शिक्षा की दुरावस्था
शिक्षा के विकास के नाम पर भारत में दो असंतुलित कार्य हो रहे हैं. एक तो बच्चों को दनादन स्कूल भेजा जा रहा है , जिससे स्कूलों में छात्रों की बाढ़ आ गयी है और उनका बोझ संभाले नहीं संभल रहा है और दूसरा की शिक्षा एक धंधा बनता जा रहा ही. उस धंधे में प्रतियोगता को बढ़ावा मिल रहा है. बड़े पैमाने पर महंगे स्कूल खुल रहे हैं. बच्चों की देख बाल नहीं हो पा रही है लिहाजा अप्रिय घटनाएं घट रहीं हैं. शिक्षा का मूल उद्देश्य पूरा नहीं हो पा रहा हैं. शिक्षा, शिक्षक और शिक्षण की श्रृंखलाबद्ध प्रतिरिया के अंतर्गत अच्छे शिक्षकों का बड़े पैमाने पर अभाव होता जा रहा है और इस अभाव के कारण शिक्षण प्रभावित हो रहा है जिससे शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं हो पा रहा है. ख़ास कर भाषा को लेकर.
एक वैश्विक अध्ययन से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक़ देश में जितने छात्र अभी हैं , खास कर सेकेंडरी कक्षाओं में उतने पहले कभी नहीं रहे पर उन्हें पढ़ाया नहीं जा पा रहा है. जो कमजोर वर्गों के छात्र हैं उनकी हालत तो और खराब है. तेलंगना और आन्ध्र प्रेअदेश जैसे अपेक्षाकृत एडवांस राज्यों की भी स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है.
ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा चार देशों में किये गए इस अध्ययन के अनुसार भारत में दो ही बातें सकारात्मक हैं पहली कि क्लास 9 में छात्रों की सामान्य उम्र 15 पायी गयी है यानी ये बच्चे पहली क्लास में 5 वर्ष की उम्र में आ चुके थे. इधर अंग्रेजी माध्यम से बच्चों को पढ़ाने का लोभ और शिक्षण में अच्छे शिक्षकों का अभाव के कारन बच्चे ना हिंदी सीख पाते हैं और ना अंग्रेजी. 2009 ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय छात्रों के आकलन कार्यक्रम ( प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट , पीसा) में अंग्रेजी , हिंदी और बोलचाल की भाषा के पाठ में औसत से भी खराब प्रदर्शन किया था. दूसरे देशों ने हमारे छात्रों से बहुत अच्छा किया था. इसका मुख्य कारण हमारे देश में शिक्षा की गुणवत्ता का अभाव. हमारे छात्रों की हालत यह है की ना वे अच्छी अंग्रेजी जानते हैं ना अच्छी हिंदी. औसत छात्र दोनों में से किसी भाषा में पांच सुसंगत पंक्तियाँ नहीं लिख सकते. अंग्रेजी के जानकार होने का दवा करने वाले हिंदी के शब्दों का सही उच्चारण नहीं कर पाते. मसलन दत्त को दत्ता , बुद्ध को बुद्धा , अशोक को अशोका कहना आम बात है. अभी हाल में एक आयोजन में एक बड़े लेखक और विद्वान को “ शिव को शिवा ” कहते सुना गया , जबकि वे महाशय पौराणिक विषयों पर लिख कर करोड़ों कमाते हैं. अब उन्हें कैसे बताया जय कि शिव और शिवा के अर्थ पुराण में भिन्न हैं.
इसका मुख्य कारण है कि हिंदी माध्यम के स्कूलों में सही शिक्षण का अभाव . अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के प्रति मोह इसी गुणवत्ता का लोभ है. इस लोभ के कारन समाज में मनोवैज्ञानिक परिवर्तन देखने को मिल रहा है. अगर कोई हिंदी में या अपनी क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा ग्रहण करता है तो उसे निम्न स्तर का माना जाता है. इससे सामाजिक प्रतिष्ठा के जुड़ जाने के कारण अब लोगों के सामने कोई चारा नहीं रह जाता कि वे बच्चों को अनिवार्य रूप से अंग्रेजी की शिक्षा दें. लेकिन वास्तविकता तो यह है कि अधिकाँश अंग्रेजी स्कूलों में भी वही हाल है. अंग्रेजी पढ़े ऐसे नौजवान मिलेंगे जो अखबारों की ख़बरों को भी ठीक से नहीं समझ पाते. इस हालत में उन्हें अंग्रेजी हिंदी और अपनी भाषा की खिचड़ी के अलावा कुछ हाथ नहीं लगता. अंग्रेजी की गम्भीर पुस्तकों को पढ़ने की बात छोड़ दें तो भी वे अंग्रेजी से जूझने में अपनी सारी शक्ति खर्च करते हैं और मजबूरन अपनी भाषा या हिंदी के ज्ञान के प्रति लापरवाही बरतते हैं.और इस प्रक्रिया में उन्हेंभाषा की भ्रमित खिचड़ी के अलावा कुछ हाथ नहीं लगता. इसी के साथ उनकी विचार क्षमता पर भी गंभीरप्रभाव पड़ता है क्योंकि भाषा शब्दों को समझने,विचारों को तौलने और संवाद के प्रयोग का प्राथमिक साधन इसका मतलब यह भी है कि हमारी राजनीति में उन लोगों का प्रभुत्व हो चुका है जो गुणवत्तापरक शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाये हैं.इसीलिए शिक्षा स्तरहीन होटी जा रही है.
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