कोई हंगामा करो ऐसे गुजर होगी नहीं
भारत एक ऐसा देश है जहां सदा खेतिहर या किसान का इस्तेमाल किया गया चाहे वह भावनाऔं को भड़काने के लिये किया गया हो या फिर राजनीति की सुलगती आग की आंच को बढाने के लिये।
जरा सा तौर तरीकों में हेरफेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो आस्तीन नहीं
पौराणिक काल में राजा जनक का हल चलाना इसी भावावेग को त्वरित करने की कथा थी। दूर जाने की जरूरत नहीं है लगभग 30-40 साल पहले 19601970 में भारतीय किसान यूनियन ने हजारों किसानों से दिल्ली को भकभोर दिया था। इसके बाद 1988 में दिलली का बोट क्लब एक बार फिर किसानों के नारों से गूंज उठा था। 60 के दशक में चौधरी चरण सिंह किसान नेता के ऱ्प में उभरे थे जिनकी यात्रा प्रधानमंत्री के पद तक हुई। सियासत की चालाकी ने उस किसान आंदोलन को जाति आंदोलन में बदल दिया और वह हिंदुत्व के रूप में ढल गया। लेकिन हाल में किसान आंदोलन फिर से उभर गया। यह आंदोलन 1991के उत्तरकाल में विकास की जो दिशा है उसी का सामाजिक आर्थिक प्रतिफल है। इस विकास की दौड़ में ग्रामीण भारत पिछड़ गया और शहरी भारत आगे निकल गया। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रपट के मुताबिक 1993-94 में भारतीय गांव में प्रतिव्यक्ति मासिक खर्च 281 रुपये थे जबकि उसी अवधि में शहर में प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 458 रुपये थे। 2007-2008 में यह अंतर और बड़ गया। इस अवधि में ग्रामीण भारत में प्रतिव्यक्ति मासिक खर्च बढ़कर 772 रुपये हो गया जबकि शहरी भारत में यह 1472 रुपये हो गया। 2011-12 आते आते यह अंतर और बढ़ गया। इस अवधि में ग्रामीण भारत में प्रतिव्यक्ति खर्च 1430 रुपया था। सरकार या हमारे नेता कहते हैं कि यह 1430 रुपया 2007-2008 के 772 रुपये से 85 प्रतिशत ज्यादा है। जबकि इसी अवधि में शहरी बारत का प्रतिव्यक्ति मासिक खर्च 2630 रुपये हो गया। जो कि 2007-2008 की तुलना में 79 प्रतिशत बड़ी। हमारे राजनीतिज्ञ कहते हैं कि आलोच्य अवधि में शहरी भारत की खर्च करने की औकात ग्रामीण भारत से कम हुई है। इसी आंकड़े के बल पर गांवों के विकासे की सुनहरी तस्वीर खींचते हैं।
तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
यह अंतर कृषि के धीमते विकास के कारण हुआ। 2005-06 और 2011-12 में 2004-05 की स्थिर कीमतों पर औद्योगिक विकास दर 7.5 प्रतिशत था, सेवा क्षेत्र में यह दर 9.95 प्रतिशत थी, लेकिन इसी अवधि में कृषि के विकास की दर महज 3.8 प्रतिश थी। यह कृषि की तरफ से सरकार की उदासीनता का सबूत है। कहने के लिये सरकार ने गांवो में रोजगार के लिये मनरेगा लागू किया था जिसमें पैसा ही नहीं था। 2017 के बजट के बाद उसकी हालत थोड़ी सुधरी है। मनरेगा गरीब किसानों के लिये था पर वे गरीब इसका लाभ नहीं उठा सके उल्टे लगातार दो वर्ष तक सूखे का प्रहार झेलते रहे। नोटबंदी ने इस प्रहार को और भी मारक बना दिया। नगदी के लिये बेहाल किसान अपने उत्पादनों को औने पौने दाम में बेचने लगे। इससे भी नहीं काम चला तो कर्ज लेने लगे और कर्जे से दब गये। कई बार तो 20 प्रतिशत मासिक व्याज के दर पर भी कर्ज लेने की घटना सुनने में आयी है। हालात इतने नहीं बिगड़े होते अगर सरकार ने निम्नतम समर्थन मूल्य सही रखा होता। यही नहीं खाद पर सब्सीडी कम हो गयी और बिजली की दर बढ़ गयी। किसान और संकट में फंस गया।
देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं
पैरों तले जमीन है या आसमान है
उसे इस संकट से निकालने के लिये सरकार ने अबतक केवल एक आयोग का गठन किया जबकि कर्मचारियों के लिये सात- सात आयोग बने। किसानों के लिये गठित आयोग की सिफारिशें अभी तक लागू नहीं हो सकी है।
जो उलझ कर रह गयी है फाइलों जाल में
गांव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में
हर दल किसानों को अपना वोट बैंक माना और उनसे चुनाव के दौरान मीठे और झूठे वायदे किये। कुछ पूरा नहीं किया जा सका और पीड़ा बढ़ती गयी। नतीजा यह हुआ कि किसानों मेंआत्म हत्या की प्रवृति बढ़ने लगी। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2014के मुकाबले किसानों की आत्म हत्या में 42 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
सोचा था उनके देश में महंगी है जिंदगी
पर जिंदगी का भाव यहां और भी खराब है
किसानों के झूठे पैरोकार झूठे वायदों के बल पर संसद में जाते हैं, किसानों की पीड़ा का सर्वे करवाते हैं, उन्हें तराजू पर तौलते हैं, राहत के नाम पर कुछ सिक्के उछाल दिये जाते हैं जो वर्षों बाद आते हैं और नया घाव दे जाते हैं। पूरे देश का पेट पालने वाले किसान कर्ज, व्याज, कर्ज माफी , न्यूनतम समर्थन मूल्य, योजनाऔं , घोषणाओं और खैरातों की भूलभुलैय्या में फंस जाते हैं। कोई राह नहीं दिखती तो आत्महत्या कर डालते हैं। हमारे नेता इन हत्याओं का रिकार्ड तथा ज डी पी के आंकड़े देखते हैं। नयी घोषणा करते हैं।
पक गयी हैं ये आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुजर होगी नहीं
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