कि कश्मीर में पत्थरबाजों को आतांकि घोषित किया जाय पर उन पर बौद्धिक आदर्शों का कवच है। यह बात केवल भक्तों की नहीं है बल्कि सरकारी प्रवक्ता तक ऐसे संकेत देते दिखते हैं। चाहे वह माओवाद हो  या कश्मीर हो या साम्प्रदायिक तनाव हो या पाकिस्तान से जुड़ी कोई घटना हो , यही देखने को मिलता है कि सरकार अपनी नाकामियों पर जे एन यू टाइप इंटेलेक्चुल्स , ' लुटियन' पत्रकारों' मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, उदरवादी लेखकों भारत पाक शांति के हिमायतियों के दोषों का पर्दा डाल देती है। आज बौद्धिकता एक अपशब्द हो गया है , गाम्भीर व्यंग्य हो गया है। इसके निशाने पर रहते हैं अकादमिक, लेखक, पत्रकार , तर्कवादी जमात और मनवाधिकार कार्यकर्ताजैसे लोग जिनका काम ही विवेचनात्मक चिंतन पर आधारित है। अब जाहिर है कि ऐसे लोगों के विचार अक्सर संघ परिवार के विचार से टकराएंगे। संघ के आदर्श अलग हैं और विवेचनात्मक चिंतन के प्रतिगामी हैं क्योंकि उनकी ट्रेनिंग में ही आज्ञाकारिता है। अब संघ परिवार के विकास ने इंटेलेक्चुअलिटी शब्द को प्रशंसा नहीं अपमानजनक व्यंग्य का अर्थ दे दिया है। इतिहासकार रिचर्ड हॉस्टेडर ने अपनी विख्यात पुस्तक " एन्टी इंटेलेक्चुअलिजम इन अमेरिकन लाइफ " में लिखा है कि " बौद्धिकता मानव समाज को ताकत और हितों के समन्वय तथा संतुलन में समाझ्ने का हुनर है।" सरकार और मीडिया की बहस पूर्णतः नैतिक शर्तों पर होने लगी है और उसी आधार पर सही गलत का फैसला होने लगा है। अभी कश्मीर का ही मसला लें। वहां के पत्थरबाज आतंकवादी माने जांय और उनसे वार्ता व्यर्थ है , उनसे समझौता हो नहीं सकता है। इतिहास गवाह है कि समझौता में नाकामी या अनिच्छ  सदा हिंसा को जन्म देती है। कश्मीर इसका  गवाह है।कश्मीर ही क्यों  उग्र राष्ट्रवाद के कारण होने वाली हिंसक घटनाएं भी इसी का एक रूप हैं। नफरत और हिंसा पुरातन पंथी  तंत्रों की देन है और बौद्धिक चेतना के विरूद्ध है। इसके पहले भी दक्षिण पंथी सरकार इस देश में चल चुकी है , उस समय श्री अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री थे , उस काल में आदर्श आधारित हिंसा की घटनाएं नगण्य हुईं । क्योंकि अटल जी मोदी जी की तुलना में  बहुत विस्तृत दिमाग के इंसान थे ।उनमें समझौते का सद्गुण था और वे समझते थे कि आदर्श को एकतरफा लागू करने का फल हिंसा ही होता है। लगातार धोखों के बावजूद उन्होंने पाकिस्तान से कई बार बात करने की कोशिश की , हुर्रियत से भी वार्ता का प्रयास किया जो आज के दौर में राष्ट्रविरोध माना जाता। मशहूर अमरीकी चिंतक सिंक्लेयर लेविस ने एक बार कहा था कि ' जब अमरीका में फासीवाद आ जायेगा तो उसे झंडे में लपेट के ताबूत में दफना दिया जाएगा।'  वर्तमान दौर को फासीवाद की संज्ञा देना हालांकि अतिशयोक्ति होगी लेकिन जो दौर  चल रहा है वह देश को अधिनायक वाद की ओर तो ले ही जा रहा है। यह दौर देश को झंडे ( राष्ट्रीय ध्वज नहीं  )   में लपेट कर  त्रिशूल पर उठाए हुए है। इस झंडे प्रभाव केवल विरोध को खत्म करना ही नहीं दसिं बल्कि विवेचनात्मक चिंतन को दबाना भी है। आज आंख मूंद कर हुक्म मानना समय की मांग बनती जा रही है और कश्मीर, माओवाद, पाकिस्तान इत्यादि किसी भी विषय पर विवेचनात्मक चिंतन विरोधी खेमे में खड़ा करता देने के लिए काफी है। हां  में हां  मिलाना देशभक्ति की निशानी है और विरोध गद्दारी का सबूत। इस मानसिकता ने समस्त विरोधियों को भ्रष्ट और स्वार्थी  का रूप दे दिया है। याद करें नोटबंदी कि घहोशना के समय हर अपील भावनाओं, नैतिकता और दिल को संबोधित थी , कोई भी बात तर्क और आर्थिक विमर्श से जुड़ी नहीं थी। कौटिल्य के मुताबिक सबसे खतरनाक राजा वह होता है जो प्रचलित मान्यताओं को ध्यान में रखे बिना खुद के लिए सोचता है। हम में से बहुत लोग ऐसे हैं जो गायों के लिए इंसानों को मार डालना उचित समझते हैं। आज की सरकार की सबसे बड़ी सफलता यही है लेकिन लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा भी यही है।

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