दशहरा में शस्त्रप्रदर्शन परम्परा को विकृत करने का प्रयास
मर्यादा पुरुषोत्तम और भगवती की ओट में प्रपंच
हरिराम पाण्डेय
कोलकाता : पुरवाई की तरंगों में झूमते कास के फूल और पोखरों में खिलते कमल के बीच शंखध्वनि की तरंगों से ऊपर आती आवाज़ “ या देवी सर्वभूतेषु.....” नवरात्री के आरम्भ की घोषणा है और इसी के साथ शुरू होता है बुराई से अच्छाई का युद्ध. अंततः बुराई पराजित होती है. यह सब जानते हैं लेकिन इस वर्ष हमारे शहर में हर्ष के साथ भय की हल्की छाया भी कहीं कहीं दिख रही है. उसका कारण है इसबार विजयादशमी को कुछ संगठनों द्वारा हथियारों के साथ जुलूस निकाले जाने की तैयारी की खबर. न जाने समय की किन गलतफहमियों के तहत शस्त्र पूजा को शस्त्र प्रदर्शन समझ लिया गया और राष्ट्रवादी संगठनो ने शस्त्र के साथ जुलूस निकालने की शुरुआत कर दी. इस तरह का विचार कभी अचानक या बेलौस या अर्थहीन नहीं होता. इसके पीछे एक लंबा प्रयास होता है अपने आतीत को झुठलाने का.क्योंकि ऐसे विचारों में चुनने का विकल्प शामिल रहता है और ऐसे लोग अपनी परम्पराओं को झुठलाने का विकल्प चुनते है. वरना हज़ारों वर्ष के लंकाविजय के तदन्तर दशहरा का के उत्सव में अचानक कुछ वर्षों से शस्त्रप्रदर्शन की जिद कैसे आ गयी. शस्त्रपूजन का उल्लेख तो शास्त्रों में मिलता है पर उनके खुलेआम प्रदर्शन का नहीं.हाँ,मध्यकालीन इतिहास में कहीं कहीं विजयादशमी के दिन युद्ध के लिए सेना के प्रयाण का प्रसंग है पर वह सोद्देश्य प्रयाण है प्रदर्शन नहीं.
आज के युग में राजव्यवस्था तलवारों से नहीं चलती, हथियारों से नहीं निर्देशित होती बल्कि जनसेवा से चलती है. रामराज्य का उद्देश्य था समता ,सौहार्द और समृद्धि. आज के युग में लोकतंत्र का भी यही उद्देश्य है. इसमें शस्त्रों की भूमिका अत्यंत सीमित है.
जो लोग राम जी का भक्त होने का दम भरते हैं उन्हें यह भी जानना होगा कि उस राम ने कभी शस्त्र का प्रदर्शन नहीं किया. शस्त्र का प्रदर्शन देखने वालों में भय का संचार करने के लिए होता है. इस तरह का प्रदर्शन मनोवैज्ञानिक रूप में संचारी भाव है जो एक भयभीत आदमी दूसरों को भयाक्रांत करने के लिए करता है. गीता में भगवान् कृष्ण ने कहा है कि “ रामः शस्त्रभृतामहम् .” यानी शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ. प्रश्न है कि रावण के हाथ में तो अनेक शस्त्र थे , वातावरण भी युद्ध का था और काल भी अर्जुन के मोह का था पर कृष्ण ने रावण का नाम नहीं लिया. उन्होने राम का ही नाम लिया. क्यों? क्योंकि राम के पास शस्त्र की मर्यादा थी वह प्रदर्शन की वस्तु नहीं था. शस्त्र का उपयोग केवल रक्षा के लिए है, कर्तव्य पालन के लिए है . बाल्मीकि ने भी कहा है , “ यत् कर्तव्यं मनुष्येण धर्षणां प्रमिर्जता, तत् कृतं रावणं हत्वा मयेदं मानकांक्षिणा . ” अर्थात्, “ हे सीता,अपने अपमान का बदला लेने के लिए एक मनुष्य का जो कर्तव्य होता है, रावण को मारकर मैंने वही किया है. बिना इसके मेरा सम्मान पुनः प्राप्त नहीं हो पाता. “ यानी राम ने केवल कर्तव्य पालन के लिए युद्ध किया था,किसी हिंसा के लिए नहीं , किसी ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नहीं. इसलिए शस्त्र का प्रयोग वही कर सकता है या शस्त्र की मर्यादा वही कायम रख सकता है जो राम हो. दूसरा व्यक्ति यदि उपयोग करेगा तो हो सकता है वह जीत जाये तब भी उसके भीतर रावण कायम रहेगा. क्योंकि रावण के शस्त्र भय उत्पादक थे. रावण की पराजय यही थी की वह राम को अपने जैसा नहीं बना सका. राम तो राम ही रहे. जो लोग हथियारों को लेकर जुलूस निकालना चाहते हैं उन्हें शायद दूसरे विश्वयुद्ध का इतिहास मालूम होगा. इस युद्ध में हिटलर हारा था पर फासीवाद का जहर उसने दुनिया में भर दिया. नतीजा हुआ कि हिटलर परमाणु बम बनाने में हिचकता रह गया और दुनिया ने बना लिया. हिटलर परास्त हो गया पर आज भी परमाणु बम के आतंक के रूप में वह ज़िंदा है. आज भी पूरा विश्व उस हथियार से आतंकित है. क्या मिला मानवता को उस युद्ध से.
जो लोग भारत को राष्ट्र और स्वयं को राष्ट्र भक्त बताते हैं वे कितने भ्रम में हैं. वे शक्ति पूजा को शक्ति प्रदर्शन मानने लगे हैं और लोगों से मनवाने को उतारू हैं.. जिस देवी की पूजा करने की बात करते हैं और जिसके स्वरुप से भारत माता को चित्रित करते हैं उस देवी मन्त्र ही है "या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता..."और ऋग्वेद में कहा गया है - '' शुचिभ्राजा उषसो नवेद, यशस्वतीरपस्युवो नसत्याः ।'' अब शास्त्रों का प्रदर्शन किसके लिए? अगर इन देश भक्तों को अपनी उपस्थिति, अपना अस्तित्व ही प्रमाणित करना है तो राष्ट्र की पीड़ित मानवता की सेवा करे. जो लोग हथियारों के साथ यहाँ जुलूस निकाल कर आतंक की रचना करना चाहते हैं वे उसी हथियार को पिघला कर खेती के औज़ार और मानवीय कल्याण के लिए अन्य उपस्कर तैयार कर लें तथा देशवासियों की पीड़ा को समाप्त करने की चेष्टा करें. राम का वन जाना भी महलों से निकल कर मानवता की पीड़ा को महसूस करने का उपक्रम है. सीता हल के फाल से खेतों में निकली थी और राम ने उस सीता का वरण किया यानी हमारी कृषि संस्कृति जो आम जन के लिये साधन भी थी और साध्य भी. राम ने उसी संस्कृति का वरण किया और उसे एक राक्षस के चंगुल से वापस लाने के लिए अपने प्राणों को भी दाँव पर लगा दिया.
हमारी संस्कृति में आज भी शास्त्रों की पूजा का प्रावधान इसी के लिए है कि हम उनका सही सम्मान कर सकें. जिनकी हम पूजा करते उनका अपमान हम बर्दाश्त नहीं कर सकते. माँ दुर्गा का जुलूस केवल उस भौतिक प्रतिमा के विसर्जन के लिए होता है. वह विसर्जन महिषासुर के वध के बाद होता है. यानी असुर के विनाश के बाद सुर समूह और मानव समूह को निर्माण एवं सृजन की जिम्मेदारी दी जाती है. जिन्होंने देखा होगा उन्हें मालूम होगा कि महिलायें और कन्याएं उस विदाई को देख कर रो पड़ती हैं. उस भावुक तथा जिम्मेदारी भरे वातावरण में जो लोग हथियार लेकर जुलूस निकालना चाहते हैं वे इस राष्ट्र के भक्त तो कहे नहीं जा सकते क्योकि वे देवी की आश्वस्ति से आह्लादित समुदाय में आतंक का सृजन करना चाहते हैं. सेतुबंधन का वह प्रसंग सबको याद होगा जब राम ने तीन दिन तक समुद्र की पूजा की थी और विनयपूर्वक राह मांगी थी इसके बाद उन्होंने सराशन का विकल्प चुना था. राम ने भी शक्ति की पूजा की थी. भारत मातृशक्तिआराधक राष्ट्र है. यहां गंगा माता है... गाय माता है... सिंधु माता है... वाणी माता है... नदियां माता है... नीम का पेड़ माता है... सृष्टि का कण-कण यहां माताहै – "या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता।"और माँ के सामने हथियारों का प्रदर्शन. कैसे भक्त हैं ये लोग?
यही नहीं जो लोग यह कहते हैं की दशहरा के आयोजन से हिंदूवादी संगठनो का जोर बढेगा तो वे भी भ्रम में हैं . सच्चा सनातनी और रामभक्त तो वही है जो अपने भीतर के अहंकार को मार दे. न कि राम के प्रति आयोजनों को अवसर बनाकर जन को भ्रमित करने के लिए उसका उपयोग करे. यह तो छल है और बाली वध में एक मामूली सा छल करके राम शर्मिन्दा हो गए थे. दशहरा के आयोजन के आड़ में छल यह तो घोर पाप है. त्रेता में अयोध्या में “ भरत सम भाई” और द्वापर में हस्तिनापुर में “ दुर्योधन सम भाई” दो कालखंडों में दो आचरणों के बिम्ब हैं और दोनों के परिणाम सबके सामने हैं. जो अहंकारी है, जो छली है वह राम का भक्त हो ही नहीं सकता. जो ऐसा समझते हैं कि दशहरा के आयोजन से हिंदुत्ववादी ताकतों को प्रोत्साहन मिलेगा वे भ्रम में हैं या भावनाओं के साथ प्रपंच कर रहे है.
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