हमारे दयनीय शिक्षण संस्थान
दो साल पहले सर मेघनाद देसाई से मुलाकात हुई थी ओर उन्होंने बताया कि वे लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पड़ाते हैं। उनके कहने का ढंग कुछ ऐसा था मानो हम सब बहुत " इन्फींरीयर " हैं। लंदन विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाने वाली एक मैडम से अक्सर बातें होती हैं पर जब वह अपने विश्वविद्यालय का नाम लेती हैं तो उनकी आवाज में एक अजीब गर्व होता है। यह जे उनमें अभिमान है हमारे देश के विश्वविद्यालयों के शिक्षकों में क्यों नहीं है? क्या प्रतिभा या विद्वता के स्तर पर हमारे शिक्षक उनसे कम हैं? नहीं। ऐसा इसलिये है कि हमारे शिक्षण संस्थान अपनी जरूरतें खुद पूरी करने में असमर्थ हैं और इसके लिये वे राज्य सरकारों पर निर्भर हैं। इसलिये राज्यसरकारों के अपढ़ मंत्रियों के तलवे सहलाते रहते हैं। उनकी आधी उर्जा अपने संस्थान की सियासत से लड़ने में खत्म हो जाती है। उनकी हालत यह है कि वे डिग्री देने जैसे मूलभूत कामों में भी पूरी तरह खुदमुख्तार नहीं हैं। अभी कुछ दिन पहले की बात है कि मुम्बई विश्वविद्यालय में ऑन स्क्रीन माकिर्नंग सिस्टम फेल कर गया और इससे लगभग 5 लाख छात्रों का भविष्य खतरे में पड़ गया, 4 हाजार 565 प्रश्नपत्र गुम हो गये। इन छात्रों को औसत अंक देकर पास कर दिया गया। लेकिन इस औसत अंक से उनकी आगे की पढ़ाई चौपट हो गयी। यही नहीं अगले सेमेस्टर के शुरू होने एक दिन पहले तक लगभग 20 हजार छात्रों के पुनर्मूल्यांकन के नतीजे नहीं आये और अगले सेशन में उनकी पड़ाई बाधित हो गयी। इसका मुख्य कारण है विश्वविद्यालयों का अक्षम प्रबंधन। यही नहीं उससे सम्बद्ध कॉलेजों की बड़ी संख्या और उनके प्रबंधन का भी बोझ। मानवसंसाधन विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 268 मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों में से 17 विश्वविदलयों से अनुबंधित कालेजों की संख्या 500 से ज्यादा है। सुनकर हैरत होती है कि आगरा के भीमराव अम्बेडकर विश्वविदालय से 900 से ज्यादा कॉलेज जुड़े हैं कानपुर के छत्रपति साहू जी महाराज विश्वविद्यालय से 1177 कॉलेज जुड़े हैं। अत्यंत दयनीय बजट में चल रहे इन विश्वविद्यालयों में राजनीतिक दखलंदाजी ओर आंतरिक समस्याएं कुछ इतनी हैं कि वे तरक्की कर सर ही नहीं सकते। 12 वीं पंचवर्षीय योजना में सरकार ने इनमें सुधार के लिये कई विकल्पों की तलाश की पर वह सब अफसरशाही के लालफीतों में ही जकड़ी रह गयीं। विख्यात शिक्षाशास्त्री फिलीफ जी आल्टबैच ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर अपनी पुस्तक " क्राइसिस एंड स्टेटस क्यू " में साफ लिखा है कि " भारतीय विश्वविद्यालयों की प्रगतिहीनता का कारण उनपर पड़ने वाले अतिरिक्त बोझ और स्वायत्तता का अभाव है। " अपने देश में 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति तय की गयी थी औरइसे 1992 में अमल में लाया गया। उस नीति में यह कहाग् गया था कि स्वायत्त कॉलेज विकसित किये जाएं। यशपाल कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार कॉलेजों का ग्रेड तय किया जाय ओर जो अच्छे ग्रेड में कॉलेज हों उनहें पूरी छूट दे दी जाय। इससे नीचे के ग्रेड के कॉलेजों को भी ऊपर आने की प्रेरणा मिलेगी। यह हैरान करने वाली बात है कि हमारे मंत्रली या प्रधानमंत्री जी कभी शिक्षा की व्यवस्था पर गंभीरता से नहीं सोचते ओर यह जानने की कोशिश नहीं करते कि विदेशों की नकल करने पर अमादा हमारी व्यवस्था उन जैसे शिक्षा संस्थान क्यों नहीं तैयार कर रही है। दरअसल हम जिस स्वायत्तता पर काम कर रहे हैं उसमें ही दोष हे। ऐतिहासिक तौर पर सरकार शिक्षा को शासन का बंधुआ बनाने पर विश्वास करती है। जब तक उनहें मुक्त नहीं किया जायेगा और प्रगति करने के लिये नहीं छोड़ा जायेगा तबतक वह गौरव के शिखर तक नहीं पहुंच पायेगी।
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