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Monday, June 5, 2017

पत्थरों से घायल सवेरा

पत्थरों से घायल सवेरा
महाभारत के युद्ध का क्या कारण था? क्या द्रौपदी का चीर हरण या कौरवों की मनमानी या जुए के खेल को अर्थहीन बना पाने में कुरुश्रेष्ठ भीष्म की नाकामी? सब अलग अलग कारण बताते हैं। वही हाल कश्मीर का है। 70 वर्षों से चली आ रही जंग का हासिल कुछ नहीं। रोज एक नया अध्याय जुड़ जाता है इस लड़ाई में। अभी कुछ दिन पहले एक नौजवान को " ह्यूमन शील्ड " के तौर पर फौजी जीप पर बांध कर घुमाया जाने मामला खिंचा चल रहा है। दो दिन पहले सरकारी तौर पर गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने इसे सही बताया। सेना प्रमुख ने भी प्रकारांतर से इसे सही कहा। भारत में युद्धों में ऐसे प्रयोग की मिसालें मौजूद हैं। सबसे मशहूर मिसाल तो शिखंडी की है। महाभारत, जिसे खुद कृष्ण ने धर्मयुद्ध कहा था , में  कृष्ण की ही सलाह पर अर्जुन ने शिखंडी को " ह्यूमन शील्ड" की तरह उपयोग कर भीष्म का वध किया था। जब वह गलत नही था तो यह कश्मीर वाला कैसे गलत होगा? यही नही कश्मीर में जो फौज कर रही है वह 1919 में पंजाब में जनरल डायर की करतूतों के समान लगता है । ऐतिहासिक द्वेष के कारण संभवतः भारतीय इसे ना मानें की हमारा राष्ट्र दायर के उन पलों के बीच खड़ा है। जनरल डायर ने कहा था ' यह ड्यूटी है , मेरी विकराल और कुत्सित ड्यूटी है।' डायर ने कहा था ' मुझे ड्यूटी निभानी है या उसे नजरअंदाज करना है, मुझे सारी गड़बड़ी रोकनी है या भविष्य में होने वाले खून खराबे का जिम्मेदार होना है इसका चुनाव मुझे करना है। यह सेना के नज़रिए से केवल वहां मौजूद भीड़ को तीतार बितर करने का मसला नहीं है बल्कि सेना पर पर्याप्त नैतिक प्रभाव डालना है। यहां नाज़ायज़ बलप्रयोग का सवाल नही उठता है।" ये शब्द थे जनरल डायर के जिसे बाद में अमृतसर का कसाई कहा जाने लगा था और जलियांवाला बाग के बारे में देश कस हर बच्चा जानता है। आज हम उसी स्थिति में पहुंच गए है। कसन्मिर में मस्तदान केंद्र की हिफाजत के लिए तैनात सेना पर सुबह से ही हो रहे पथराव को रोकने के लिए मेजर गोगोई ने एक फारूक अहमद दर को  जीप की बोनट से बांध दिया और उसे घुमाया ताकि पथराव से फौज बच जाय। संयोगवश वह दिन था14 अप्रैल 2017 का। इसी दिन 1919 में जालियांवालाबाग कांड हुआ था। जब कश्मीर की घटना का वीडियो वायरल हुआ तो देश चकित रह गया। मेजर गोगोई पर जांच का आदेश हुआ पर इसी बीच सेनाप्रमुख रावत ने हस्तक्षेप कर मेजर को बचा लिया और बचा लिया सेना का नैतिक बल। जेनरल रावत ने स्पष्ट कहा कि ' अगर मेरे जवान मुझसे पूछेंगे की पथराव करती भीड़ या गोली चलते आतंकियों का क्या करना है तो मैं यह तो कह नही सकता कि खड़े रहो और बस मर जाओ।' यहां मुश्किल यह है कि सेना को ऐसे असैनिक दुश्मन का मुकाबला करना है जो हथियारों का उपयोग नहीं करता।जनरल ने कहा , ' काश ये लोग पत्थर फेंकने की बजाय हथियारों का उपयोग करते। तब मुझे खुशी होती।' जनरल का कहना था कि ' हमें ऐसे मौके पर सेना के हौसले  के बारे में सोचना होता है।' जनरल रावत बिल्कुल सही थे उनका काम सियासत नहीं है बल्कि फौज के रुतबे को कायम रखना है। कश्मीर में फौज का मुकाबला एक हिंसक भीड़ से है और यह जरूरी दसिं की हमलावरों में फौज का खूफ हो। बेशक भारतीय सेना का रुख अपनी जनता के प्रति दोस्ताना है, लेकिन जब उसे कानून और व्यवस्था कायम करने के लिए तैनात किया जाता है तो लोगों में उसका दर ज़रूरी है। इसलिए भीड़ से निपटने के लिए अभिनव उपायों को अपनाना ज़रूरी होता है। कल जब किसी दूसरी जगह  ऐसी ही स्थिति उत्पन्न होती है और सेना को बुलाया जाता है और सेना वहां नसाहीं जाती है तो आम लोगों में उसका भरोसा घट जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं होने दिया जाएगा। जब किसी देश की सेना यह सोचने लगती है कि अपना रुतबा कायम रखने के लिए लोगों का डरना ज़रूरी है  यहीं से गड़बड़ी शुरू हो जाती है। क्योंकि इसमें राजनीति को दखल देने का अवसर मिल जाता है। जब यह घटना घटी थी तो मेजर गोगोई के खिलाफ जांच बैठ गयी थी पर रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने मेजर गोगोई का  समर्थन किया था और भी संबंधित नेताओं अफसरों ने भी समर्थन किया। ऐसी स्थिति में सबसे कठिन हालात होती है सेना के फैसलों को राजनीति से बचना।राजनीतिक शासन को सुदृढ बनाने के लिए आंतरिक मामलों में और सीमा के मामलों में भी सेना का उपयोग किया जाना। शुरू में जनरल डायर का उल्लेख किया गया लेकिन जेनरल रावत मनोवृति को डायर की मनोवृत्ति से तुलना करना गलत होगा। बेशक ढांचागत स्वरूपों में समानता है पर उसके आंतरिक स्वरूप भिन्न हैं । भारतीय सेना राष्ट्रीय सेना है वह उपनिवेश में नही तैनात है इसीलिए उसने वहां गोली नहीं चलाई बल्कि एक अभिनव प्रयोग किया। एक ऐसी जगह जहां हर सुबह पत्थरों से घायल वहां शस्त्रप्रयोग की वर्जना और हर हाल में उसपर कायम रहना विश्व युद्ध इतिहास का अकेला उदाहरण है। भारतीय सेना को सलाम।       

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