CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Tuesday, September 12, 2017

कैसे समय में जी रहे हैं हम

कैसे समय में जी रहे हैं हम

पता नहीं आप पाठकों ने गौर किया है या नहीं लेकिन भारतीय के रूप में हम एक ऐसे मनुष्य समुदाय में बदलते जा रहें हैं जिसमें से मोह, माया, करुणा और नफासत जैसे भाव ख़त्म होते जा रहे हैं. अब पिछले हफ्ते कि ही मसल लें गोरखपुर और फरुखाबाद के बाद नासिक में बच्चे मरे, स्कूल के शौचालय में एक बालक का गला काट दिया गया, एक पत्रकार को उसके घर में ही गोली मार दी गयी. इन सब दुखद घटनाओं का नतीजा दो  ही दिखाई पड़ता है. या तो आप समस्त मानवता को तिलांजलि देकर सोशल मीडिया पर ज़हर उगलता मानव के छद्म रूप में दानव बन जाएँ और किसी की मौत पर ठहाके लगायें. दूसरी तरफ इन घटनाओं परे शोक ज़ाहिर कर गालियों और गुस्से का शिकार हो जाएँ तथा सोशल मीडिया में अपनी मौजूदगी को समाप्त  करने के लिए बाध्य हो जाएँ. “ एक दुनिया ” से खुद को हटा लेने का यह फैसला बौद्धिक  आत्मघात है. गौरी लंकेश की हत्या पर बहस ने अशालीन मोड़ ले लिया और पूरी खबर पर सोशल मीडिया में “ अश्लीलता” की हद तक टिप्पणिया कीं. किसी ने यह नहीं बताने का प्रयास किया कि उसने क्या लिखा था या क्या लिखा करती थी अथवा उसके क्या उसूल थे. सोशल मीडिया ने इस मामले में कार्य और कारण के समीकरण को ख़त्म कर दिया. एक पेड़ गिरा और हम शाखों में ही  कांव – कांव  करते रहे. एक ज़हर बुझे वातावरण में हम रह रहे है. अगर कोई यह कहता है कि ऐसा क्यों तो उसके चेहरे पर कालिख पोत  देने की  कोशिश की जाती है. उसकी आवाज़ दबा देने कि कोशिश की जाती है. आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जिसमें सैद्धांतिक विभेद लोगों पर थोप दिए जा रहे हैं. या तो इसे स्वीकार करो अथवा ख़त्म हो जाओ. यह आम आदमी के लिए मजबूरी का सबब बनता जा रहा है जबकि वह या उस जैसा पूरा समुदाय बिना किसी आइडियोलॉजी के भी जी सकता है. ऐसे लोगों की बहुतायत है जो आँख खुलते ही रोटी के कश्मकश में जुट जाते है. उनकी जिंदगी में सियासत का कोई अर्थ नहीं है. यदि हम ऐसे लोगों में से हैं जो ट्विटर पर अपना वक्त बर्बाद  करते, या वाट्सअप पर असत्य समाचारों की भीड़ को लेते देते नहीं हैं तो यकीनन आपके लिए सही बात चीत की कोई जगह नहीं है. अब जानबूझ कर अविश्वास पैदा किये गए वातावरण में रह रहे हैं., हर आदमी यही जानना चाहता है कि आप किसकी तरफ हैं.  आदमी आपकी सोशल मीडिया की पोस्ट से यही जानना चाहता  है. जाने पहचाने या अनजान लोगों से बात-चीत  हमेशा संदेह के दायरे में घिरी रहती है. कहीं जाईये अगर आप अपरिचित हैं तो वहाँ पहले से चल रही बात चीत या तो ठहर जायेगी या दूसरी ओर मुड़ जायेगी और ऐसा तबतक रहेगा जबतक वे मुतमईन ना हो जाएँ कि आप किस पक्ष के तरफदार हैं. आप किसी पुराने दोस्त से मिलिए अगर वह मुस्लिम है तो राजनीति पर बात से गुरेज़ करेगा. जब भी बात उठेगी तो वह इसे मोड़ने की कोशिश करेगा. सोशल मीडिया पर आपके कई दोस्त या जानकार मिल जायेंगे जो यह मनवाने की कोशिश करते दिखेंगे  कि अगर आप निष्पक्ष हैं तो “ राष्ट्र द्रोही “ हैं. यह दलील दी जायेगी कि पहले भी तो ऐसा होता था पर आप नहीं कहते थे, पर वे नहीं मानते कि पहले की गलतियों के आधार पर आज की गलती को कैसे जस्टिफाई किया जा सकता है. ऐसे लोग चुटकियों में आपको किसी ना किसी खांचे में फिट कर देंगे कि आप वाम पंथी हैं या कुछ और. कल तक आपके लिए लड़ पड़ने वाले बच्चे आज आपको मोदी विरोधी कह कर अलग हो लेते हैं. हो सकता है कि धीरे धीरे समाज का एक भाग जो विरोध में होगा वह भीतग्रस्त हो जाएगा, पेरोनिया नामक मनोरोग का शिकार हो जाएगा. लेकिन क्या करें जहां दोस्त दुश्मन बनता जा रहा है और हर आदमी दूसरे को भीतर से गलत समझ रहा है. हम ऐसे वक्त में जी रहे हैं. यह समझना मुश्किल है कि कैसे  एक आम आदमी स्थायी तौर पर विरोधी भाव लेकर जी सकता है. यह कितना क्लांत कर देने वाला काम है कि सुबह से ज़हर उगलने में लग जाइए. लेकिन  जो खुद को खुदा मानते हैं या श्रेष्ठ्तावादी भाव से ग्रस्त होते हैं वे निश्चय भाव से  ज़हर उगलते हैं और उसे ही सही समझते हैं.

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे

कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख  

        

0 comments: