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Monday, September 18, 2017

त्योहारों को आनंदायी बनाना समाज का कर्तव्य है

त्योहारों को आनंदायी बनाना समाज का कर्तव्य है

कल के बाद नवरात्री  का आरम्भ हो जाएगा. देवी पक्ष का आगमन. वर्ष  का यह एक ऐसा समय है जब देश के लगभग हर बड़े शहर का एक हिस्सा अलग दुनिया में बदल जाता है. वैसे तो साल भर इन इलाकों में या तो गरीब कामगार लोग रहते हैं या छोटी मोटी  दुकानें, फुटपाथी बाज़ार होते हैं या मोटरों का शोर भरा रहता है. पर जैसे ही देवी  पक्ष के आगमन की बात आरम्भ होती है ये इलाके  रचनाशीलता  के ख़ास दौर से गुजरने लगते हैं. महालय के कुछ पहले तो माँ दुर्गा की मूर्तियाँ निर्माण और समय के बदलते दौर कि प्रतिछवि बन जाती हैं. बांस के ढाँचे और पुआल की देह से आरम्भ हो कर माटी  और रंगों से सजती दुर्गा की प्रतिमाएं हर हिन्दू को हाथ जोड़ने के लिए विवश कर देती हैं. सबसे बड़ी बात है कि फूटपाथ पर निर्माण के विभिन्न चरणों में खड़ी इन मूर्तियों की  शारीरिक बनावट देख कर किसी को ऊब नहीं होती ना किसी को कोई आपत्ति. अगर इसपर कोई सवाल उठाने की कोशिश भी करता है तो उसे डपट कर चुप कर दिया जाता है. किसी भी संप्रदाय की किसी भी धार्मिक भावना को इन मूर्तियों की  मौजूदगी से कोई दिक्कत नहीं होती.ना हिंदू  धर्मावलम्बी नज़रें झुकाते हैं ना मुस्लिम समुदाय के लोग कोई टिपण्णी करते. सब उन प्रतिमाओं को समान आदर देते हैं.

   लेकिन इससे अलग जब भी कोई बात होती है तो देविओं और लड़कियों को अलग अलग खांचे में रख कर देखा जाने लगता है. इसका मतलब है कि कहीं न कहीं हमारी नज़र या दिमाग में कुछ न कुछ गड़बड़ है. आप संग्रहालयों में नग्न मूर्तियाँ देखिये, खजुराहो के भित्तिचित्रों को देखिये कहीं नहीं महसूस होता है कि हम न्यूड विग्रह  देख रहे हैं.  इतिहासकार चम्पक्लक्ष्मी ने दक्षिण भारत की  कांस्य चित्रकारियों में  भिक्षतना को माहेश्वर  शिव के नग्न स्वरुप से परिभाषित किया है.इसका उल्लेख आगमों और पुराणों में भी है. किसी को कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि ऐसा नज़रिया हमारे पारंपरिक जीवन का अंग रहा है.

        पर अचानक क्या हो गया इस देश में कि कहीं पहलु खान कि ह्त्या होती है तो कारवां ए मुहब्बत कारवां निकलता है, कहीं झूठे आरोपों में पुजारी राजेन्द्र पंडित को सरे बाज़ार नंगा कर घुमाया जाता है और न्याय की मांग होती है , कहीं लड़कियों के लिबासों पर फब्तियां कासी जाती हैं तो कहीं असहिष्णुता के बड़े बड़े नारे लगते हैं. लगता है कि नफरत और भेदभाव हमारे देश के वर्तमान की सामान्य बात हो गयी है.

ऐसा क्यों?

केवल इस लिए कि लोकतंत्र की तरफदारी के लिए भावनाओं को आघात पहुंचाने के अभ्यास ने मानवता की सीमाओं को लांघ दिया है तथा पारंपरिक धार्मिक परिवृतों के आसपास मंडरा रहा है. यही कारण है जब दोनों समुदाय के पर्व एक दिन आते हैं तो ख़ास किस्म का डर चरों तरफ कायम हो जाता है.  ध्यान रखें आज केवल वही पवित्र है जो पूजा घर में या मंदिर के गर्भगृह में है या पीपल के नीचे है बाकी कहीं कुछ नहीं है. कोई भी ऐसी प्रतिमा जो धार्मिक रीति रिवाजों से अलग है वह पवित्र नहीं है. सोचें कि पूजा के वक़्त कोलकता  के अखबारों में दुर्गा कि प्रतिकृति के साथ तरह तरह के विज्ञापन या, दक्षिण भारत में गणेश बीडी का रैपर या इस तरह की  ढेर सारी वस्तुएं किसी तरह की धार्मिकता का संचार नहीं करती. इसपर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती. पर इससे अलग ज़रा सी धार्मिक तरफदारी पर क्यों तन जा रहीं हैं मुट्ठियाँ? इसका कारण है धर्मं का राजनीति के लिए इस्तेमाल. यह आज हमारे देश में धीरे धीरे भयानक होता जा रहा है जो देश के विकास के लिए खतरनाक है और अगर इसे नहीं रोका गया तो यह शीघ्र ही हमारे पारंपरिक प्रतीकों कि ओर भी मुड़ सकता है. यह मान  कर चलें कि सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है. देश में पारम्परिक त्योहारों को अगर आनंददायी बनाना है तो धर्म और सियासत के इस मेल को रोकना होगा. चाहे आदमी  किसी सम्प्रदाय का हो अपने  समाज और परिवारों को बचाना उसका सबसे पुनीत कर्तव्य है. हुकूमत को इसमें दखलंदाजी ना करने दें.

तवाइफ़ कि तरह अपनी गलतकारी  के चेहरे पे

हुकूमत मंदिर और मस्जिद का पर्दा डाल देती है. 

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