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Friday, September 8, 2017

विदेशों में हिंदुत्व के विकास का अवसर पिऊ रिसर्च सेंटर के आंकड़े के अनुसार अमरीका में ईसे लोगों की  आबादी बढती जा रही है जो खुद को अध्यात्मिक तो बता रहे हैं पर ईसायत से दूर होते जा रहे हा हैं. यानि इसाई धर्म के मानने वालों की तादाद घटी जा रही है. आंकड़ों के अनुसार ऐसे लोगों कि संख्या 27 प्रतिशत तक पहुँच गयी गई.ऐसे अगर हिन्दू संगठन अपना आधार बढ़ाना चाहते हैं तो उन्हें पश्चिम की ओर रुख करना चाहिए क्योंकि इसाई संगठनों का रुख भारत की  ओर हो चुका है. वे अमरीका के अपनी जनसंख्या क्षति को पूरा करना चाहते हैं. जो शर्त या तथ्य अमरीका धनतंत्र के साथ है वही या उसी प्रकार कि बातें भारतीय धर्मतंत्र के साथ भी लागू होती है. उनका बाज़ार यहाँ है यानि हमारे भारत में है तो हमारा बाज़ार वहाँ है.  अफ्रिका में तो इसाइअत और इस्लाम में खुनी जंग छिड़ चुकी  है. इन दो अब्रहमीय धर्मों का  भारत अगला बड़ा  निशाना है. चीन बड़ा बाज़ार हो सकता है क्योंकि वहाँ  इसायीअत तेजी से बढ़ रही है पर वहाँ देश से बाहर से नियंत्रित होने वाले धर्म संस्थानों पर रोक है. रपटों के अनुसार चीन में 5 करोड़ 80 लाख प्रोस्तेंत इसाई हैं और कैथोलिकों कि संख्या मिला दें तो वहाँ इनकी संख्या 2025 तक 24 लाख 70 करोड़ हो जाने की  उम्मीद है. अगर चीन ने सभी धर्मों के लिए दरवाज़ा खोला तो वहाँ बौद्ध एक साथ मिल कर इसायीअत का मुकाबला करेंगे. दूसरी तरफ भारत का बाज़ार खुला हुआ है. चूँकि यहाँ गरीबी और भेदभाव ज्यादा  है इसलिए यहाँ धर्मांतरण बढ़ रहा है. चर्चों के पास और अरब के शेखों के पास अकूत दौलत है और वे भारत के गरीबों का धर्म बदलने के लिए खर्च कर रहे हैं.  चूँकि चीन में जीवन के हर क्षेत्र में कम्मुनिस्ट पार्टी कि दखल इसलिए वहाँ धर्म के क्षेत्र में धन व्यर्थ है. चीन में नौजवान चीनी जीवन और दौलत का दूसरा अर्थ लगाते हैं उसमें कहीं भी इश्वर शामिल नहीं होत्रा. उधर जो गोर मुल्क हैं उनके लिए धन नया नहीं है और सैकड़ों वर्ष के विज्ञान और तार्किकता के विकास के बावजूद ऐसे इसाई बढ़ रहे  हैं जो आध्यात्मिक तो हैं पर धार्मिक नहीं हैं. वे अपना जीवन खोखला महसूस करते हैं. वे मानते हैं कि कुंवारी कन्या का प्रसव हो सकता है ( वर्जिन बर्थ ) और ईसा ही रक्षक हैं, जबकि तार्किकता इसके विपरीत है. विगत 40 वर्षों में गोर ईसाईयों कि संख्या तेजी से घटी है इसका मुख्य कारण है गोरों में परिवार नियोजन का भाव है यही बात हिन्दुओं के साथ भी है. अमरीका में 27 प[रतिशत ऐसे लोग हैं जो अपने को किसी धर्म का नहीं मानते. यह हिंदुत्व , बौद्ध  और  इस्लाम के लिए खुला  बाज़ार है. गोरों  में 18 से 29 वर्ष के 38 % लोग  और 30 से 49  वर्ष के 26 % लोग किसी धर्म को नहीं मानते. ऐसी मानसिकता के लोग उत्तरी कैलिफोर्निया और न्यू इंग्लैण्ड में ज्यादा हैं. उधर एफ्रो – अमरीकियों में  इस्लाम के प्रति अपील ज्यादा है. दूसरी तरफ भारत में ऐसे विचार के लोग हैं जो यह सोचते हैं कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाय. यही नहीं भारत में रवि शंकर, सद्गुरु जाग्गी वसुदेव और रामदेव जैसे कई नए युग के गुरु हैं. इनकी अपनी अपील है और अपनी पहुँच है. इतना ही नहीं भारत में धर्म विख्यात मंदिरों से जुड़ा है और कई राम , कृष्णा , गणेश तथा शिव जैसे लोकप्रिय देवता हैं. ये देवता और ये मंदिर लोगों को अपनी ओर खींचते हैं.इसकों और बाद्यापीठ मंदिरों का प्रसार इस बात का प्रमाण है. जवाहरलाल नेहरु कि कल्पना थी कि आई आई टी तथा इस्पात संयंत्र भारत के नए मंदिर हों. अब वक्त आ गया है कि  पश्चिम में हम अपने मंदिरों को निर्यात करें . मसलन आई वी लीग के कालेज सरस्वती मंदिरे कहे जायं , वाल स्ट्रीट लक्ष्मी मंदिर और निर्माण – विनाश के देवता शिव का वास सिलिकोन वैली में होता. मजे कि बात  है कि  ये चूँकि मांसाहारी हैं इसलिय जैन और बौद्ध की  ओर नहीं जा सकते. भातात अध्यात्मिक विकास सबसे पुराना केंद्र  रहा है और सबको देने के लिए इसके पास कुछ न कुछ है.भारत को अपनी इस दौलत का लाभ उठा कर विदेशों में हिन्दू धर्म का विकास करना चाहिए.  

विदेशों में हिंदुत्व के विकास का अवसर

पिऊ रिसर्च सेंटर के आंकड़े के अनुसार अमरीका में ईसे लोगों की  आबादी बढती जा रही है जो खुद को अध्यात्मिक तो बता रहे हैं पर ईसायत से दूर होते जा रहे हा हैं. यानि इसाई धर्म के मानने वालों की तादाद घटी जा रही है. आंकड़ों के अनुसार ऐसे लोगों कि संख्या 27 प्रतिशत तक पहुँच गयी गई.ऐसे अगर हिन्दू संगठन अपना आधार बढ़ाना चाहते हैं तो उन्हें पश्चिम की ओर रुख करना चाहिए क्योंकि इसाई संगठनों का रुख भारत की  ओर हो चुका है. वे अमरीका के अपनी जनसंख्या क्षति को पूरा करना चाहते हैं. जो शर्त या तथ्य अमरीका धनतंत्र के साथ है वही या उसी प्रकार कि बातें भारतीय धर्मतंत्र के साथ भी लागू होती है. उनका बाज़ार यहाँ है यानि हमारे भारत में है तो हमारा बाज़ार वहाँ है.  अफ्रिका में तो इसाइअत और इस्लाम में खुनी जंग छिड़ चुकी  है. इन दो अब्रहमीय धर्मों का  भारत अगला बड़ा  निशाना है. चीन बड़ा बाज़ार हो सकता है क्योंकि वहाँ  इसायीअत तेजी से बढ़ रही है पर वहाँ देश से बाहर से नियंत्रित होने वाले धर्म संस्थानों पर रोक है. रपटों के अनुसार चीन में 5 करोड़ 80 लाख प्रोस्तेंत इसाई हैं और कैथोलिकों कि संख्या मिला दें तो वहाँ इनकी संख्या 2025 तक 24 लाख 70 करोड़ हो जाने की  उम्मीद है. अगर चीन ने सभी धर्मों के लिए दरवाज़ा खोला तो वहाँ बौद्ध एक साथ मिल कर इसायीअत का मुकाबला करेंगे. दूसरी तरफ भारत का बाज़ार खुला हुआ है. चूँकि यहाँ गरीबी और भेदभाव ज्यादा  है इसलिए यहाँ धर्मांतरण बढ़ रहा है. चर्चों के पास और अरब के शेखों के पास अकूत दौलत है और वे भारत के गरीबों का धर्म बदलने के लिए खर्च कर रहे हैं.  चूँकि चीन में जीवन के हर क्षेत्र में कम्मुनिस्ट पार्टी कि दखल इसलिए वहाँ धर्म के क्षेत्र में धन व्यर्थ है. चीन में नौजवान चीनी जीवन और दौलत का दूसरा अर्थ लगाते हैं उसमें कहीं भी इश्वर शामिल नहीं होत्रा. उधर जो गोर मुल्क हैं उनके लिए धन नया नहीं है और सैकड़ों वर्ष के विज्ञान और तार्किकता के विकास के बावजूद ऐसे इसाई बढ़ रहे  हैं जो आध्यात्मिक तो हैं पर धार्मिक नहीं हैं. वे अपना जीवन खोखला महसूस करते हैं. वे मानते हैं कि कुंवारी कन्या का प्रसव हो सकता है ( वर्जिन बर्थ ) और ईसा ही रक्षक हैं, जबकि तार्किकता इसके विपरीत है. विगत 40 वर्षों में गोर ईसाईयों कि संख्या तेजी से घटी है इसका मुख्य कारण है गोरों में परिवार नियोजन का भाव है यही बात हिन्दुओं के साथ भी है. अमरीका में 27 प[रतिशत ऐसे लोग हैं जो अपने को किसी धर्म का नहीं मानते. यह हिंदुत्व , बौद्ध  और  इस्लाम के लिए खुला  बाज़ार है. गोरों  में 18 से 29 वर्ष के 38 % लोग  और 30 से 49  वर्ष के 26 % लोग किसी धर्म को नहीं मानते. ऐसी मानसिकता के लोग उत्तरी कैलिफोर्निया और न्यू इंग्लैण्ड में ज्यादा हैं. उधर एफ्रो – अमरीकियों में  इस्लाम के प्रति अपील ज्यादा है. दूसरी तरफ भारत में ऐसे विचार के लोग हैं जो यह सोचते हैं कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाय. यही नहीं भारत में रवि शंकर, सद्गुरु जाग्गी वसुदेव और रामदेव जैसे कई नए युग के गुरु हैं. इनकी अपनी अपील है और अपनी पहुँच है. इतना ही नहीं भारत में धर्म विख्यात मंदिरों से जुड़ा है और कई राम , कृष्णा , गणेश तथा शिव जैसे लोकप्रिय देवता हैं. ये देवता और ये मंदिर लोगों को अपनी ओर खींचते हैं.इसकों और बाद्यापीठ मंदिरों का प्रसार इस बात का प्रमाण है.

जवाहरलाल नेहरु कि कल्पना थी कि आई आई टी तथा इस्पात संयंत्र भारत के नए मंदिर हों. अब वक्त आ गया है कि  पश्चिम में हम अपने मंदिरों को निर्यात करें . मसलन आई वी लीग के कालेज सरस्वती मंदिरे कहे जायं , वाल स्ट्रीट लक्ष्मी मंदिर और निर्माण – विनाश के देवता शिव का वास सिलिकोन वैली में होता. मजे कि बात  है कि  ये चूँकि मांसाहारी हैं इसलिय जैन और बौद्ध की  ओर नहीं जा सकते. भातात अध्यात्मिक विकास सबसे पुराना केंद्र  रहा है और सबको देने के लिए इसके पास कुछ न कुछ है.भारत को अपनी इस दौलत का लाभ उठा कर विदेशों में हिन्दू धर्म का विकास करना चाहिए.  

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