इतिहास की पाठ्य पुस्तकों का पुनर्मूल्यांकन ज़रूरी
अभी हल में उत्तर प्रदेध के उपो मुख्या मंत्री एवं शिक्षा मंत्री दिनेश शर्मा ने कहा है कि उत्तर प्रदेश में इतिहास के पाठ्यक्रम से मुघलों के बारे में दी गयी बातों को हटाया जाएगा क्योकि वे लुटेरे थे तथा छात्रों को गलत जानकारी नहीं दी जायेगी. उनकी इस बात के पक्ष या विपक्ष में कई तर्क हैं पर स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद कई अनुसंधान सामग्रियां , विधि और नूतन निष्कर्ष हासिल हो रहे हैं तो इतिहास की एवं ऐतिहासिक तथ्यों की व्याख्या ज़रूरी है.
वैसे जबसे नरेन्द्र मोदी की सरकार सत्ता में आयी है तबसे अगर कोई हिन्दू की बात करता है खास कर इतिहास की तो उसे अकादमिक तथा बौद्धिक विरोध का सामना करना पड़ता है. यह एक फैशन बन चुका है. इसमें थोड़ी हकीक़त है तो थोड़ा गलत भी है. क्योंकि आज़ादी के पहले अंग्रेजों ने हिन्दुओं ऑयर मुसलामानों को दो राष्ट्र के सिधांत के नाम पर विभाजित कर दिया और आज़ादी के बाद जो इतिहासकारों की पीढ़ी आयी वह मार्क्सवाद से दीक्षित थी और उसने हर घटना को मार्क्सवाद के चश्मे से देखना शुरू किया साथ ही कुछ सत्ता के पिछलगू इतिहासकारों का एक गिरोह उभरा उसने उन्ही तथ्यों की अलग व्यख्या की. जो सत्ता के मुफीद लगा वह पाठ्यक्रम में शामिल हो गया.इसमें कई तथ्य गलत ब्धंग से पेश किये गए. यह तो समाज्विज्ञानिक तथ्य है कि समाज की गतिविधिया जातियों और समुदायों से प्रभावित होती हैं तथा भाषिक मुहावरे भी वहीँ गढ़े जाते हैं. यही मुहावारे अभिव्यक्त्यों के वाहक हैं तथा चिंतन का आधार हैं. अब आधुनिक इतिहास में मुसलामानों या इसाईयों द्वारा किये गए व्यापक धर्म परिवर्तन की पृष्ठभूमि में हिन्दू समाज की पीड़ा और उससे होने वाले क्रांतिकारी परिवर्तनों को इतिहास के पाठ्य पुस्तकों में कहीं नहीं दर्शाया गया है. हिंदुत्व की इसी पीड़ा ने आज़ादी के समर के दौरान सन्यासी आन्दोलन को जन्म दिया और वन्दे मातरम् और शक्ति की देवी के रूप में भारत माता के स्वरुप को मूर्तिमान किया. स्वतन्त्रता के बाद राजनितिक कारणों से हिन्दू मुस्लिम दंगों में कई बार मुस्लिम समुदाय की गलतियों के बावजूद उसे उतना दोइशी नहीं बताया गया. इसाई मिशनारियों द्वारा चुप चाप धर्म परिवर्तन की क्रिया को कहीं गंभीरता से उठाया नहीं गया. ऐसा मान भी लिया जाय कि उनमें ढेर सारे अफवाह थे जिन्हें हिन्दू समाज ने हवा दिया है इन दिनों , पर उनमें कुछ तो सच ज़रूर है. भारत के अतीत और वर्तमान में मुस्लिमो द्वारा आक्रमण और मंदिरों को तोड़े जाने के दौरान की गयी हिंसा को हमारे बड़े इतिहासकारों ने समुचित ढंग से उठाया नहीं. वामपंथ में दीक्षित इतिहासकारों ने हिन्दुओं को भी आर्यों की संतान बताकर आर्यों को हमलावर बना दिया और उस परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम हिंसा को जायज करार दे दिया. यही नहीं , रिचर्ड ईटन सहित कई इतिहासकारों ने मंदिरों को भंग किया जाना राजनीतिक हिंसा कहा.इन निष्कर्षों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है कि ये मुहावरे भारत की सहिष्णुता की महान परम्परा को अनदेखा करते हैं. शासक यदि धार्मिक है तो ईटन की ही थीसिस को मानें तब सियासत कैसे धर्म से अलग हो सकती है.
इस राज को क्या जाने साहिल के तमाशाई
हम डूब के समझे हैं दरिया तेरी गहराई.
विख्यात अर्थ शास्त्री प्रणब बर्धन के अनुसार भारत के बहुसामप्रदायिक तथा धर्मनिरपेक्ष होने का आदर्श विभाजन के बाद भारतीय सम्प्रदायों में वैमनस्य को ख़त्म करने के लिए तैयार किया गया. हो सकता है की उस समय इसकी ज़रुरत हो पर इससे जो नया मुहावरा बना वह है कि धर्म निरपेक्षता की मूल अधिकारी और उसकी आश्वस्तिदाता केवल कांग्रेस है और बाकी सब दक्षिण पंथी या वाम पंथी साम्प्रदायिक हैं. अरुंधती राय जैसे वर्तमान लेखक और विद्वान आज कल नक्सली और अल्पसंख्यक हमलों को प्रतिरोध की संज्ञा देकर आभूषित करने का प्रयास करते हैं. यह सच है की कांग्रेस ने बौद्धिक चमचों को आवान्तर सच प्रसारित करने के लिए पुरस्कृत किया. बी बी मिस्र और रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकारों कांग्रेस की डफली बजाने से इनकार कर दिया तो उन्हें पद त्यागने पड़े. लेकिन अब जब भा ज पा की सता है तो वह भी कुछ वैसा ही कर रही है जैसा कांग्रेस ने किया था.यह भी संघ के दरबारी इतिहासकारों को पुरस्कृत करने में लगी है और वे भी इतिहास के आवांतर सत्य को ही सामने लाने में लगे हैं. ऐसा लगता है कि देश में हिंदूवादी आन्दोलन शुरू होने वाले हैं. रामनवमी पर हथियारबंद जुलूस और विजयादशमी पर मुख्य मंत्री ममता बनर्जी की चेतावनिया हिन्दू आन्दोलनों के शुरुआत का भय पैदा कर रहीं हैं. इसे रोका जाना चाहिए.
ये जब्र भी देखे हैं तारीख की नजरों ने
लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई
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