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Friday, June 2, 2017

दरारें दिखने लगीं हैं

दरारें दिखने लगीं हैं 
बड़े बड़े सपने दिखाने वाली नरेंद्र मोदी की सरकार के तीन वर्ष पूरे होने कले मौके पर सरकार की सफलताओं को प्रदर्शित करने वाले आंकड़ों की बाढ़ आ गयी। उन आंकड़ों के आधार पर मोदी जी को सबसे विश्वसनीय नेता बताया गया और यह कहा गया कि वे भारत के नए स्वरूप के लिए सक्रिय हैं। यह सही भी हो सकता है क्योंकि मोदी जी सरकार पर इतनी मजबूत पकड़ बना ली है कि आने वाले 18 महीनों में किसी को बोलने का साहस नहीं होगा और अगर किसी ने बोलने का दुस्साहस किया तो उसकी बोलती बंद कर सकते हैं उनके भक्त।उनके भक्तों का दावा है कि मोदी जी ने जैसे  साहसिक फैसले किये वैसे किसी को हिम्मत नहीं हो सकी। लेकिन वे लोग यह भूल गए कि मोदी जी देश की 130 करोड़ जनता में बड़ी- बड़ी उम्मीदें भी जगा दी हैं। जरा ध्यान से देखें , उन्होंने पहले साल जो वायदे किये उसे दूसरे साल तक पूरे नहीं कर सके और और जो दूसरे साल में किये वह तीसरे साल में पूरे नहीं हो सके साथ ही जो उम्मीदें पहले साल में जगीं वे तईसरे साल तक मरीचिका  बनी रहीं और संभवतः आगे भी बनी रहेंगी। आब पहले साल का वादा अच्छे दिन से ही शुरू करते हैं। आंकड़ों के जरिये यह बताने की कोशिश की गई है कि " वृद्धि और विकास उम्मीद सेव् ज्यादा हुआ है।" पर सच कुछ दूसरा है। मोदी  जी के पहले वाली सरकार में अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता थी और इनके तीन साल में भंगुर हो गई है या कहें और खस्ता हो गई है। अच्छे दिन में जाने या ले जाने की बजाय मोदी जी और उनके मंत्री माइक्रो अर्थव्यवस्था में " माइक्रोस्कोपिक" बदलाव  ला सके हैं जबकि सम्पूर्ण अर्थ व्यवस्था खस्ता हाली में ही पड़ी रही। यह सही है कि मोदी सरकार अर्थव्यवथा के इस हाल का कारक नहीं हैं पर  पिछले तीन वर्षों में यह नहीं दिखा की उन्होंने माली हालत के इस पतन को  रोकने के लिए कोई प्रयास किया हो। इससे भी  खतरनाक है कि अर्थव्यवस्था लगातार खस्ता हाली की ओर बढ़ रही थी और सरकार लगातार झांसा देती रही कि हालात सुधार रहे  हैं। अब जरा जी डी पी की ही बात लाइन जिसका अनवरत हवाला दिया जाता रहा है। सरकार का दावा था कि जी डी पी की दर 2012-13 के 5.1% से 2015-16 में बढ़ कर 7.9%  प्रतिशत हो गई जबकि   अर्थ शास्त्री राजेश्वरी सेनगुप्ता के अनुसार 2015 में जी डी पी का विकास दर केवल 5% था 7.1 प्रतिशत नहीं। जी डी पी के गिरने का सारा दोष इस सरकार पर तो नहीं थोपा जा सकता पर जो सबसे भयावह यह है कि सरकार ने गलत संदर्भ दिया और वह भी संदर्भों को तोड़ मरोड़ कर। उन्होंने आधार वर्ष को 2004-05 से बदल कर 2011-12 कर दिया। 
इन वर्षों में उद्योग में रिजगार तेजी से गिरा है। यह एक ऐसी हक़ीक़त है जिसे आंकड़ों से झुठलाया नहीं जा सकता है। यही कारण है कि सरकार ने रोजगार के आंकड़ों में परिवर्तन को दिखाने का प्रयास ही नहीं किया। हमारे नीति निर्माताओं की दूसरी बड़ी नाकामयाबी रही कि इसने कारपोरेट क्षेत्र के विकास के लिए उचित प्रयास नही किया, लोग निवेश से कतराने लगे और पूंजी का जुगाड़ 11-14% व्याज पर किया जाने लगा। इसासे वर्तमान तथा वांछित निवेश में अंतर 500,000 करोड़ हो गया। मुद्रास्फीति की दर 2006 के मुकाबले 2014 में बहुत ज्यादा बढ़ गयी जिससे कीमतों में इज़ाफ़ा ह्यो गया। बाज़ार में चीजें महंगी हो गईं।वैसे आंकड़े यह भी कहते हैं कि इस दौरान खाद्य वस्तुएं महंगी हुई। थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति इस साल फरवरी में 6.55 प्रतिशत थी। पिछले साल मार्च में थोक मुद्रास्फीति में 0.45 प्रतिशत की गिरावट आयी थी।आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार खाद्य वस्तुओं की कीमत में मार्च में 3.12 प्रतिशत की तीव्र वृद्धि हुई जबकि इससे पूर्व माह में इसमें 2.69 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। इसका प्रमुख सब्जियों के दाम में उछाल है।सब्जियों की महंगाई दर 5.70 प्रतिशत रही। मोदी जी सत्ता में पिछली सरकारों की विरासत लेकर नही आये।उन्हें जो कुछ भी करना था वो नया करना था। इधर 2014 की जुलाई चीन में मंदी आ गईऔर उसके परिणामस्वरूप दुनियाभर में कीमतों में गिरावट आ गईं।विस्का असर भारत पर भी पड़ा और थोक मूल्य सूचकांक लुढ़क गया। मोदी जी और वित्त मंत्री अरुण जेटली को रिजर्व बैंक को निर्देश देने का अवसर मिला और उन्होंने उसे राजनीतिक तौर पर नचाना शुरू कर दिया। मोदी जी वाजपेयी काल के हर अच्छे परिपक्व अर्थशास्त्री को जगह नही दी और एक वकील को आर्थिक  स्थिति से निपटने के लिए तैनात कर दिया,इससे अयोग्यता पूर्ण निर्णय होते रहे और देश उसका दंड भुगतता रहा।

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