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Wednesday, January 10, 2018

आठ-आठ चुनाव का साल, कर्ज और मौतें

आठ-आठ चुनाव का साल, कर्ज और मौतें

आंकड़े बताते हैं कि अच्छे दिन लाने का वादा करके आयी सरकार के पूर्ण प्रतापी काल 2015 में 8007 किसानों ने आत्म हत्याएं कीं, उनमें से 40 प्रतिशत कर्ज में डूबे हुये थे। भारतीय जनता पार्टी गुजरात में विधानसभा चुनाव में ग्रामीण क्षेत्रों की 16 सीटें हार गयी। यह कृषि अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली के कारण उपजे गुस्से का सबूत है। इस वर्ष 8 राज्यों में चुनाव होने वाले हैं जिनमें तीन राज्य -  छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान  - में  भाजपा का शासन है और ये मूलत: कृषि प्रधान राज्य हैं। हालातों के अध्ययन से मालूम होता है कि किस तरह गंवई कर्ज, विपदा और मौतों का सिलसिला  देश भर में बड़ता जा रहा है। मौसम के समय निश्चित नहीं हैं और खेतों में खुदकुशी और मौसम के बदलाव में सीधा सम्बंध दिख रहा है। मौत और मौसम का यह रिश्ता 2019 के आम चुनाव में शायद प्रमुख मुद्दा रहेगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह वादा कि वे 2022 तक किसानों की आय दोग्काुनी कर देंगे, शायद ही कोई इस पर विश्वास करे। क्योंकि  2016 के बजट भाषण में वित्तमंत्री अरुण जेटली  यह जुमला आजमा चुके हैं। 2011 की जनगणना  की  रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान , मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ सामूहिक ग्रामीण आबादी 12 करोड़ 36 लाख है। यह आबादी मैक्सिको की आबादी के बराबर है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में किसानों में बेचैनी बढ़ रही है। वे अनाज के कम समर्थन मूल्य से ​चिंतित हैं। उनहोंने सरकार से कर्ज माफी की अपील की है जबकि सरकार ने समर्थन मूल्य बढ़ाने का आश्वासन दिया है। किसानों की प​ीड़ा और बेचैनी अभिव्यक्ति को इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि किसानों की खुदकुशी की दर क्या है। 2015 में 8007 किसानों ने आत्म हत्या की यह दर 2014 के 5630 से 41।7 प्रतिशत ज्यादा थी। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्युरो के रिकार्ड बताते हैं कि 2014 में आत्म हत्या करने वाले 20।6 प्रतिशत किसान कर्जों से दबे थे। 2013 के आंकड़े बताते हैं कि गांव की कुल आबादी के एक तिहाई लोग औसतन 1।03 लाख रुपये के कर्ज में फंसे थे। यह रकम एक बुलेट 350 सी सी मोटर सायकिल की​ कीमत से कम है और आई फोन एक्स की कीमत के बराबर है। यह हमारे देश में अमीरी और गरीबी के बीच की दूरी का सीधा उदाहरण है। दुखद बात तो यह है कि देश की 68।8 प्रतिशत आबादी गरीब है। किसानों पर जो कर्ज है उनका 56 प्रतिशत बैंकों और अन्य संस्थाओं का है तथा बाकी के 44 प्रतिशत सूदखोर महाजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों का है। इनमें अधिकांश पेशेवर सूदखोर महाजनों का हिस्सा है। इससे पता चलता है कि गांवों में अभी कर्ज की व्यवस्था में महाजनों का वर्चस्व है। सबसे ज्यादा आत्महत्या करने वाले किसान उन्हीं राज्यों के हैं जो सम्पनन हैं। मसलन, महाराष्ट्र के 1229 किसानों ने 2015 में खुदकुशी की जबकि इसी अवधि में कर्नाटक में 46 तथा तेलांगना में 632 किसानों ने आत्म हत्या की। 

  विगत कुछ सालों से खेती से जुड़े लोगों को समाज तिरस्कार की नजर से देखने लगा है। यह एक अजीब किसम का घृणित समाज वैज्ञानिक बदलाव है। कोई यह नहीं समझता कि किसान केवल अपने पेट भरने के लिये ही नहीं कर्ज लेता है और आत्म हत्याएं कर लेते हैं बल्कि वह तो देश भर का पेट भरनेके लिये यह दुख उठाता है। दिल्ली की तख्त पर बैठे लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला कि दूर गांवों में 43 किसान रोज आत्म हत्या कर रहे हैं। उन्हें यह पता ही नहीं है कि उनका उत्पाद स्थानीय बाज़ार में बिक नहीं पा रहा है, क्योंकि अन्तराष्ट्रीय बाजार से सस्ता उत्पाद भारत में लाने के लिए रियायतें दी जा रही हैं। मध्यप्रदेश में किसानों को बिजली देने के लिए एक साल में सरकार लगभग 85 अरब  रुपये का भुगतान बिजली कंपनियों को करती है; लेकिन फिर भी किसान के खेत सूखे ही रह जा रहे हैं। उन्नत खेती के नाम पर सारे बीज बड़ी बीज कंपनियों को सौंप दिए गए। देशज बीजों का अकाल सा पड़ गया है। अब किसान को ऊंची दरों पर बाजार से बीज खरीदना पड़ता है। यह साफ़ दिखाई दे रहा है कि किसानों द्वारा खरीदा जाने वाला 30 से 40 फीसदी बीज नकली होता है। उपज नहीं होती और पूरा निवेश बर्बाद हो जाता है; पर क़ानून भी मौन रहता है और व्यापक समाज भी।नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाईजेशन के अध्ययन- सिचुएशन असेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चर हाउस होल्ड्स के मुताबिक, भारत में 9.02 करोड़ परिवार खेती पर निर्भर है। राज्यों में इसका स्तर अलग-अलग है। पश्चिम बंगाल में यह योगदान 30प्रतिशत और केरल में34 प्रतिशत है, तो वहीँ हरियाणा में 73प्रतिशत और मध्यप्रदेश में 76प्रतिशत है। ऐसे में स्वाभाविक है कि खेती करने वालों को राज्य का संरक्षण मिलना चाहिए; परन्तु हो इसके उलट रहा है। उत्पादन लागत बढ़ रही है, मौसम के बदलाव से लगातार फसलें बर्बाद हो रही हैं, कारपोरेट खेती को संरक्षण मिलने से छोटे और मझोले किसान भूखे मरने की स्थिति में हैं। किसानों को खेती  के संकट से उबरने का विकल्प ही नजर नहीं आ रहा है। 

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