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Wednesday, September 13, 2017

हिंदी : एकबार वैचारिक स्वाधीनता संघर्ष ज़रूरी  

हिंदी : एकबार वैचारिक स्वाधीनता संघर्ष ज़रूरी  

आज हिंदी दिवस है. कहने को तो हिंदी हमारे देश की भाषा है पर इसे अपनाने को लेकर काफी असुविधाएं हैं. अगर अन्यथा ना लें तो कहा जा सकता है कि इस असुविधा के लिए हमारी अबतक की  सरकारें ही दोषी रहीं है और आज भी हैं. इसे तकनीकी तौर पर राजभाषा कहते हैं. शायद आपको मालूम हो कि ना हो , भाषा किसे कहते हैं? भाषा वाचिक ध्वनि से शब्दों के अवगुंठन में  विचारों की  अभिव्यक्ति का साधन है. या कह सकते हैं कि भाषिक संचार की  प्रणाली है भाषा. अब इसे राज भाषा बनाने या कहने के पीछे नकारात्मक और सकारात्मक दोनों कारण है. 60 के दशक में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया. भारत बहुभाषिक देश है और इसकी समस्त भाषाएँ कही ना कहीं संस्कृत से जुड़ी हैं या कह सकते हैं कि संस्कृत उनकी गर्भनाल है. औपनिवेशिक काल में साज़िश के तौर पर संस्कृत को क्लिष्ट और प्राचीन भाषा कह कर हाशिये पर ला कर पटक दिया गया. अंग्रेजी अर्थकरी थी , आकाओं की  भाषा थी विकसित  होती गयी. आज़ादी  के बाद जो विशिष्टावादी थे उन्होंने अंग्रेजी को कायम रखने की कोशिश की. देश में राजनितिक परिवर्तन के बाद भाषाई बवंडर खडा होने लगा. वक्त के नेताओं ने दोनों को कायम रखा जो आजतक कायम है. हिंदी अभीतक रोजगार की  भाषा नहीं बन सकी इसलिए उसकी दुरावस्था कायम है.

सोचिये कि आज़ादी के 70 वर्षों के बाद भी शिव के तीन नामों को अंग्रेजी में लिख कर कोई करोडो पीट लेता है और कोई विष्णु के सहस्त्र नाम हिंदी में लिख कर उसे प्रकाशित करने के लिए घूमता रहता है.

इस दुरावस्था की  मनोवैज्ञानिक ,समाजशास्त्रिय और दार्शनिक व्याख्याएं भी है लेकिन सबसे व्यवहारिक इसके भीतर निहित ऊर्जा है. निसंदेह हिंदी के मूल संस्कृत से जुड़े हैं जो हज़ारों वर्ष पुरानी भाषा है पर एक स्वतंत्र भाषा के तौर पर हिंदी की उम्र बहुत कम है. यह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसने  अपनी  छोटी उम्र में ही दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य की नीव को झकझोर दिया. इतने ही कम समय में इसने भारतीय मनुष्य, उसकी मनीषा  और उसके  आत्मबोध से वह सम्बंध स्थापित कर लिया जो  राष्ट्रीय चेतना का पर्याय बन  गया। हिंदी चूँकि संस्कृत से जुड़ी है इसलिए यह केवल भाषा ना होकर एक संस्कृति की स्मृति  का स्वप्न भी है. हमारी स्मृतियाँ  पश्चिमी सभ्यता और अध्ययन विधा के अनुरूप अतीत की भांति व्यतीत नहीं है यह अतीत का आगे बढ़ता हुआ वर्तमान है. यही कारण है कि हमारी स्मृतियाँ इतिहास की झंझा से तहस नहस नहीं हुईं. हीगल और मैक्समूलर जैसे इन्डोलोजिस्ट  स्वर्णयुग के हमारे इतिहास को खंडहरों में दफन एक काल बताने की कोशिश करते रहे और वैज्ञानिक प्रमाणों ने दिखाया कि

पुरन्दर ने पवि से लिखा है , अस्थि युग का मेरा इतिहास

सिन्धु सा विस्तृत और अथाह , एक निर्वासित का उत्साह

दे रही अभी दिखाई भग्न , मग्न वह रत्नाकर में राह

हमारे पूर्वजों ने खास कर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उन इन्डोलोजिस्टों को बताया कि हमारा भारत कोई ग्रीक या रोमन सभ्यता के अवशेष नहीं है यह एक जीवित संस्कृति है हमारी भाषा जीवित मन्त्र है और हमारी लिपि ब्रम्हांडीय प्रकाश तरंगों का दृश्यात्मक अपौरुषेय स्वरुप है. जिन संगीतमय तत्वों को हमारे ऋषियों हज़ारों साल पहले समझ लिया था उसे आज के भौतिक शास्त्री विज्ञान के माध्यम से समझ रहे हैं. विख्यात इतिहासविद ए एल बषम ने अपनी पुस्तक “ वंडर दैट वाज इंडिया” में लिखा है कि “ प्राचीन भारत की महत्तम उपलब्धियों में से एक उसकी विलक्षण वर्णमाला है.” जिस भाषा की  वर्णमाला इतनी विलक्षण है उस भाषा कि ऊर्जा का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है. हिंदी की ऊर्जा का आकलन करने के बाद आतंकित मेकॉले ने कहा था कि “ वैचारिक स्वतन्त्रता कि जडें हिंदी में निहित हैं और इसलिए ज़रूरी है कि इन जड़ों को उखाड़ कर ही अंग्रेजी को विक्सित किया जा सकता है.” हिंदी हाशिये पर चली गयी और ऐसी साजिश रची गयी कि आम भारतीय अंग्रेजी के चश्मे  से हिंदी को देखने लगा. नतीजा यह हुआ कि जब हिन्दी कि बात होती है तो हमारे विद्वान उसे संस्कृत से जोड़ कर व्याख्यायित करने लगते हैं. वक़्त के हाकिमों को बहाना मिल जाता है और हिंदी को अवरुद्ध करने के लिए तरह तरह के बहाने गधे जाने लगते हैं. इसके विपरीत सच तो यह है कि हिंदी जिसे हम कड़ी बोली कहते हैं आधुनिकतम भाषा है. अधिकांश हिदी साहित्य की रचना हुई है,  महज डेढ़ – पौने दो सौ साल पुरानी है. गुप्त जी से लेकर निराला जी तक लेखकों और  कवियों को अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के लिये स्वयं कि काव्यात्मक भाषा खुद गढ़नी  पड़ी थी. यानि इसका इतिहास दो सौ साल से भी कम है.अब इसकी ऊर्जा का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इतनी कम अवाधि में इसने अपना संवेदनात्मक तंत्र विकसित कर लिया.इतनी समेवेदनशील और उर्जस्व भाषा पर बात करने के लिए साल में महज 15 दिन हम बहस करते हैं. आयोजन करते हैं और उसके विकास कि बात करते हैं. है। जिस भाषा ने भारतीय स्वतंत्रता चेतना का प्रतिनिधित्व किया वही भाषा  स्वतंत्रता के70 साल बाद भी गंभीर हीनभावना से मुक्त नहीं हो पायी है. भाषा सरकारी अनुदानों कि बैसाखियों पर नहीं चलती है और ना आयोजनों में आत्म प्रशासाओं के बल पर विकसिट  होती है. इसकी संजीवनी शक्ति का स्त्रोत ऊपर से नहीं नीचे से ऊपर की  ओर जाता है. इसकी शक्ति का केंद्र वहाँ है जहां समाज के संस्कार और स्मृतियां वास करती हैं. हिंदी कि उय्र्जा का यही कारण है . हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसके दसो सतह हैं. एक वह जो हम बोलते हैं ,जिसके माध्यम से हम संवाद करते हैं और दूसरा वह जो भाषा का आत्यंतिक तात्विक स्वरुप है जो सतह के नीचे वास करता है और हमारे बोले हुए शब्दों में प्रतिध्वनित होता रहता है. औपनिवेशिक काल में इसी सतह को ख़त्म कर देने की  कोशिश की गयी. हिंदी का यह सनातन स्त्रोत धीरे – धीरे सूखता चला गया. नतीजतन  हमारी शिक्षा पद्धतियों और हमारे कार्यकलापों में हिंदी भाषा गौण हो  गयी। पराधीन भारत में देश की चेतना का आज कि बौद्धिक दासता  से तुलना करें तो महसूस होगा कि  उस समय हम ज्यादा आजाद थे। हमारी भाषा में हमारा विश्वास और उससे प्यार कहीं ज्यादा गहरा था. आज जिस तरह हम हिंदी के विकास की बात करते हैं उससे लगता है कि हमें अभी वैचारिक स्वाधीनता हासिल नहीं हुई है. इस स्वाधीनता के लिए एक बार फिर संघर्ष करना होगा.

 

        

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