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Friday, June 9, 2017

समय की शिला पर

समय की शिला पर

भारतीय सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत ने हाल में एक समाचार एजेंसी को दिये गये अपने साक्षात्कार में कहा था कि ‘जनता को सेना से डरना होगा , खास कर तब जब कानून और व्यवस्था को लागू करने के लिये उसे तैनात किया गया हो।’ जनरल रावत कश्मीर के पत्थरबाजों के संदर्भ में यह बात कह रहे थे। जनरल की बात का साजिश के तहत बतंगड़ बन गया और सोशल मीडिया में हाय तौबा मच गयी। अवांतर सच को समाचार की तरह प्रसारित करने में सिद्धहस्त होता जा रहा सोशल मीडिया ने यह पूरी बात और जनरल को लानत एक खास उद्देश्य के तहत किया। यह ‘डर्टी वार’ का ही हिस्सा है। हमारे देश में सेना के लिये बहुत सम्मान है। भारतीय सैन्य इतिहास ऐसे कई उद्दरणों से भरा पड़ा है जिसमें सेना ने न केवल अप्रतिम शौर्य का प्रदर्शन किया बल्कि इन्सानियत ओर मानवीय सम्मान की भी रक्षा की। जनरल राज्त के बयान पर मचे बवाल की पृष्ठ भूमि में बंगाल पुलिस के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक श्री अधीर देव शर्मा ने द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय सेना के पराक्रम और सह्रदयता के बारे में एक जानकारी भेजी कि ‘‘बर्मा के अराकान पहाड़ियों में घनघोर युद्ध के बाद जब भारतीय सेना से जापानी फौज पराजित हो गयी और उसके कमांडर ने आत्मसमर्पण स्वरूप अपनी खानदानी तलवार भारतीय कमांडर के कदमों में रख दी तो भारतीय सेना उस वीर सैनिक ने यह कहते हुये वह तलवार लौटा दी कि उसने समर्पण स्वीकार कर लिया पर चूंकि वह उसके खानदान की प्रतिष्ठा है उसे वापस किया जाता है। जापानी सैनिक रो पड़ा।’’ विश्व सैन्य इतिहास में पराक्रम के ऐसे उदाहरण शायद ही मिलें। इतना ही नहीं हममें से बहुतों को बंगलादेश के मुक्ति संग्राम के दौरान 16 दिसमबर 1971 के उस मशहूर सरेंडर का वह वाकया याद होगा जब पाकिस्तान की विशाल बलात्कारी वाहिनी के प्रमुख जनरल नियाजी के पास सरेंडर पेपर्स पर दस्तखत के लिये कलम नहीं थी और जनरल अरोड़ा ने मुस्कुराते हुये अपनी जब अपनी कलम दी तो नियाजी की आंखें भर आयी थीं। लगभग एक लाख वैसे फौजियों का यह आत्मसमर्पण जिसने शायद ही किसी महिला से दुष्कर्म ना किये हों एक ऐसी घटना है जिसकी मिसाल इतिहास में दूसरी नहीं है।

इन दो वाकयात का जिक्र यहां इस लिये किया गया कि भारतीय सेना के सामूहिक ओर सांगठनिक चरित्र का अंदाजा मिल सके। उसके लिये मानवीय सम्मान सबसे बड़ी बात है। एक ऐसा फौजी जो कानून और व्यवस्था की हिफाजत के लिये तैनात है और वह पत्थरों की मार खाता है , लात –घूंसों के प्रहार झेलता है और फकत इसलिये ऐसा नहीं कर पाता कि उसकी अफसरों ने कार्रवायी करने का हुक्म नहीं दिया है। यह देश के 130 करोड़ जनता से सवाल है कि ऐसे में एक फौजी को क्या करना चाहिये या ऐसी दशा में एक आम आदमी क्या करता?  यही न जो गीता में कृष्ण ने अर्जुन से कहा है

तस्मादज्ञानसंभूतं ह्रत्स्थं ज्ञानासिनात्मन:

छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोतिष्ठ भारत:

… और युद्ध नहीं किया जा सकता है तो कमसे कम सेना में लाचारी और शौर्यहीनता तो ना दिखे। कौटिल्य ने कहा है कि किसी भी वक्तव्य को संदर्भों से काट कर व्याख्यायित करना सबसे बड़ा षडयंत्र है। आज सोशल मीडिया में जो इस संदर्भ में कहा जा रहा है वह स्पष्ट रूप से षडयंत्र है और अगर खुल कर कहें तो देश के दुश्मनों का षडयंत्र है। हमारे देश में ‘जय जवान जय किसान’ की जो परम्परा है या ‘अग्रते सकलं शास्त्रम पृष्ठते सशरं धनु:’ का जो भरोसा है उसे विकृत करने की यह साजिश है। अफवाहों की लड़ायी सबसे खतरनाक होती है। आज जनरल रावत के बयानों संदर्भों से काट कर सेना को नैतिक तौर पर कमजोर करने की साजिश केवल इसलिये कि उसका मानवीय और मैत्रीपूर्ण चरित्र तथा छवि भ्रष्ट हो जाय। सेना और उसके कमांडरों में हीनभाव भर जाय। हर भारतीय से यह सवाल है कि जब वह उसी सोशल मीडिया पर एक जवान को चंद छोकरों के हाथ अपमानित होता देखता है तो  शर्मसार होता है अथवा नहीं? वह हथियारों का उपयोग करे ओर कुछ लोग मारे जाएं तो क्या अच्छा होगा? साजिश करने वाले यही तो चाहते हैं। जो लोग जनरल के बयान की आलोचना कर रहे हैं वे खुद निंदा के पात्रग् है। यह साजिश भी एक तरह से आतंकवाद को समर्थन है तथा उससे निपटने के लिये इसी तरह के अभिनव प्रयोग जरूरी हैं। महाभारत का युद्ध धर्मयुद्ध था और उसमें भी कुरुश्रेष्ठ भीष्म को मारने के लिये स्वयं भगवान ने शकुनी को कवच बनाया था।

जनरल रावत के बयान पर विवाद हो गया है। विवाद करने वाले क्या बता सकते हैं कि फौज अपने लोगों पर हथियार का उपयोग करेगी नहीं , उसका खौफ आम जनता पर होगा नहीं तो उसका उपयोग क्या है?  सोशल मीडया जनरल रावत के बयान की आलोचना कर रहा है, मुख्यधारा की मीडिया में भी कहीं कहीं यह बात चल रही है। तरह तरह के सुझाव दिये जा रहे हैं। इस मुकाम पर आकर ऐसा महसूस होता है कि अभिव्यक्ति की आजादी लोकतांत्रिक देश के लिये अवरोध है। किस तरह विपरीत विचार हमारे जैसे ताकतवर देश के लिये खतरा बनते जा रहे हैं। समय की शिला पर यह षडयंत्रकारी परिच्छेद जरूर कायम रहेगा और यदि इसे नहीं राहेका गया तो आगे चल कर ​स्थितियों का आकलन करने ीलिये इतिहास की वीथियों में यह घटना जरूर मिलेगी।  नोम चोमोस्की का कथन है कि ‘लोग आज्ञा का अनुपालन करें इसके लिये जरूरी है कि विचारों के क्षितिज सीमित कर दिये जाएं और उस सीमा के भीतर बहस की इजाजत ना हो।’ सेना का एक जवान पहले मानव है फिर फौजी है और जिसतरह पत्थरबाजों के मानवाधिकार हैं उसी तरह उसके भी हैं पर वह आज्ञाबद्ध है। फौज का डर आम आदमी में इसलिये भी जरूरी है कि यदि वह ताकत का उपयोग करती है तो उसके दुखद परिणाम होंगे। बंगलादेश के मुक्ति संग्राम में पाकिस्तानी फौज की अमानुषिकता इस बात का सबूत है। इसीलिये रामचरित मानस में तुलसीदास ने कहा है,‘बिनु भय होत ना प्रीत।’ सेना का डर जरूरी है। जय हिंद , जय हिंद के सेना।             

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