कर्ज माफी समस्या का हल नहीं
सूखा और अकाल बेशक किसानों की पीड़ा को बढ़ा देता है पर किसानों के दुख-संताप का एकमात्र कारण यही नहीं है। जि वर्षों में बेहतर मानसून रहता है उन वर्षों में भी गहरे संताप और दुख रहते हैं। ये सारे दुख मानव तंत्रों द्वारा पैदा किये गये हैं। सूखा तो किसान की पीठ पर दुखों के बोझ का अंतिम गठ्ठर है। सूखा और अकाल किसानों के लिये कोई बात नहीं है। यह तो कृषि के इतिहास से जुड़ा है। यहां तक कि पौराणिक काल से क्योंकि अपने राज में सूखा से निपटने के लिये राजा जनक को भी हल चलाना पड़ा था। अलबत्ताड वर्तमान भारत में यह और व्यापक, अतुलनीय दुखदायी हो गया है। शहरी पेज थ्री टाइप अमीर वर्ग या अमीर होता हुआ मध्य वर्ग सूखे से प्रभावित नहीं होता या होता भी है तो बहुत कम। उल्टे उनहें काम मिल जाता है कथित सेवा- दान करने का। इससे तात्कालिक भूख और प्यास की पड़ि में अपमान का दुख और बढ़ जाता है। कभी देश के उन अंतिम पांच प्रतिशत लोगों के बारे में सोचा है। कहते हैं न कि भारत माता ग्राम वासिनी , अगर भारत माता की विपन्न छवि देखनी है जो सही भारत है तो किसी गांव में जाएं। जहां प्रमचंद के पूर्व और ख्वाजा अहमद अब्बस के बाद के किसानों का दुखद स्वरूप दिखेगा। इस दुख के बारे में ,देश के पहले पांच प्रतिशत लोग जो अखबरों में दानी तथा समाजसेवी तथा नेता तथा और बहुत कुछ नके रूप में मशहूर हैं, न समझ सकते हैं, ना महसूस कर सकते हैं और ना सोच सकते हैं। उदाहरण के लिये इतिहास में प्रेमचंद तक या बंगाल के अकाल तक जाने की जरूरत नहीं है। 1993 के बिहार का अदाहरण लें। भारी अकाल पड़ा था और ततकालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव ने भारी राहत राशि आवंटित की थी। लेकिन हुआ क्या? वह कहावत है न ‘सूखा आसमानी था और राहत सुलतानी थी।’ यहां के मंत्रियों और अफसरों में राहत की वह राशि तथा सामग्री तकसीम हो गयी। रबी और खरीफ दो फसलों का अकाल पड़ा था और ये मंत्री अफसर ‘तीसरी फसल’ काट रहे थे। इस राहत का कुछ हिस्सा किसानों तक गया जरूर पर क्या उससे भूख या प्यास मिट गयी। जरूरत मंद या तो भूख से मर गये या बिहार छोड़ कर चले गये। सूखे के मंच पर बिलबिलाती गरीबी और भूख राहत से नहीं सुधार से जाती है हुजूर। 1966-67 का बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का अकाल बहुतों को या होगा जब इंसानों और जानवरों को खाने के लिये पेड़ में पत्ते भी नहीं बचे थे। जी हां, इंसान पेड़ों के पत्ते खा कर जी रहे थे। उस समय लोगों के पास ना कुछ बेचने को था , ना खरीदने को और खाने को। हद्दे निगाह तक सूखे खेत, ठटरी होते जानवर और प्यास से पपड़ियाये लोगों के होंठ दिखते थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अकाल के काल को महसूस किया और यह भी महसूस किया कि सरकारी मशीनरी अपर्याप्त है। उन्होंने देखा कि यहां फकत सरनकारी राहत नहीं सरकारी सहयोग की साख की भी जरूरत है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की सलाह से सर्व दलीय रात कमिटी का गटन हुआ और उसे शसरकारी राहत कार्य की निगरानी का जिममा सौंप दिया गया। जेपी की अपील पर प्रधानमंत्री राहत कोश में लगातार दान आने लगे। यहां तक पोप ने और देश कई मठाधीशों ने अपनी थैलियां खोल दीं। स्वधर्म और सहानुभूति का वह दौर अद्बुद था। विख्यात लेखक वेंडी स्कार्फ लिखते हैं संवेदनहीनता, बड़बोलेपन और पाखंड की ऐसी दुर्गत कभी देखने को नहीं मिली।
परंतु उसके बाद क्या हुआ? विकास के नाम पर अधिक पैदावार वाली फसलों का चलन शुरू हुआ और कृषि का मशीनीकरण होने लगा। जैव निर्भरता खत्म होने लगी और असमानता बढ़ने लगी। मशहूर कृषि चिंतक पी साईंनाथ लिखते हैं कि इससे एक नये तरह के सामाजिक विस्फोट की आशंका बढ़ती जा रही है। यहां समस्या सूखे की नहीं है बल्कि लगातार उपेक्षा और अवहेलना ने भारतीय कृषि को विश्व के सबसे बड़े कातर मंच के रूप में ढाल दिया है।
आज किसानों को लाठियों से पीटा जा रहा है, गोलियों के शिकार हो रहे हैं और जेल भेजे जा रहे हैं। हाल में रिजर्व बैंक के गवर्नर ने किसानों को कर्जमाफी को ‘नैतिक संकट’ बताया है। यह दोष उर्जित पटेल का नहीं है। वे तो बैंक गवर्नर का धर्म निभा रहे थे। लेकिन जिन लोगों ने जनता के जीवन की रक्षा की शपथ ले है वे क्या कर रहे हैं।
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