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Monday, October 30, 2017

जायज है हर बात सियासत में

जायज है हर बात सियासत में

हमारा देश निर्माण कि  राह  पर चल रहा देश है. किसी देश या समाज  के ऐसे चरण में व्यवस्था के मुखौटे के ठीक नीचे वाली परत में हिंसा कायम रहती है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब व्यवस्था नाम कि परत दरकती है तब हिंसा का विद्रूप चेरा दिकने लगता है. इस कि मिसाल देने कि ज़रुरत नहीं है.  दूर ना जाकर पिछले हफ्ते की ही घटना देखें. गुंडों के एक गिरोह ने फतहपुर सिकरी में एक जवान स्विस जोड़े को बुरी तरह पीता. यही नहीं गाय के एक व्यापारी को इतना पीटा  गया  कि उसकी मौत हो गयी, या जब एक कम उम्र लड़की से अमानुषिक बलात्कार हुआ. दुखद तो यह है कि जब इस घटना का जिक्र आता है तो सोशल मीडिया में लोग कहने लगते है कि एक घटना को मिसाल नहीं बनाया जा सकता है, कि ऐसा तो पहले भी होता आया है , कि दूसरे देश में भी ऐसा होता है  वगैरह वगैरह. इसके अलावा पूरा मुल्क चुप रहता है. यह कोई नहीं कहता कि राजनीतिक नेता अपने राजनितिक उद्देश्य कि पूर्ति  के लिए  क़ानून को तोड़ना मरोड़ना बंद करें. संयोगवश आज हमारे देश कि बड़ी नेता की मृत्यु वार्षिकी है. उन्हें उनके ही अंगरक्षकों ने गोलियों से भून दिया तह. उनकी मौत के बाद राजनीतिज्ञों और पोलिस कि सांठ  गाँठ से निर्दोष लोगों कि बर्बर ह्त्या कर दी गयी. इस घटना के 30 वर्ष बीत गए लेकिन आज भी उस नेता कि याद में अखबारों में विज्ञापन छपते हैं लेकिन उनकी मौत के बाद मारे जाने वाले लगभग 3000 सिखों को कभी याद नहीं किया जाता. इसमें सबसे दुखद तो यह है कि इस  खून खराबे का “ प्रबंध “ सेकुलर कांग्रेस ने किया था. अपनी प्रिय नेता कि ह्त्या का बदला लेने के लिए. जो लोग उन दिनों दिल्ली में होंगे या जिन्होंने उन दिनों का अखबार देखा होगा उन्हें सड़कों पर पड़ी लाशें , जलते वहां और विलाप करती महिलाओं कि सूरतें  भूली नहीं होंगी. ट्रकों पर लाड कार ले जाई जा रही अकड़ी हुई लाशों का वह मंज़र अभी भी आखों के सामने नाच रहा होगा. इस खून  खराबे के बाद राजीव  गांधी  क़ानून का पक्ष लेने की बजाय इस हिंसा के औचित्य का  बताने  में जुट गए. यही नहीं इस घटना के अपराध में किसी भी राजनीतिज्ञ , पुलिस अधिकारी , या शासकीय अधिकारी को आज तक सजा नहीं मिली. यही नहीं अधिकाँश भारतीय नागरिकों ने इस मामले में जुबान बंद रखी. सरकार पर कभी भी पर्याप्त दबाव नहीं पडा. विरोधी दल के नेता भी केवल भाषण देते रह गए.

आज कोंग्रेस विपक्ष में है. आदर्शवादी भाषण देने की  उसकी बारी है आज. जब भी गोरक्ष्कों के हाथों कोई गौ विक्रेता मारा जाता है या किसी गुमनाम दक्षिणपंथी आदमी  के हाथ कोई वामपंथी लेखक या बुद्धिजीवी मारा जाता है तो भा ज पा नेता इस पर  राष्ट्रवाद , हिन्दुगौरव इत्यादि का मुखौटा चढ़ा देते हैं.  सबसे बड़ी विडम्बना है कि हमारी डो बड़ी सिआसी पारित्यों में से कोई भी संभवतः यह नशी समझ पा रही है कि हिंसा से केवल हिंसा ही पैदा होती है और इसपर सबका असर आरम्भ होने लगता है. तानाशाही देशों  में क़ानून लागू करना फ़ौज का काम है अतः जो इसे भंग करते हैं उसे फ़ौज गोली मार देती है , लेकिन भारत कि तरह लोकतांत्रिक राष्ट्र यह कार्य पुलिस के हाथों में सौंपा गया है. दुःख तो इस बात का है कि हमारे सियासी नेता अक्सर पुलिस के काम में दखल देते हैं. नतीजा यह होता है कि बेहतरीन पुलिस अधिकारी भी क़ानून को सख्ती से लागू करने में हिचकता है. लोकतंत्र में कई निषेध और संतुलन हैं. हमारे यहाँ लोकतंत्र का अर्थ है हर 5 साल में वोट देने का मौक़ा. अगर देश को बचाए रखना है तो इसे बदलना होगा. ऐसा करना कठिन नहीं है. क्या करना होगा, पुलिस में कैसे बदलाव लाना होगा  इसके लिए रोजाना हज़ारों शब्द लिखे जाते हैं. जिसमें बढ़ चढ़ कर बताया जाता है कि पुलिस को सियासती दखलंदाजी से अलग रखा जाना चाहिए. लेकिन ये सारे शब्द गृह मंत्रालय की दीवारों के भीतर घुट कर रह जाते हैं. जब भी यह सवाल उठता है तो रता रटाया जवाब मिलता है कि क़ानून और व्यवस्था राज्य सरकार का विषय है. ऐसा है भी और नहीं भी. जब किसी राज्य में मुख्य मंत्री और प्रधान मंत्री एक ही पार्टी का होता है तो वे एक टीम की तरह काम करते है. उदाहरणस्वरुप  , इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय का एक आदमी राजस्थान में मारा जाता है  या एक स्विस जोड़े को यू पी में पीटा  जाता है तब राज्य सरकार के साथ साथ प्रधानमन्त्री की भी जिम्मेदारी बनती है कि इसपर करवाई करें. स्विस जोड़े पर हमला इतना शर्मनाक था कि विदेश मंत्री को हस्तक्षेप करना पडा और बयान देना पड़ा. इसलिए ऐसा कुछ भी नहीं कि प्रधानमन्त्री कुछ ना करें या  करने का अधिकार नहीं है.  लोकतंत्र में क़ानून  का कडाई से पलालं करवाना उतना ही ज़रूरी है जितना चुनाव. यह सब जानते हैं कि चुनाव के दौरान राजनीतिज्ञों कि शह पर गुंडे बूथ दखल कर लेते हैं. बाद में इन गुंडों ने सोचा कि एव दूसरों के लिए क्यों बूथ दखल करेंगे और खुद सियासत में कूद पड़े तथा चुनाव लड़ने लगे. इन्म्वें से कुछ संसद में बैठ गए कुछ विधान सभाओं में. अतः कानून के लागू होने कि उम्मीद ही क्यों करें ? 

Sunday, October 29, 2017

 खोना अर्थ एक शब्द का

 खोना अर्थ एक शब्द का

अगर किसी से पूछा जाय कि इन दिनों देश में सबसे प्रचलित शब्द कौन सा है तो नब्बे प्रतिशत लोग कहेंगे सियासत या राजनीति. कभी यह शब्द शासन चलाने कि विधि के रूप में प्रयुक्त होती थी आज किसी का बुरा करने के लिए होती है. चाणक्य ने कहा था जब तक एक किसी राज के एक आदमी  की  आँखों में भी आंसू है तबतक समझ लें की उस राज का राजा कामयाब नहीं हो सकता है.

एक आंसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है

तुमने देखा नहीं  आँखों का समंदर होना

लेकिन इन दिनों राजनीति शब्द के मायने बदल गए हैं है. पुराना आदर्श अर्थ धीरे धीरे लुप्त होता जा रहा है. पहले राजनीति का अर्थ सकारात्मक था और अब यह नकारात्मक हो गया है. अगर आप किसी को कहें कि वह राजनीती कर रहा है तो इसका मतलब वह आपके साथ या किसी अन्य के साथ धूर्तता कर रहा है. वह चालबाज है. अगर किसी से कहें कि  फलां आदमी राजनीतिज्ञ है तो समझ जाएगा कि वह सत्ता के लिए दौड़ धूप करने वाला एक निहायत धूर्त इंसान है तथा श्रोताओं को वही सूना रहा है जो उन्हें पसंद है ,  इससे कभी नहीं समझा जाएगा कि उस फलां आदमी ने राजनीती का करियर चुना है. शायद किसी ने गौर नहीं किया है कि शब्द के बदल गए इस अर्थ के पीछे क्या साजिश है? कई तथाकथित बुद्धिजीवी जमात में   यह फैशन है कि वे राजनीति को गंदे और स्वार्थी राजनीतिज्ञों के सन्दर्भ में परिभाषित करते हैं. यह केवल गलत ही नहीं है बल्कि बेहद खतरनाक  भी है.गलत इसलिए कि कोई भी व्यवस्था या समाज राजनीती के बगैर कायम रह ही नहीं सकता और  बेहद खतरनाक इसलिए कि यह समाज के मानस में जो लोकतान्त्रिक स्पेस है उसे समाप्त कर वहाँ अत्याचारपूर्ण और अधिनायकवादी व्यवस्था के लिए जगह तैयार करना है. राजनीती शासन का विग्या और कला दोनों है. यह समाज में जटिल सहसंबंधों का समायोजन करता है. अरस्तु इसे शासन का मामला कहते थे और उनके बाद के राजनीति विज्ञानियों ने यह समझदारी का विज्ञान है जिसका उपयोग सार्वजनीन मामलों में होता है. जो लोग इस अर्थ समाप्त कर नवीन आर्थ देने में लगे हैं वे समाज के साथ घात कर रहे हैं और भविष्य बिगाड़ रहे हैं. राजनीती केवल व्यवस्था या समाज के लिए ही ज़रूरी नहीं है बल्कि इसका उपयोग हर काल में होता आया है. इसी कारण से धर्म कभी राजनीति का आधार नहीं बन सकता है. क्योंकि राजनीति समय समय पर बदलती है और हर संधर्भ में उसके कार्य- कारण बदल जाते हैं. यही नहीं यह मामलों को वर्तमान सन्दर्भ में उसकी सम्पूर्ण जटिलताओं के साथ समझने कि ओर इशारा करता है. दलील डी जा सकती है कि आज के कई राजनीतिज्ञ राज्नेदेती में रहने के योग्य नहीं है. डोनाल्ड ट्रंप के त्वीट्स या शनिवार को मध्य प्रदेश के राज्नीत्ग्य के सी डी के लेकर चला विवाद उन जैसे लोगों कि अयोग्यताओं  कि ओर साफ़ इशारा करता है. परन्तु इस निष्कर्ष पर आने वाले लोग बिलकुल सहीं हैं . यह मान कर चलें कि राजनीति के बगैर किसी समाज का वजूद कायम नहीं रह सकता और किसी भी तरह की राजनीति विचारों के बगैर नहीं टिक सकती. विचार उसे नहीं कहते हैं जो भ्रमित हो और तयशुदा ज्ञान की  रिसाइक्लिंग  पर आधारित हो. सूचना ज्ञान नहीं है और गरमा गरम बहस चिंतन नहीं है. चिंतन के लिए एकांत चाहिए. डिजिटल संचार शान्ति और चिंतन को समाप्त कर रहे है हैं. आज डिजिटलाइजशन का इतना शोर है पर पर यह विकास नहीं है. यही नहीं यह लोकतान्त्रिक राजनीति के लिए बाधाकारी भी है. कम्प्युटराईजेशन या डिजीटलाईजेशन मानव जीवन और श्रम  के मशीनीकरण का दूसरा स्वरुप है. मशीनीकारन  का यह स्वरुप 18 सदी में आरम्भ हुआ था उसके पहले नहीं था. उस समय जो मशीनें थीं वे एक जटिल औज़ार हुआ करती थीं. वे मानवश्रम से जुडी  थीं. 18 वीं सदी में पहलीबार मानव श्रम को स्थानांतरित किया. मशीनों को हटाने कि बात चली थी आन्दोलन हुए थे लेकिन उन्हें दबा दिया. इसका पोःला नतीजा हुआ कि बेकारी बढ़ने लगी. यह पूंजीवादियों के पक्ष में गया. मशीनें वेतन बढाने के लिए हड़ताल नहीं कर सकता  हैं. कंप्यूटर और मशीनें मानव श्रम को व्यर्थ बना रहीं हैं और श्रमहीन मानव विप्लव के बारे में ना सोचे इसलिए सियासत का अर्थ बदला जा रहा है. मशीनीकरण रफ़्तार पर जोर देता है. यह संचार से भौतिक गति तक के लिय लागू होता है. जैसे ढोल बजा कर मुनादी बनाम  मोबाइल फोन. डाक से चिट्ठी बनाम इन्टरनेट से ई मेल या घोड़ा बनाम जेट विमान. इंसान अब चिंतन का माध्यम नहीं रह गया है. इंसानी भविष्य को इसका मूल्य चुकाना ही होगा.

 

Friday, October 27, 2017

डोकलम में गूँज

डोकलम में गूँज

चीनी कमुनिस्ट पार्टी कि 19 वीं कांग्रेस में चीन के राष्ट्र्पति सही जिन पिंग ने अपने संबोधन में चीन को महाशक्ति बनाने के लिए अपने विचार प्रकट किये हैं. उन्होंने बताया है कि कैसे चीन “ समन्वित राष्ट्रिय शक्ति और अंतरराष्ट्रीय  प्रभाव के मामले में दुनिया कि अगुवाई करेगा. यह चीन के  राजनीतिक नेतृत्व के लिए पञ्च साल कि शुरुआत है. इस शुरुआत का असर भारत चीन सीमा पर दिखाई पड़ने लगा है खास कर के डोकलम में. कुछ दिन पहले डोकलम में जो हुआ वह तो सब जानते हैं लेकिन यह बहुत कम लोगों को मालूम है की जिस स्थान पर वह जिच पैदा हुई थी चीन अभी भी उसी स्थल के पास है और अपने को विजयी बता रहा है. साथ ही वह समय का इन्तजार कर रहा है. भारत के वायु सेना प्रमुख चीफ एयर मार्शल बी एस धनोआ ने उम्मीद ज़ाहिर की कि चीनी सेना अपने ग्रीष्मकालीन अभ्यास के लिए चुम्बी घाटी में मौजूद है वह सर्दियों में अपने मूल स्थान में चली जायेगी. राष्ट्रपति शी के भाषण के प्रभाव के रूप में सेना को पक्का यकीन है कि 4000 किलोमीटर लम्बी वास्तविक नियंत्रण रेखा कई स्थलों पर चीनी सेना घुसपैठ करेगी. हालांकि शी ने अपने भाषण में कहा है कि “ चीन किसी देश के लिए ख़तरा नहीं बनेगा” पर उन्होंने चीन के क्षेत्रीय अखंडता कि भी बात कही है. उन्हों चीनी सेना – पीपल्स लिबरेशन आर्मी – से कहा है कि वह आधुनिक तकनीक अपनाए क्योकि हमले का  क्षमता का मूल है तकनीक.  चीनी सेना और राष्ट्रपति शी के तनाव को देखते हुए कहा जा सकता है कि देश में जो भी बदलाव आते हैं उनका असर सीमा पर होता है. विगत दो वर्षों में राष्ट्रपति शी ने सेना के कमांड में बदलाव कर  पी एल ए के अधिकार छीन  लिए. 2015 में शी ने सेना में काफी परिवर्तन किये. इन परिवर्तनों से सैनिक जनरलों की गुटबाजी कम हो गयी और उनका प्रभाव भी ख़त्म हो गया.  उन्होंने डोकलम से चीनी सेना को पीछे हटाने के नाम पर भी कूटनीतिक सफलता पायी. देश के लोग उसे चीन की विजय मान रहे हैं. अब वे पार्टी पर शिंकजा कसने कि तैयारी में है. चीन के प्रमुख हितों में खुद को निर्णायक साबित करना उनके हित में है. चीन के अतीत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वह क्षेत्रीय झगड़ों को स्थायी रूप दे देता है. डोकलम को ही देखें , चुम्बी घाटी में चीनी फ़ौज को लाया ही इसीलिए गया कि वह डोकलम में जैम जाय. हुआ भी वैसा ही. 2012 में  जो हुआ उसी को देखें. स्कारबोरो शोआल में फिलिपिन्स के साथ जो हुआ वह तो इतिहास में दर्ज है. अब सवाल उठता है कि  स्कारबोरो शोआल  की घटना की पुनरावृत्ति होगी क्या ?  दर असल भारत ने डोकलाम में यही नहीं होने देना चाहता था. चीन डोकलम कि तीनमुहानी पर अपनी तरफ से सड़क बनाना चाहता था.भारत ने उसे रोका. रोकने की  इस क्रिया में  भारत ने जो असाधारण दिखाई वह चीन की इसी आदत के कारण थी. फिलिपिन्स के साथ जो हुआ उसकी भारी  कीमत चुकानी पड़ी थी. राष्ट्रपति शी ने अपने भाषण में इशारा किया है कि चीन के हित को आघात पहुंचाने वाली किसी भी स्थिति को मानने के लिए कोई हमें बाध्य नहीं कर सकता है. सीमा सड़क निर्माण में चीन अपना हित मानता है और डोकलम में उसकी मौजूदगी का कारण सड़क ही है. इधर भारत का अमरीका की ओर झुकाव , हिन्द महासागर में भारत की मुखरता  और चीन के ग्रैंड प्लान का सख्ती से विरोध अपने आप में समर्नितिक तौर पर बहुत कुछ कहता है. अतः यह संभव है कि चीन डोकलम में नहीं किसी और इलाके में आजमाएगा. अगर ऐसा होता है तो वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बहुत कुछ सदा के लिए  बदल जाएगा. यह समा को कैसे असर करेगा यह तो अभी कहना मुश्किल है. राष्ट्रपति ने जो अपना ग्रैंड विजन जाहिर किया उससे लगता है कि इसके प्रभाव सीमा पर व्यापक होगा. 

बन्दूक से नहीं बनी बात तो ....

बन्दूक से नहीं बनी बात तो ....

मोदी जी ने चुनाव प्रचार के समय कश्मीर और पकिस्तान के मामले में अपनी बहादुरी का जो समां बांधा था और साढे  तीन वर्षों में उन्होंने कश्मीर मामले में जो किया उसे सबने देख लिया. इसी स्तम्भ में सन्मार्ग ने बहुत पहले सरकार से अपील की  थी कि बन्दूक की नाल से यह मामला नहीं सुलझ सकता तो “ भगतों “ को बड़ा नागवार लगा था और वे गाली गलौज पर उतर गए थे. आज मोदी सरकार ने वही किया. हालांकि यह बेहद महत्वपूर्ण घोषणा मोदी जी ने नहीं की  बल्कि गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने की. मोदी जी फौजियों के साथ दिवाली मनाने गुरेज चले गए थे. राजनाथ सिंह कि घोषणा के मुताबिक़ “ भारत सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर श्री शर्मा बातचीत करेंगे और कश्मीर कि जनता की वैध  अपेक्षाओं के को समझने का प्रयास करेंगे. “ इस घोषणा से यह साफ हो गया कि मोदी सरकार ने स्वीकार  किया है कि बन्दूक की नाल से कश्मीर की  समस्या का समाधान नहीं नहीं हो सकता  और इसके ल्लिये नेता तथा जनता में वार्ता ज़रूरी है. अब यहाँ इमानदारी से यह स्वीकार करना होगा कि मोदी सरकार इस ज़ोर आज़माइश में 19 पड़  गयी है. कश्मीर में सत्तारूढ़ गठबंधन में भा ज पा भी शामिल है और जबसे यह सरकार सत्ता में आयी है तबसे भा ज पा कि जिद्द थी कि मामला बल पूर्वक सुलझा लिया जाएगा. इसके लिए सुरक्षा बालों को छूट दे दी गयी. सुरक्षा बालों पैलेट गन का प्रयोग किया जिससे कई लोग स्थायी तौर पर अंधे हो गए. देश के किसी कोने मैं ऐसा नहीं नुआ था. बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां  हुईं जिसमें आम आदमी भी शामिल था जो निर्दोष था. यहाँ तक कि शव यात्राएं भी बाधित हुईं और उसमें शामिल लोगों से धक्का मुक्की की गयी. कहा गया कि आतंकवादी आम आदमी का छद्म रूप धर कर  में आते हैं और जनता को आतंकवादियों से सहानभूति है. अब जबकि सरकार ने वार्ता कि घोषणा की और वार्ताकार के रूप में अपना प्रतिनिधि खुफिया बुरो के पूर्व प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को नियुक्त किया तो इससे यह साफ़ ज़ाहिर हो गया कि कश्मीर कि इच्छाशक्ति को बंदूकों से नहीं तोड़ा जा सकता, सरकार को वार्ता के लिए कदम बढाने ही होंगे. हकीक़त तो यह है कि एक ऐसी जनता के लिए जो 1980 से लगातार गवाँती आ रही है अब उसके पास खोने के लिए कुछ रह नहीं गया है. धरती का यह स्वर्ग खून के छीटों से बदसूरत हो गया है , केसर कि क्यारियों में बारूद कि गंध बस गयी. फ़ौजिउओन पर निर्दोष लड़कियों तथा महिलाओं से बलात्कार के भी आरोप लगे. हाँ यह सही है कि जनता भी दूध की धुली नहीं है. उन्होंने पाकिस्तानी घुसपैठियों को पनाह मुहैय्या कराई और उन्हें मदद की . पकिस्तान समर्थक जनता ने भी फौजियों पर कम जुल्म नहीं किये.वार्ता के लिए उठाया गया भा ज प् यह कदम यकीनन सबके लिए स्वागत योग्य होगा, खास कर जम्मू कश्ज्मेइ कि जनता के लिए. ऐसे कदम अतीत में भी उठाये जा चुके हैं. पूर्व प्रधानमन्त्री नर्सिंग्राओ का जूमला ही  था  वार्ता के संभावनाएं असीम है. वाजपेयी जी कहा करते थे “ इंसानियत के दायरे में.” यहाँ तक कि पूर्व प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह भी कश्मीर गए थे और वार्ता कि पहल की थी. एक बार जब कश्मीर विधान सभा ने स्वायतत्ता का प्रस्ताव पास किया था र्ताब कांग्रेस ने विरोध किया था और इस प्रस्ताव कि निंदा की थी. यह तय है कि पूर्व खुफिया प्रमुख दिनेश्वर शर्मा कश्मीर कि समस्या पर गंभीरता से सोचेंगे और उसे समझने कि कोशिश करेंगे. यह 1947 से राजनितिक मसला रहा है और इसके तार ना केवल दिल्ली से जुड़े हैं बल्कि इस्लामाबाद से से भी जुड़े हैं. यही नहीं भा ज पा के महासचिव राम माधव ने भी अतीत में इसके समर्थान में कहा है .  इस नियुक्ति का मतलब है कि दिल्ली में कुछ बदल रहा है और राजनाथ सिंह भी अपना अधिकार प्रदर्शित कर्ट रहे हैं यह लोकतंत्र के लिए अच्छी बात है. फिलहाल इसके नतीजों कि चर्चा करना या कुछ निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी. देश कि जनता इसके नतीजों कि प्रतीक्षा  में है. 

विदेशी जासूसी एजेंसियों से सरकार ले रही है काम

विदेशी जासूसी एजेंसियों से सरकार ले रही है काम

कई विपक्षी राजनीतिज्ञों पर लगाए गए गुप्तचर , राष्ट्रीय  स्वायतत्ता को भरी ख़तरा

हरिराम पाण्डेय

कोलकता : आर्थर कानन डायल या स्टेनली गार्डनर अथवा हमारे  शरदेन्दु बनर्जी के कथानकों की भांति हमारी सरकार भी निजी विदेशी जासूसों कि सेवाएं ले रही है. सरकार का कहना है कि विस्देशों से बेतहाशा पूँजी के आगमन के कारन होने वाली कठिनाईयों का  सरकारी एजेंसिया मुकाबला नहीं कर पा रहीं है इस लिए विदेशी जासूसों कि सेवाएं ली जा रही है. सरकारी सूत्रों का कहना है कि विगत कुछ वर्षों में विदेशों से भारी पूँजी को आमंत्रित किया गया जिससे आर्थिक घोटाले इत्यादि की  जांच के लिए देशी सुरक्षा एजेंसियों को तैयार नहीं किया जा सका. अब सरकार की इस अदूरदर्शिता के कारण अत्यन सवेंदनशील जांच का काम विद्सेशी जासूसों को सौपा जा रहा है. जहां तक खबर है कि ये जासूस उन विदेशी प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसियों से जुड़े हैं जिन्हें उन देशों  की  सरकारी एजेंसिया परदे के पीछे से चलाती हैं. सी आई ए और मोसाद पूरी दुनिया में इसके लिए बदनाम है. मसलन अमरीकी जासूसी एजेंसी पिनकर्टन एंड क्रोल को परदे के पीछे से सी आई ए चलती है और हमारी राष्ट्रवादी सरकार इस एजेंसी की  सेवाएं लेती है. यही नहीं न्यूयार्क की मिन्त्ज़ ग्रुप, कैलिफोर्निया की बर्कले रिसर्च ग्रुप इत्यादि सेवाएँ ली जा रहीं हैं. मिन्त्ज़ के ताल्लुकात पाक अधिकृत कश्मीरी संगठनों से है इसका खुलासा पहले भी हो चुका है. इन अजेंसिओं को भारतीय रिजर्व बैंक, सी बी आई , इन्फोर्समेंट डाईरेकटोरेट , सेबी जैसी संस्थाएं आर्थिक घोटालों की  जांच इन कंपनियों को सौंप रही है. सूत्रों के अनुसार जिन राजनीतिज्ञों कि जांच करवाई जा रही है उनमें विपक्ष के कई बड़े राजनीतिज्ञ भी शामिल हैं.  हाल ही में एक निजी एजेंसी के सहयोग  से , आयकर  विभाग के बड़े अधिकारिओं , शीर्ष राजनीतिज्ञों और मुंबई , दिल्ली , अहमदाबाद , एवं वडोदरा के बड़े व्यावसायियों  का नाइजीरिया , दुबई , ब्रिटिश वर्जिन आईलैंड और अमरीका में काले धन को सफ़ेद करने का कारोबार पकड़ा  गया. इस जांच में आयकर अधिकारियों का एक दल भी शामिल था. इस दल को एक डायरी भी हाथ  लगी है जिसमें कई संदेहास्पद लेनदेन दर्ज है लेकिन उसमें  जिन राजनीतिज्ञों या व्यापारियों के नाम दर्ज हैं उनसे पूछ ताछ नहीं की गयी है.

   यहाँ एक सवाल उठता है कि बड़े राजनीतिज्ञों और व्यापारियों से जुड़े मामले क्या इन विदेशी एजेंसियों को दिए जा रहे हैं? ये विदेशी एजेंसियां किनके हित में काम कर रहीं है . इस तरह की गतिविधियों पर देश कि स्वायतत्ता को लेकर बड़े अधिकारी चिंता जाहिर कर रहे हैं. पाठकों को स्मरण होगा कि पिछले साल सन्मार्गने अमरीकी जांच एजेंसी एफ़ बी आई  के अफसरों के कोलकता में आकर पूछताछ करने सम्बन्धी एक खबर दी  थी. यह कदम राज्य सरकार को काफी नागवार लगा था. एफ बी आई को कोलकता आने की  न भारत सरकार के गृह विभाग ने अनुमति दी थी ना राज्य सरकार ने. बाद मेंसन्मार्ग की  जांच से पता चला कि उसे एन आई ए ने आने की  अनुमति दी थी.  

       सन्मार्ग को पता चला है  कि राष्ट्रीय संप्रभुता को प्रभावित करने वाला एक समझौता एन आई ए ने एफ बी आई से किया है और इसके लिए प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने अनुमति दी  है.एजेंसी से एजेंसी के बीच के इस समझौते के अनुसार एफ़ बी आई  को “जांच” के लिए जब चाहे भारत आ सकता है. इसके लिए किसी कि अनुमति की ज़रुरत नहीं है.

पिछले महीने सन्मार्ग ने एक रहस्यमय खुलासे के तहत अपने पाठकों को बताया था कि किस तरह सी आई ए कि पहुँच भारतीय आधार कार्ड के डाटाबेस तक है. भारतीय आधार कार्ड प्राधिकरण ने सी आई ए के पूर्व निदेशक जार्ज टेनेट कि कंपनी “ एल -1 आइडेंटिटी” से किया था . इस कंपनी के अन्य निदेशक हैं एफ बी आई के लुईस फ्रीह , होम लैंड सेक्युरीटी के पूर्व कार्यकारी निदेशक एडमिरल लॉय  इत्यादि. क्या इस डाटाबेस को विदेशी गुप्तचर एजेंसियों को इसलिए दिया गया है कि वे भारत में भारतियों पर जासूसी करें. यह देश कि स्वायतत्ता पर दूरगामी प्रभाव डालेगा.