आओ शपथ लें
पत्रकार गौरी लंकेश का मारा जाना भारत में पत्रकारों कि ह्त्या की कड़ी में एक और नाम जुड़ने के सिवा शायद ही कुछ हो सके. यह काण्ड भी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की फाइलों में दर्ज हो जाएगा , थोड़े दिन थोड़ी सरगर्मी रहेगी और फिर सब शांत हो जाएगा. एन सी आर बी के आंकड़े बताते हैं कि विगत दो वर्षों में इस देश में पत्रकारों पर 142 घातक हमले हुए हैं जिनमें 2014 में 114 तथा 2015 में 28 घटनाएं घटी हैं. पत्रकारों पर इन जानलेवा हमलों के सिलसिले में हमारे महान राष्ट्र की पुलिस ने महज 73 लोगों को गिरफ्तार किया है.इन घटनाओं में सबसे ज्यादा वाकये उत्तर प्रदेश में हुए जहां दो वर्षों 64 पत्रकारों कि हत्या की कोशिश की गई और इन सभी मामलों में (छि:) केवल 4 लोग पकडे गए. इसके बाद दूसरा नंबर है मद्धय प्रदेश का जहां 26 हमले हुए और इसके बाद बिहार जहां 22 हमले हुए. यह जानकर दुःख होगा कि नारद और विदुर जैसे समाचार प्रवीण लोगों की इस धरती का दुनिया में प्रेस की आज़ादी के मामले में 136 वां स्थान है जबकि एक साल पहले इसका 133 वां स्थान था. सिर्फ एक वर्ष में देश 3 सीढ़ी नीचे उतर गया. घर में अखबार अब किसी बुज़ुर्ग सा लगता है ज़रुरत किसी को नहीं , ज़रूरी फिर भी है लंकेश की हत्या के संदर्भ में पत्रकारों की हत्या पर ही सोचें, इनका दोष केवल इतना ही था कि इनहोंने सत्ता या सत्ता से जुड़े संगठन , समूह अथवा गिरोह की ओर अपनी कलम की नोक से इशारा किया था. इसी तरह लंकेश का दोष इतना ही था कि वह अपनी कलम से दक्षिणपंथी भगवा ब्रांड की मुखालफत करती थीं.चाहें वह गाय को लेकर हत्या हो या कलम को लेकर सबमें एक बात सामान दिखती है कि ऐसी घटनाओं के बाद कुछ जाने पहचाने लोग टी वी अथवा सोशल मीडिया में छा जाते हैं जो लगातार यह कहते हैं कि मामले को सांप्रदायिक ना बनाएं. उनका यह कहना कैमरे के सामने होता है या अक्षरों की तरतीब में होता है जो एक आभासी दुनिया में वर्तमान में ऐसा करने वालों को शाबाशी देता है तथा भविष्य में ऐसा करने के लिए सन्देश देता है तथा विरोधियों को चेतावनी भी. अगर कोई यह खुल कर कहता है कि हिन्दू धर्म या कहें सनातन धर्म अथवा उसके धार्मिक प्रतीकों को किसी से कोई ख़तरा नहीं है. वह हज़ारों वर्षों से कायाम हैं तो अपने बूते पर, सियासी चमचों के बल पर नहीं तो उसे गालियां मिलतीं है। वे समझते नहीं कि यूनानो मिस्र रोमा सब मिट गए इस जहां से क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी इन मोटरसाइकिल सवार हत्यारों कौन समझाए कि अगर हमारे यहाँ राम, शिव और विष्णु हैं तो चार्वाक मीमांसा भी है , सांख्य दर्शन भी है. हमारे ऋषियों को इससे कोई समस्या नहीं थी. सनातन धर्म में असहमति तो स्वीकार्य है. दक्षिण पंथी हिंदुत्व के विरोधियों पर हमले करने वाले ये लोग गौरवशाली परम्परा के भारतीय नहीं हैं बल्कि मॉल में बिकने वाले प्लास्टिक के गुड्डे हैं और यही बिम्ब का रूप धारण कर हमारे समाज को चलाने का जिम्मा ले बैठे हैं. ऐसे में अगर एक पत्रकार खून से लथपथ पड़ा है तो यह बहुत जरूरी है कि हम अच्छी पत्रकारिता के सिद्धांतों के प्रति उस खून की शपथ लें, क्योंकि यह एक साधारण हत्या नहीं है यह सबूत है कि हमारे राष्ट्र की आत्मा को चीर दिया गया है और ऐसी स्थिति में कलमकार चुप नहीं रह सकता है. कवियत्री कल्पना झा ने लिखा है हमें मजबूर ना करो वरना दुनिया की सारी कलमों की नोक तुम्हारी तरफ होंगी और तुम्हे चीर कर रख देंगीं. मनोवैज्ञानिक तौर पर हमें कायर और डरपोक बनाने की यह साज़िश है. मनोविज्ञानी बिल क्रोव्फार्ड ने एक बार कहा था कि “ सबसे अहम् चीजों को सबसे मामूली चीजों कि दया पर नहीं छोड़ दिया जाना चाहिए. “ हत्यारा चाहें जो भी हो वह हत्यारा है और फ्रेडरिक फोरसिथ ने “ द डे ऑफ द जैकल ” में लिखा है कि “”हत्यारा चाहें जो भी हो वह दुनिया का अपराधी है और उसे पकड़ा जाना चाहिए यह सोचे बिना कि वह किस राजनीतिक दल से जुड़ा है.” लेकिन अफ़सोस यहाँ बात उल्टी है , फोरसिथ की बात यहाँ लागू नहीं होगी भाई साहब. तेरा आदर्श तेरे मूल्य सारे बिक गए बापू तेरा लोटा तेरा चश्मा तेरा घरबार बिकता है.
Thursday, September 7, 2017
आओ शपथ लें
Posted by pandeyhariram at 7:21 PM
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment