विकास के नाम पर यह शोषण क्यों?
शहर कोलकाता में इस हफ्ते पेट्रोल 73 रूपए प्रति लीटर से ऊपर मूल्य पर बिका , खबर है कि मुंबई में यह 79 रूपए से ज्यादा महँगा मिला और दिल्ली में इसका मूल्य 70 रूपए प्रति लीटर था. तेल एक ऐसी ज़रुरत है जो विकास कि धमनियों में बहता है और उपभोक्ता मूल्य इससे निर्देशित होते हैं. यह हमारे लिए गर्व का विषय है कि हम भारतवासी इतने महंगे तेल का उपयोग करते हैं. लेकिन आप पूछेंगे कि यह गर्व का विषय क्यों है? अब सोचिये कि अगस्त 2014 में जब पेट्रोल का मूल्य 70रूपए से ऊपर था तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल का मूल्य 103.86 डॉलर यानि 6326.11 रूपए था और आज सितम्बर 2017 में कच्चे तेल का मूल्य 53.39 डॉलर यानि 3418 रूपए है. हल में पेट्रोलियम मंत्री धरमेंद्र प्रधान ने कहा था कि “ तेल की कीमतों में रोजाना समीक्षा - संशोधन उपभोक्ताओं के हित में है.” अब यह कैसा हित है कि भारतीय नागरिक लगभग उतना ही मूल्य चुका रहे हैं जितना 2014 में चुका रहे थे. जबकि कच्चे तेल का मूल्य 85 प्रतिशत कम हो चुका है. नरेन्द्र मोदी के राज में विगत डो दशकों का आर्थिक सुधार राष्ट्रवादी के कर्तव्य जैसे मुहावरों में शामिल हो गया है.इस राज में मध्यम वर्गसे राष्ट्र हित में सब्सीडी त्यागने कि अपेक्षा की जा रही है. सरकार का यह मानना है कि क्व्हुंकी मध्य वर्ग को सब्सीडी दी जा राही है इसलिए देश विकसित नहीं हो पा रहा है. अब भगवान् बचाए भारतीय मध्य वर्ग को आज घुटी घुटी आवाज में सब्सीडी कि मांग कर रहे हैं. क्योंकि येही लोग भारत को विकसित नहीं होने देने के जिम्मेदार हैं. यह बात दूसरी है कि हमारी सब्सीडी बमुश्किल ग्लोबल स्टैण्डर्ड से बराबरी कर पाती है. आज ये “ सब्सीडी के भूखे , मुफ्तखोर राष्ट्रविरोधी ” मध्यवर्गीय लोग जब अपनी स्कूटी में सरकारी पेट्रोल पम्प से तेल डलवाते हैं तो एक सवाल पूछ ही सकते हैं कि जब सरकार 31 रुपये लीटर तेल खरीदती है तो हम उसी तेल के लिए 73 रूपए या 79 रूपए क्यों दें? कच्चा तेल जो सरकारी रिफाइनरीज में जाता है उसपर लागत ( सितम्बर 2017 के मूल्य के आधार पर) आती है महज 21.50रूपए, टैक्स , दुलाई , कमीशन इत्यादि मिलाकारे 9.34 रूपए आते हैं. इसका मतलब है कि सब मिलाकर पेट्रोल की बेसिक कीमत 30.84 रूपए आती है. बाकी सब टैक्स है. वाह रे भारत का गौरव शाली मध्य वर्ग जो पेट्रोल के हर लीटर पर 48.30 रूपए टैक्स देता है. नवम्बर 2014 से अबतक सरकार ने फकत आबकारी शुल्क में 126 प्रतिशत इजाफा किया है. हालांकि यह लाखों किसानों द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले डीजल के 374% डियूटी से कम ही है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस साल के अपने बजट भाषण में कहा था कि “ हम लोग व्यापक रूप से टैक्स का नहीं अनुपालन करने वाले लोग हैं .” ये उन लोगों के बारे में बोल रहे थे जो प्रत्यक्ष कर नहीं चुकाते. अब कौन लोग उनके दिमाग में थे यह कहना मुश्किल है. लेकिन यकीनन वह मध्य वर्ग तो नहीं होगा. क्योकि मध्ज्य वर्ग बहुत बड़ा हिस्सा तो वेतन भोगी है. उसके वेतन से ही टैक्स ले लिया जाता है. लेकिन अगर हम जेटली कि बात का भरोसा करे भी लें तो अब वह समस्या सुलझ गयी. क्योंकि नोट बंदी के बाद तो नगदी को छिपा लेने कि समस्या ख़त्म हो गयी. अगस्त में इनकम टैक्स फ़ाइल करने वालो कि संख्या में 25 प्रतिशत वृद्धि हुई है और अग्रिम कर भुगतान 41% बढ़ गया है. मध्य वर्ग को तो जेटली कि बात पर पूरा भरोसा है लेकिन सवाल है कि सकल ग्फ्हरेलू उत्पाद कि डर क्यों घट रही है. अब इस मामले में अमित शाह बताते हैं कि यह टेक्नीकल कारण है. अब भारत का मध्य वर्ग डरपोक है उसे दोनों तरफ से डर लगता है वह ना सरकार से कठिन प्रश्न पूछ सकता है और ना अपने समाज में खुल कर बोल सकता है. मुह खुला नहीं कि मोदी भक्त गलियों कि बौछार कर देंगे. लेकिन ज़रा सोचिये कि लोग जब प्रत्यक्ष टैक्स देने लगे हैं, काला धन का उत्पादन नहीं के बराबर है और कारोबार डिजिटल हो गया है तो क्या सरकार को इंधन की कीमत पर 79 प्रतिशत तक टैक्स लगाने का नैतिक अधिकार है? सरकार का कहना है कि विगत तीन वर्षों में अर्थ व्यवस्था कि सारी समस्याएं हल कर ली गयी हैं तो एक बाप सुबह सुबह अपनी बेटी को जब मोटर साइकिल से स्कूल पहुंचाने जाता है तो पेट्रोल 79% टैक्स क्यों दे? एक किसान जो रबी कि बुवाई के पहले नोट बंदी कि घोषणा से आयी मुश्किलों से निपटने के लिए जूझ रहा है तो वह ट्रैक्टर के उप्य्तोग के लीयते डीजल क्यों महँगा खरीदे? अमीरों कि एस यू वी और लाइमोजिन की कीमतें घट रहीं हैं और गरीबों के ट्रैक्टर या मोटर साईकिल में डाला जाने वाला तेल महँगा हो रहा है. सरकार को विकास के नाम पर एक वर्ग के शोषण का नैतिक अधिकार नहीं है. जबसे यह सरका सत्ता में आयी है इसकी हर नीति गरीबों पर प्रहार कर रही है.
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