भ्रम में हैं खबरों को चाहने वाले
इन दिनों बड़ा भारी भ्रम हो गया है खबरों को चाहने वाले को। किस खबर को सच मानें या किसे गलत। एक दिन बंगाल पुलिस के अतिरिक्त महानिदेशक अधीर शर्मा ने बातों ही बातों में कहा कि खबरों की विश्वसनीयता इतनी घट गयी है कि मीडिया की खबर भविष्य इतिहास का स्रोत नहीं बन पायेंगी। समाचारों का जितने माध्यम खंगालिए हर खबर के की अलग अलग व्याख्या तथा वैचारिक दृष्टिकोण। दुनिया सिकुड़ कर एक ग्लोबल गांव बन गयी है और उसमें सोशल मीडिया से लेकर मीडिया की मुख्य धारा तक खबरों की सुनामी लगातार चलती रहती है। कभी वे एक तरफा बन जाती हैं कभी झूठी तथा इससे खबर देने वाले पत्र क्या समाचार माध्यम की विश्वसनीयता पर संदह होने लगता है। यूं ही सड़क पर चलते हुये एक टैक्सी ड्राइवर सत्यव्रत मजुमदार ने कहा कि वह हिंदी अखबर पढ़ता है कभी खरीद कर और कभी दोस्तों से मांग कर , बंगला भी इसी तरह पढ़ता है लेकिन कभी कोई खबर किसी अखबार में एक सी नहीं क्यों नहीं होती? एक में पढ़ो तो वह दूसरी महसूस होगी , दूसरे में पढ़ो तो उसका अलग पक्ष दिखने लगेगा। महसूस होगा कि पहला वाले ने एकतरफा लिखा है तो दूसरे वाले को पढ़ने पर लगेगा कि इसने भडांस निकाली है। तीसरे में वह खबर सिरे से गलत लगेगी। बड़ा भ्रम होता है किसे मानें। खबरों की विश्वसनीयता घटती जा रही है। यह भ्रम सच है। दो चार दिन पहले एक टी वी चैनल के मालिक के आवास पर सी बी आई का छापा पड़ा। छापे को कुछ ऐसा बताया गया मानों प्रेस की आजादी पर छापे डाले गये हों। बात यहीं तक होती तो गनीमत थी इसे लेकर पूरा भारतीय मीडिया खेमों में बंट गया। हां –हां , ना – ना का तुमुल शोर फैल गया। वही हाल सेना प्रमुख विपिन रावत के बयान को लेकर हुआ और अमित शाह द्वारा महात्मा गांधी को चतुर बनिया कह देने के बाद हुआ। मीडिया के लोग चतुर बनिया की सकारात्मकता और नकारात्मकता की लगे व्याख्या करने। कहीं संदर्भ से काट कर तो कहीं अलग संदर्भ में जोड़ कर। संचार के सिद्धांतों के अनुसार , जैसा कि इलियट ने कहा था, ‘कोई समाचार केवल सम्प्रेषण नहीं है बल्कि उससे ध्वनित होते वाले अर्थ का व्यवस्थित स्थानांतरण है। ’ यहीं अर्थ पर आकर बात अटक जाती है। अर्थ का स्थानांतरण यदि निहित उद्देश्यगत व्यवस्था या नियंत्रित व्यवस्था के अंतर्गत कर दिया जाय तो उसके मायने बदल जाते हैं। व्यवस्थित समाचारों की चौतरफा आांधी और जिंगलों में बात करने की नूतन विकसित शैली ने हिटलरी ‘ब्लिट्जकिग’ को पीछे छोड़ दिया है। संदर्भों से कटे हुये या व्यवस्थित संदर्भ से आबद्ध समाचार ही अक्सर गलत समाचार हुआ करते हैं। अभी कुछ दिन पहले भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने कोलकाता में कहा था कि ‘केवल रेजिमेंटेड पार्टियां ही बचेंगी बाकी सब समाप्त हो जायेंगी क्योंकि सभीदल एक नेता से जुड़े हैं।’ अब इसे यह प्रचारित किया जाने लगा कि उन्होंने तृणमूल कांग्रेस पर फब्ती कसी है। समाज में राजनीतिक आवेश पैदा होने लगा। यही बात गांधी के संदर्भ में हुई। सोशल मीडिया और मुख्यधारा की मीडिया कुछ ऐसा वातारण बना डालती है कि हर चीज लीला बन जाती है। एक ‘रीयल टाइम परफॉर्मिटी।’ इस लीला के अपने फायदे और नुकसान हैं। फायदा यह है कि लोग गा बजा कर अपने आलोचकों की बोलती बंद कर देते हैं , उन्हें शर्मिंदा तक कर देते हैं। अभी हाल में महाराष्ट्र के किसानों की ऋण माफी वाला मामला ही देखें। सरकार ने कर्ज माफ कर दिया। क्योंकि दलीलें थीं कि बड़ों के कर्ज माफ हो सकते हैं तो किसानों के क्यों नहीं? अब इसी में एक आवांतर सच आया कि किसान कर्ज लेते हैं, जान बूझ कर नहीं चुकाते और जो बाद में माफ हो जाते हैं। यह सुनकर लगता है कि लालची राजनीति ने जनता को लालची उपभोक्ता बना दिया। समाचार का मनोविज्ञान यह है कि मनुष्य उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर नये और उपयोगी ज्ञान के निर्माण और बेहतर निर्णयों तक पहुंचने के लिये तर्क करता है। फ्रांसीसी लेखक ह्यूगो मर्सियर ने आरगूमेंट्स फॉर आरगूमेंटेटिव थ्योरी में लिखा है कि ‘इंसानों के बीच आपस में विचारों और भावनाओं के प्रभावशाली आदान प्रदान ने तार्किकता को जन्म दिया। तार्किकता के अबतक बचे रहने और विकसित होने का कारण है कि वह मानवीय संचार को ज्यादा असरदार और फायदेमंद बनाता है। ’ इसी संदर्भ में महात्मागांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति एवं विख्यात मनोशास्त्री प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने सोशल साइंस का शिक्षा में घटते महत्व पर चिंता जाहिर करते हुये कहा था कि ‘गलत सूचनाओं या गलत इरादे से व्यवस्थित-व्याख्यायित सूचनाओं का कोई व्यक्ति शिकार ना हो जाय इसलिये सूचनाओं पर ज्ञानपूर्ण निगरानी रखना जरूरी है। लेकिन दुख है कि तार्किकता की भूमिका हितकारी निर्णय तक पहुंचने में मददगार ना हो कर समझाने के लिये दलीलों के उत्पादन में बदल जाती है।’ आपने देखा होगा कि बहस में कुशल लोग सच की तरफ नहीं होते बल्कि उन दलीलों के पैरोकार होते हैं जिसे वे सच की तौर पर मनवाना चाहते हैं। सन्मार्ग का यह नारा ‘खबरें अनेक सच्चाई एक’ के पीछे तार्किकता के इसी युक्तिमूलक सिद्धांत की ओर इशारा है। इसका जोर इस बात पर है कि तार्किकता या रीजनिंग व्यक्तिगत से ज्यादा सामाजिक स्तर पर काम करती है और जिसका उद्देश्य खबरों को मानने के लिये तैयार की गयी दलीलों को जांचना है। इसलिये जो लोग खबरों को सीधे मान लेने या उत्न्हें मनवाने की दलीलों के तरफदार होते हैं, यकीनन उनकी संख्या बढ़ती जा रही है , वे ही सन्मार्ग पर एक पक्षीय होने का आरोप लगाते हैं। आज हालात बदतर हो रहे हैं और जो लोग भारत को एकजुट और शांतिपूर्ण बनाने की इच्छा रखते हैं वे इस पर विचार करें।
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