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Sunday, June 18, 2017

आत्म उत्खनन का सबसे सक्षम आयुध मातृभाषा है

आत्म उत्खनन का सबसे सक्षम आयुध मातृभाषा है

विशेष रपट : राम अवतार गुप्त प्रतिभा पुरस्कार
 
हरिराम पाण्डेय

 कोलकाता : भाषा के आत्मबोध और भाषा के प्रति आत्मउत्खनन के बीच नाचती रोशनी में रविवार को यहां साइंस सीटी ऑडिटोरियम में राम अवतार गुप्त प्रतिभा पुरस्कार व सम्मान का आयोजन हुआ। मंच पर राम अवतार गुप्त प्रतिभा पुरस्कार का प्रतीक चिन्ह और मंच के ठीक शुरूआत में रामअवतार गुप्त का मुस्कुराता चित्र और उसके बीच में नाचती हुई रोशनी का घेरा और सामने नीम अंधेरे में बैठे छात्रों -अभिभावकों और अतिथियों की तालियों की गड़गड़ाहट ने एक समां बांध दिया था जिसके मोह से उबर पाना कठिन था। यह सब मिल कर एक दार्शनिक बिम्ब का सृजन कर रहे थे। मानों पूच् रहे हों हिंदी का जलसा, नाचती रोशनी और स्व.राम अवतार गुप्त की दिव्य मुस्कुराहट का समन्वित अर्थ क्या है? आइये हम उस अर्थ को खोजते हैं।

श्री विवेक गुप्त, डा. हरिप्रसाद कानोड़िया , डा. महेश मस्करा, गोपाल मिश्र एवं कई गहणमान्य लोगों ने मंच से भाषण दिये। सबके भाषण का निहितार्थ था कि आत्म उत्खनन का सबसे सक्षम आयुध मातृभाषा है और यह मनुष्य की देह का अदृश्य अंग है जो उसे आत्म दृष्टि देता है। मंच पर बार बार सवाल घूम रहे थे बच्चों ने अति उच्च अंक प्राप्त कर साहस , प्रतिभा और मेधा का परिचय दिया है। इस प्रश्न को सुनने और उसके क्षणांश में मंच पर लगे रामअवतार गुप्त के चित्र पर नजर जाते ही उनकी एक बात याद आती है जो मातृभाषा को उचित स्थान नहीं दिये जाने से जुड़ी चर्चा में कहा था कि ‘‘किसी भी संस्कृति की बनावट में भाषा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। मनुष्य अपनी मातृभाषा में ही अपने अधूरेपन की पहचान करता है और उस अधूरेपन को भरने का सपना भी अपनी बाषा में देखता है।’’ साइंस सीटी ऑडिटोरियम के मंच पर पुरस्कार लेते बच्चों की आंखों में वही अधूरपन को भरने का सपना झिलमिलाता दिख रहा था। बच्चों ने जो मेहनत की थी वह इसी अधूरेपन के सपने को यथार्थ का रूप देने की कोशिश थी।

वक्ताओं ने , जिसमें विद्वान शिक्षक, ​चिंतनशील समाजसेवी और दूरदर्शी व्यवसायी भी शामिल थे, एक स्वर से सन्मार्ग के इस प्रयास की प्रशंसा की। बहुत लोग जानते हैं कि सन्मार्ग के संस्थापकों से लेकर उसे आज संचालित करने वाले एसे लोग हैं जिनका दृढ़ विश्वास है कि मातृभाषा का दुहरा चरित्र है एक तरफ जहां वह सम्प्रेषण का माध्यम होती है वहीं दूसरी तरफ वह सांस्कृतिक चेतना का वहक भी होती है। किसी भी देश की संस्कृति इतिहास के झंझावातों द्वारा क्षत विक्षत भले ही हो जाय उसका सत्य और सातत्य उसकी मातृभाषा में बचा रहता है। हमारी हिंदी इसका अपतिम उदाहरण है। हीगर से लेकर मैक्समूलर तक ने हमारी भाषा को कुंद करने की कोशिश की लेकिन राष्ट्रीय चेतना इसी के भीतर से प्रस्फुटित हुई। आज मंच पर आते जाते बच्चों को देख कर अहसास हो रहा था कि हमारी हिंदी उनके भीतर के भीतर के सत्य और बाहर के यथार्थ के बीच सेतु का काम कर रही है। जबकि सत्य और यथार्थ दो नहीं हैं एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कहते हैं हमारी बाहरी दुनिया हमारी भाषा का श्रृंगार है उसकी बिन्दी है दूसरी तरफ हमारा अंतस उसी भाषा का बंदी है। अगर विटगेन्सटाइन की मानें तो कहेंगे कि जब भाषा के स्पर्श का भौतिक अहसास होता है तभी लगता है कि हमें इसके सलीके को समझना होगा। आज जो कुछ भी दिखा वह किशोर छात्र-छात्राओं द्वारा तात्कालिक लक्ष्य की प्राप्ति का उत्साह था। स्व गुप्त की मुस्कान का यही रहस्य है और वहां उपस्थित सुधिजनों का भी यही नारा है कि तात्कालिक उपलब्धि का यह उत्साह स्थाई हो जाय। स्थाई इसलिये कि चिंतन और कल्पना की परिपाटियां अपनी रूपकीय सत्ता ना खो बैठें। सन्मार्ग का याह उपक्रम इसी रुपकीय सत्ता को कायम रखने का प्रयास है।        

 

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