सुलगते दार्जिलिंग की राजनीति
गोरखा लैंड को समर्थन पर भाजपा दुविधा में
- हरिराम पाण्डेय
पश्चिम बंगाल में पर्यटन के लिये विख्यात दार्जिलिंग में चार दशक पुराना गोरखा आंदोलन फिर से भड़क उठा है। भाषा के नाम पर एक पखवाड़े से चल रहा यह आंदोलन दबने का नाम नहीं ले रहा। उसे दबाने के सरकारी प्रयास उस आग में घी का काम कर रहे हैं। उस इलाके की सबसे बड़ी पार्टी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा नेपाली भाषियों के लिये अलग राज्य की मांग कर रही है। बारह जून को भड़के इस आंदोलन से उत्तर बंगाल की माली हालत बिल्कुल चौपट हो गयी है। कानून और व्यवस्था की स्थिति अत्यंत खराब है। आंदोलन को दबाने के लिये फौज बुलानी पड़ी है। इस आंदोलन के सबसे बड़ी खूबी है कि इसमें गोरखाली महिलाएं भी भाग ले रही हैं , जिससे माहौल बिल्कुल बदल चुका है।
पिछले दिनों मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य में माध्यमिक स्तर तक बंगला की पढ़ाई अनिवार्य कर दी और इसी के विरोध में दार्जिलिंग और कलिम्पोंग नेपाली भाषी बहुल जिलों में गोरखा मैदान में उतर आये। गोरखा समुदाय के लोगों के लिये अलग राज्य की मांग को लेकर यह आंदोलन 1980 में पहली बार शुरू हुआा था। उस समय इसके नेता थे सुभाष घीसिंग और अब इसके नेता है विमल गुरूंग। हालांकि भाषा तो एक बहाना है क्योंकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने स्पष्ट कर दिया कि बंगला भाषा की अनिवार्यता का कानून पर्वतीय जिलों में लागू नहीं होगा। गोरखा लैंड बनाने की मांग 1986-88 के बीच बहुत जोर पर था और इस दौरान लगभग 1 हजार लोग मारे गये थे।
हालांकि यह हिंसक आंदोलन और इसे लेकरगोरखा जन मुक्ति मोर्चा, केंद्र तथा राज्य सरकार की रस्साकशी अखबारों की सुर्खियां बन रहा है पर हाशिये पर कई स्वतंत्र तथा अहिंसक मार्च और रैलियां भी हो रहीं हैं जो ग्रास रूट स्तर पर असंतोष का ओर इशारा कर रहीं हैं। सम्पूर्ण गोरखा जनता को अपने नेता विमल गुरंग पर पूरा भरोसा नहीं है। कुछ ऐसे भी गोरखा संगठन हैं जो पृथक गोरखा लैंड तो चाहते हैं पर विमल गुरुंग के तहत नहीं। यह आागे भी कठिनाई पैदा कर सकते हैं। क्योंकि मंगलवार को पहाड़ के सभी दलों की एक बैठक हुई और सबने मिलकर संकल्प किया कि पृथक राज्य की मांग को समर्थन देंगे। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के आहवान पर बुलायी गयी इस बैठक में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट ,गोरखा राज्य निर्माण मोर्चा,गोरखा परिसंघ , सी पी आई (आार एम) और भाजपा शामिल थी। गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नेता नीरज जिम्बा के अनुसार यह समर्थन गोरखालैंड के लिये है ना कि गोरखा जनमुक्ति मोचा के लिये। मजे की बात है कि जिम्बा ने 2016 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल को समर्थन दिया था। जिम्बा ने तो यहां तक कहा है कि गुरंग को गोरखा टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना होगा। हालांकि गोरखा जनमुक्त मोर्चा इसे मानने को तैयार नहीं है। कई ऐसे भी दल हैं जिन्हें इस साझा बैठक के लिये बुलाया गया था पर वे नहीं आये। हालांकि सब गोरखा लैंड के समर्थन में बोल रहे थे। कुछ गोरखा नेताओं ने ममता बनर्जी पर ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाने का आरोप लग रहे हैं। उनका कहना है कि ममता बनर्जी ने विकास बोर्ड्स का गठन कर और उसमें लेपचा, तमांग, भूटिया इत्यादि श्शिमिल कर हमलोगो ताकत को विभाजित कर दिया है। ग्रासरूट सर्वदलीय स्तर पर विमल गुरुंग की पार्टी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को समर्थन नहीं मिलना इसकी सबसे बड़ी कमजोरी कही जा सकती है और इसका लाभ तृणमूल कांग्रेस उठा सकती है।
जहां तक राजनीतिक नफा नुकसान की बात है एक नजर में तो ऐसा लगता है कि इससे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को घाटा होगा। लेकिन ऐसा नहीं होने की पूरी संभावना है। आम तौर जो लोग इस तरह का विश्लेषण करते हैं वे आंदोलन के स्थान को ध्यान में नहीं रखते। उत्तर बंगाल की राजनीतिक बुनावट अन्य स्थानों से थोड़ी भिन्न है या कहें कि उतनी सरल नहीं है जितनी आमतौर पर विश्लेषक समझते हैं। हिंसा के बावजूद गोरखा लैंड का यह आंदोलन जब शेष होगा तो इससे तृणमूल को ही लाभ पहुंचेगा। क्योंकि इस अलगावादी आंदोलन से बंगाली मानस क्षुब्ध है। जब यह खत्म होगा तो राजनीतिक तौर बंगाली पहचान के अजेंडे को बल मिलेगा। पिछले विधान सभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने हिंदुत्व का अजेंडा उठघ्या और उसके मुकाबले के लिये ममता जी बंगाली पहचान को हवा दे दी। ममता बनर्जी ने बंगाली संस्कृति को उत्तर भारत की गाय पट्टी या राम पट्टी वाली संस्कृति से पृथक कर दिया। ममता बनर्जी ने राज्य की संवेदनशील बंगाली जनता के समक्ष यह बात रखी कि बाजपा एक नयी संस्कृति थोप रही है। रामनवमी के मार्च और आयोजनों का मुकाबला उन्होंने बंगाली संस्कृति पर उत्तर भारत की संस्कृति थोपने की कोशिश के रूप में प्रचारित कर किया। यहां यह बता देना जरूरी है कि बंगाली में राम की पूजा उतनी लोकप्रिय नहीं है जितनी दुर्गा और काली की। इसी के जरिये उन्होंने बंगाली संस्कृति की पहचान और सवाल को हवा दे दी।
वे इसी को पुखग करने के लिये बंगला भाषा की पड़ाई को अनिवार्य कर रहीं हैं। इसी कोशिश से दार्जिलिंग इलाके के गोरखा भाषी उखड़ गये और उनहोंने विरोध का झंडा उठा लिया। 8 जून को दार्जिलिंग में कैबिनेट की बैठक थी और उसी दौरान गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने आंदोलन की तीरही बजा दी। हालांकि तबतक ममता बनर्जी ने गोरखा भाषी इलाकों में बंगला की अनिवार्यता खत्म करने की घोषणा कर दी थी। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा नको शिकायत है कि उनपर बंगाली राजनीतिज्ञ थोपे जा रहे हैं और बंगाली संस्कृति लादी जा रही है। वे इस बात से भी चिढ़े हुये हैं कि वहां ममता बनर्जी ने सुभाष चंद बोस के जयंती इतनी धूमधाम से क्यों मनायी।
यह पहला अवसर नहीं है जब गोरखा – बंगाली तनाव बढ़ा और उससे गोरखा लैंड की मांग को प्रोतसाहन मिला। हालांकि पर्वतीय क्षेत्र नेपाली बहुल है लेकिन जबसे वहां बंगाली और आदिवासी आकर बसने लगे जातीय संतुलन बदलने लगा। अब उदाहरण के लिये सिलीगुड़ी शहर जो डुआर्स का हिस्सा है वहां जातीय संतुलन इतना बिगड़ा कि 2007 में गोरखाओं और बंगालियों में दंगा हो गया। डुआर्स में यद्यपि गोरखा अल्पसंख्यक हैं।
अब इस ताजा आंदोलन के बाद बंगाल में बात उठने लगी है कि एक बार फिर बंग विभाजन की साजिश चल रही है। 1986 में जब गोरखालैंड आंदोलन शुरू हुआ था तो राज्य में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन था और उसने जनता को पक्का आश्वासन दिया था कि बंगाल की क्षेत्रीय अखंडता बनी रहेगी। यहां तक कि माकपा ने सिलीगुड़ी में बंगाली चेतना को जगाने के लिये कई मंचों को पैसा भी दिया था। 2011 के चुनाव में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी हार गयी और तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनी पर इस मामाले में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। दार्जिलिंग कोलकाता से ही शासित होता रहा। बंगाली बहुल इस राज्य में क्षेत्रीय मोह बहुत ज्यादा है। बंगभूमि के नाम पर किसी भी हद तक यहां के जन समाज को उकसाया जा सकता है। दूसरी बात है कि बंगाली मीडिया राष्ट्रीय मीडिया से इस मामले में अलग है। बंगाली मीडिया दार्जिलिंग मसले पर मुख्यमंत्री के साथ है और वह केंद्र की आलोचना में जुटा है। कोलकाता से प्रकाशित होने वाले एक अंग्रेजी दैनिक ने तो दार्जिलिंग की समस्या की तुलना कश्मीर की समस्या से करते हुये केंद्र पर आरोप लगाया कि उसने कश्मीर के पत्थरबाजों को कठोरता से काबू करने की कोशिश की जबकि गोरखालैंड के मामले में चुप बैठी है। एक बंगला अखबार ने तो यहां तक लिखा कि गोरका मुक्ति मोर्चा की हिंसा से दार्जिलिंग की नदियों में पानी की जगह खून बह रहा है।
इस बंगाली पहचान की समरनीति को लेकर भाजपा के हाथ के तोते उड़ गये हैं। भाजपा ने पहाड़ पर जनमत तैयार करने की दूरगामी नीति गढ़ी थी। 2009 में सुषमा स्वराज ने लोकसभा में पृथक गोरखा लैंड की मांग समर्थन किया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि यदि यह गोरखा लैंड की बहुत पुरानी मांग पर सहानुभूति पूर्वक विचार करेगी। गोरखा लैंड के इस समर्थन के बदले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने भाजा को समर्थन दिया और तबसे वह दाजर्जिलिंग सीट जीतती आयी है। लेकिन 2017 में जब मौका आया तो भाजपा ने पल्ला झाड़ लिया। भाजपा की राज्य इकाई ने साफ कह दिया कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा से पूरी तरह चुनावी गठबंदान था, गोरखा लैंड के समर्थन वगैरह की कोई बात नहीं थी। क्योंकि भाजपा को यह मालूम है कि यदि वह बंगाल में मुख्य विपक्षी दल के तौर पर आना चाहती है तो उसके लिये गोरखा लैंड को समर्थन घातक हो जायेगा।
भाजपा आरोप लगा रही है कि दार्जिलिंग में ममता बनर्जी बंगाली-नेपाली दंगा करवाना चाहती हैं। भाजपा का मानना है कि इसी माध्यम से वह सभी बंगाली वोटरों को अपने झंडे तले एकत्र करना चाहती हैं। भाजप हालांकि मानती है कि हालात बहुत संवेदनशील हैं। लेकिन भाजपा में बात चल रही है कि वे इसका समर्थन करेंग्को। उनका मानना है कि पहाड़ के लोगों को भी वही अधिकार हैं जो अन्य स्थानों के लोगों को हैं। पृथक राज्य की मांग सांविधानिक अधिकार है। दूसरी तरफ भाजपा गोरखालैंड की मांग को समर्थन देने से इंकार भी कर रही है। साथ ही बंगाल में यह बात भी उठ रही है कि पृथक राज्य की मंजूरी देने में राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं होती। यह केंद्र सरकार का काम है। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के पास इससे समबंधित कोई योजना ही नहीं है कि वह क्या करना चाहती है। इस बात से पहाड़ में अनिश्चियता की स्थिति बड़ती जा रही है और आंदोलन हिंसक होने के बावजूद व्यर्थ होता नजर आ रहा है। इसका लाभ स्पष्ट रूप से ममता बनर्जी को मिलेगा। - लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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