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Sunday, January 28, 2018

हम क्या थे क्या हो गए आज

हम क्या थे क्या हो गए आज

बीते हफ्ते के आखिरी कुछ दिन को याद करें। 25 जनवरी गणतंत्र दिवस के ठीक एक दिन पहले जबकि बहुत से लोग इस बात का इंतजार कर रहे थे समाज सेवा और देश सेवा के लिए कितने लोगों को पद्मश्री और पद्मभूषण मिले वहीं दूसरी तरफ दिल्ली की सड़कों पर स्कूली बस पर पथराव  हो रहे थे। टेलीविजन पर इस घटना को देखकर यकीन नहीं आ रहा था कि हमारे देश में ऐसा हो रहा होगा। लेकिन, शिक्षक बच्चों से हिंदी में बोल रहे थे कि "सीट के नीचे छुप जाओ ताकि पत्थर और कांच के टुकड़े  ना लगें।" बात हिंदी में हो रही थी इसलिए लगा कि घटना भारत की है वरना महसूस हो रहा था किसी दूसरे देश में हो रहा होगा।  गणतंत्र दिवस के दिन उत्तर प्रदेश के कासगंज में सिर्फ इसलिए मारपीट हो गई कि एक संप्रदाय के लोग सड़क पर ध्वजारोहण कर रहे थे और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता उधर से मोटरसाइकिल जुलूस निकालना चाह रहे थे। दोनों पक्षों के हाथों में तिरंगे थे और दोनों लड़ रहे थे। इस घटना की भगौलिक स्थिति से दूर दावोस में हमारे प्रधानमंत्री दुनिया के सामने भाषण दे रहे थे कि "हमारा देश वसुधैव कुटुंबकम का समर्थक है " और उसकी पृष्ठभूमि में गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल होने के लिए विदेशी मेहमान भारत आ रहे थे।            पूरी घटना को एक साथ रख कर देखें तो बड़ा अजीब लगेगा,  मानो हम किसी अवास्तविक हॉरर फिल्म के बीच में पहुंचे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है देश में ? फिल्म रिलीज करने को लेकर मारकाट हो जा रही है और उसमें शामिल लोग या  मारकाट करने वाले लोग खुलेआम घूम रहे हैं । इन लोगों को गिरफ्तार नहीं किया जा रहा है। कानून और व्यवस्था को बनाए रखना सरकार का कर्तव्य है लेकिन ऐसा लग रहा है कि जो सरकार के पक्ष में है वह इससे मुक्त है। कभी यह लोग गो रक्षकों के वेश में आते हैं, तो कभी ऐसे राष्ट्रभक्तों के वेष में कि जो उनके  मत का समर्थन ना करते हों वे दूसरे राष्ट्र के गुप्तचर या दलाल हैं या समर्थक है और उन्हें खत्म कर दिया जाना चाहिए। वे कभी दलितों और अल्पसंख्यकों के विरोध में खड़े दिखाई पड़ते हैं। लेकिन इन सारी स्थितियों  में अंतर्निहित जो तथ्य है वह है एक खास किस्म की गुंडागर्दी जो सरकार के समर्थन से चलती है। हर बार हिंसा होती है कभी प्रधानमंत्री देश के सामने तो कभी ट्विटर पर माफी मांग लेते  हैं और इसे विपक्षी दलों के षड्यंत्र की संज्ञा देकर हाथ जोड़ लेते हैं या कभी चेतावनी देते हैं। यह अविश्वसनीय है कि वे जिस राजनीतिक दल की ओर इशारा करते हैं वह लोक सभा में  बमुश्किल 44 सीटें बचा पाया है और वह इस स्तर पर इतने व्यापक फसाद का षड्यंत्र कर सकता है । 
    इस पूरी घटना के मनोविज्ञान का अगर विश्लेषण करें तो स्पष्ट पता चलता है कि कुछ लोग ऐसे हैं जो सत्ता में रह कर भी निहित स्वार्थ के लिये इन उपद्रवियों को मदद कर रहे हैं । उपद्रवियों को  लगातार आश्वासन मिल रहा है जो कुछ हो रहा है इससे उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। पूरे देश में एक खास किस्म का आतंक व्यापा हुआ है और ऐसे में प्रधानमंत्री दावोस जाते हैं और विदेशी निवेशकों से अपील करते हैं कि वे भारत में निवेश करें। एक विदेशी निवेशक , जो भारत के बारे में यहां की समाज व्यवस्था के बारे में बहुत कम जानता है । उसे इन फसादों को समझने में बड़ा वक्त लगेगा। वह समझ नहीं पा रहे हैं इसका मतलब क्या है। बेशक प्रधानमंत्री उन निवेशकों के अगवानी में गलीचे बिछायें  लेकिन उन्हें तो ऐसा लगता होगा कि उन गलीचों के नीचे खंजर छिपे हुए हैं। वे नहीं समझ पा रहे होंगे कि यह हो क्या रहा है?   प्रधानमंत्री का दावोस से स्वदेश लौटना और गणतंत्र दिवस समारोह में विदेशी अतिथियों का स्वागत करना इस चकाचौंध से जरा आगे बढ़ कर यह जानने की कोशिश तो करें कि आज हमारे बच्चे आजादी और लोकतंत्र के बारे में क्या समझते हैं ? उन्हें क्या मालूम है कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस में क्या फर्क है?  शायद नहीं फेसबुक पर तिरंगे लेके तस्वीर लगा देने और शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के अलावा उन्हें कुछ नहीं मालूम है कि साल भर में इसके अलावा और क्या होता है? इन्हें नहीं मालूम है कि " हिंदू और मुसलमान की जगह बड़े और मोटे अक्षरों में भारतीय क्यों लिखा जाना जरुरी है?" प्रधानमंत्री कहते हैं भारतीय सभ्यता दुनिया की प्राचीनतम सभ्यता है, लेकिन जरा  ठहरिए  और  समझिए  यह देश है क्या, हमारे गणतंत्र की खूबी क्या है? अगर हम इसे नहीं जानते तो फिर इतने फसाद क्यों ?इतना प्रचार क्यों?  एक तरफ कहा जाता है कि" कुछ बात है जो हस्ती मिटती नहीं हमारी " और दूसरी तरफ कहा जाता है कि "जरा सोचें कि हम क्या थे और क्या हो गए आज।"

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