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Sunday, June 4, 2017

द्वेष और आत्मगौरव

द्वेष और आत्मगौरव

इन दिनों देश के सभी वर्गों में गुस्सा बढ़ता जा रहा है। अल्पसंख्यक बहु संख्यकों से कुपित हैं , बहुसंख्यकों में विभिन्न वर्गों में द्वेष बढ़ता जा रहा है , राजनीति में सिद्धान्त नही क्रोध के वागदंश का बोलबाला है और दिलचस्प बात यह है कि द्वेष की अभिव्यक्ति ही हर्ष का उद्रेक बनती जा रही है।किसी को मामोपोली बात पर बेतरह पीट कर कोई खुश है तो सोशल मीडिया पर मिथ्या समाचारों को सच की तरह पोस्ट कर एक समूह प्रसन्न है। अपने देश में एक समय था जब द्वेष की खुल्लमखुल्ला अभिव्यक्ति नही की जा सकती थी। उसपर सामाजिक पाबंदियां थीं। द्वेष का प्रदर्शन लज्जाजनक कार्य था। लेकिन समाज मेंब जैसे जैसे गुस्सा बदशता गया द्वेष सार्वजनिक आमोद का कारण बन गया। आज किसी को कोई खुल कर अश्लील गालियां देता देता और वहां खड़े लोग हंसते हैं। कोई उसे रोकता नहीं।हैम रोज अलग- अलग तबके के लोगों से जातियों, संप्रदायों,धर्मों, गरीबों के बारे में अपमानजनक बातें सुनते हैं और ऐसे चुपब रहते हैं कि यह सही हो रहा है, द्वेषपूर्ण प्रलाप नहीं है। रोज आरक्षण के समर्थन और विरोध में बातें होती हैं, महिलाओं के प्रति व्यवहार पर बातें होतीं हैं , खाद्य पदार्थों पर बातें होती हैं और दुख तो यह है कि ये सब बातें रोजमर्रा के गपशप की तरह होती जा रहीं हैं। कभी किसी ने सोचा है कि इस द्वेष को खत्म करने के लिए क्या किया जाय या इसके मुकाबले के लिए कौन से उपाय किये जांय। हम उससे पीठ फेर लेते हैं। यकीनन , राजनीतिक मदद से साहसी बने  बड़बोले समूह के विकास के कारण ऐसा हो  है , लेकिन यही कारण नहीं है। कई ऐसे सामाजिक कारण भी हैं जिससे इसे बढ़ावा मिलता है।हम इसे ना रोक पाते हैं ना इसे निष्क्रिय कर सकते हैं क्योंकि इसमें से बहुत तरह के द्वेष रंग, जाती, नस्ल, धर्म और लिंग से सम्बद्ध होते  हैं। इतना ही नहीं कई बार इनकी अभिव्यक्ति भी अन्य तरीकों से होती है। अपने टी वी चैनलों को देखें उनकी खबरों में अश्वेतों के मुकाबले गोरों को ज्यादा तरजीह दी जाती है, जबकि विदेशी  चैनलों में कालों को तरजीह दी जाती है।  हमारे समाज में गोरा परस्ती का कारण हमारी शिक्षा प्रणाली है। हमारे पढयक्रम पश्चिमी देशों के बौद्धिक उत्पादों से भरे पड़े हैं।हिंदी पत्रकारिता और स्वतंत्रता संग्राम के कारक तत्वों पर शोध के लिए हमारे छात्र विदेश जाते हैं। यसहिं से हमारे मन इन हीं भाव भरने लगता है कि हमें अपने देश के बारे में जानने के लिए विदेश से मदद लेनी पड़ती है। हम बचपन से ही विदेशियों को ज्यादा काबिल समाझ्ने लगते   हैं और खास करके विदेशी पुरुषों को। हमारे आदर्शों में लेखक वैज्ञानिक कलाकार सब विदेशी हैं , हम संस्कृत , फारसी,  चीनी सहित्य की ओर देखते भी नहीं। यह हमारे लिए कठिन जान पड़ता है। धीरे धीरे हमारे मन में  यह बैठ जाता है कि जो कुछ अच्छा है वह विदेशी है। हैम बिना सोचे समझे विदेशी लेखकों और दार्शनिकों को अपना लेते हैं। यह सोचते तक नहीं हैं कि जो मॉडल यूरोप में सही है वह भारत गलत भी हो सकता है।ह्यो सकता है कि वहां नस्लवाद और नारिद्वेष का चलन ह्यो पर अपने देश में यह गलत है लेकिन इस विवेचना के बिना वे इसे अपना लेते हैं। इसासे तालीम की फितरत बदल जाती है। शिक्षा के माध्यम से यह राष्ट्रीय मानस में बनने लगता है और बाद में द्वेष की नींव बनता है । दरअसल द्वेष टैब नशीन फैलता जब एक समुदाय या सम्प्रदाय दूसरे पर हमला करता है। उल्टे यह एक सतत प्रक्रिया है जो हर जातीय, सामाजिक और धार्मिक ढांचों को स्वरूप देता रहेगा, यही नहीं उसके रख रखाव के कारण भी पैदा करता रहता है। हम बेशक इन क्रियायों की निंदा कर सकते हैं पर जबतक शिक्षा की प्राचीन प्रणाली , भाषा के वर्चस्व को नही बदलेंगे तबतक कुछ नही बदलेगा। इसके लिए हमें भारतीय परंपराओं के ग्रंथों को प्राथमिकता देना होगा। हमारे देश में उपनिषदों से लेकर जैन ग्रंथों तक कई ग्रंथ हैं जिन्हें अपनाना होगा। जब तक हमे अपने देश की बौद्धिक थाती का सम्मान नहीं करेंगे तबतक  हमारे भीतर का द्वेष आत्मगौरव में नहीं बदलेगा।

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