चूक गये मोदी
छाया मदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई
लेकिन स्वप्निल स्मृतियों में सीता का बनवास लिखा है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक अंजान वकील को राष्ट्रपति पद के लिये अपने गठबंधन का उममीदवार बनाते समय अफने दरवाजे पर दस्तक दे रहे एक अवसर को भांपने से चूक गये। बेशक कोविंद जी में दो खूबियां हैं या उनके चयन से पार्टी को दो फायदे हैंपहला कि वे उत्तर प्रदेश से हैं और दूसरा कि दलित हैं। पर इसके साथ कई और बातें हैं जो भविष्य में हानि पहुंचायेंगी ही। सबसे बड़ी बात है कि मोदी जी पर जो हिंदुत्व का ठप्पा लग चुका है उसे मिटाने की सख्त जरूरत है। वे ऐसे उममीदवार का चयन कर यह काहर्य सिद्ध कर सकते थे जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से ना जुड़ा हो। ऐसा करके सरकार के हिंदुत्व की ओर झुकाव पर लोगों में चल रही चर्चा को बदलने के किसी प्रयास की जरूरत थी ही नहीं। उन्हें केवल यह करना था कि वे याजनीतिक तौर पर एक निष्पक्ष उम्मीदवार का चयन करते जिससे देश के एक समुदाय में यह संदेश डजाता कि हिंदुतव के बाद भी जीवन है। बेशक प्रधानमंत्री सभी क्षेत्रों और कामकाज से जुड़े अपने लाखों समर्थकों के साथ मिलकर थोड़ा सा बदलाव करने की कोशिश करते तो अच्छा होता। भगवा बिरादरी से अलग जो बुद्धिजीवी वर्ग है तब उसे यह भरोसा होता कि 2019 के बाद के भाजपा के वारिसों की ताकत के बाद भी देश के सर्वोच्च पद की गरिमा को कायम रखने वाला कोई तो है।
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मसलन ए पीजे अब्दुल कलाम की तरह। वे कथित तौर पर जनता के राष्ट्रपति थे। रस्मी तौर पर ही सही एक राष्ट्राध्यक्ष के तौर पर जनता में उनकी आदरणीय छवि थी।इस बार का चुनाव बेहद महत्वपूर्ण था क्योंकि हिंदुत्व की धारा में बह रहे देश को दिशा देने वाले राष्ट्राध्यक्ष की जरूरत थी। मोदी चाहते हैं देश को कांग्रेस मुक्त बनाना और इसके लिये वे अपने मुसाहिबों को राज्यों में मुख्यमंत्री बना रहे हैं। अब देश के सर्वोच्च पद पर भी कुछ वैसा ही कर रहे हैं। यह सोचने की बात है कि बिहार के राज्यपाल या एक वकील अथवा एक सांसद के रूप में ऐसी कोई छवि देश के नौजवानों के मन में है जो उम्मीद पैदा कर सके। लेकिन मोदी जी के जाति की परिगणन और उत्तर प्रदेश का निवासी ज्यादा महत्व रखता है। इससे अगले चुनाव में फायदा होता दिख रहा है उन्हें। सबकों पसंद आने वाले के मुकाबले एक दलित राष्ट्रपति उनहें ज्यादा ‘लाभदायक’ महसूस हो रहा है। दलितों की ओर झुकाव मोदी जी की राजनीति का हिस्सा है जो सोशल इंजीनियरिंग के संघ के एजेंडा को समर्थन देता है। सोशल इंजीनियरिंग के उनके अजेंडे का पहला संकेत तब मिला था जब उनहोंने अम्बेडकर को श्रद्धांजलि दी। हाल कि यह बिल्कुल दिखावा था पर उनहोंने विदेशों में भी यह दिखावा किया। लेकिन एक दलित का राष्ट्रपति के तौर पर चयन करने से ना सामाजिक व्यवस्था बदलेगी और समाज की मनहूस हकीकत बदलेगी। ना इस देश के नौजवान छात्र रोहित वामुला की खुदकुशी का नंगा सच भूल पायेंगे ना गुजरात में दलितों की बेकायदा हत्या के आतंक को विस्मृत कर पायेंगे और ना ही भीतर भीतर सुलगते सहारनपुर के बय को नजरअंदाज कर पायेंगे।
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सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की
मोदी जी का शायद यह मानना है कि मीडिया चाहे जितना शोर मचाये लेकिन यह सब जनता की सामूहिक चेतना में कायम नहीं रह सकेगा। वे यह मानते हैं कि इसके बाद उन्हें दलितों के मसीहा के तौर पर देखा जाने लगेगा और यह संभवत:भाजपा का नया स्वरूप होगा, जिस स्वरूप को पाने के लिये वह तरह तयह के ‘प्रसाधन’ के इस्तेमाल करता आया है। मोदी जी रणनीतियों ने अतीत में विजय दिलायी है इसमें कोई शक नहीं है लेकिन अब वे अपने बड़बोले पन की सियासत का वजन शायद ढोने में अक्षमता महसूस कर रहे हैं। मोदी ने जबसे हिंदुत्ववादियों को मंच पर आने दिया है वे लगता है धीरे धीरे नेपथ्य की ओर खिसक रहे हैं। हो सकता है कि ‘हां जी- हां जी’ कहने वाला एक राष्ट्राध्यक्ष उन्हें इस अस्थिर राजनीतिक परिस्थिति के लिये मुफीद लगे पर शायद राष्ट्र की बहुजातीय संस्कृति के लिये दिक्कतें पैदा हो सकती हैं।
जो गजल माशूक के जलवों से वाकिफ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
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