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Wednesday, January 17, 2018

हंसी की कमी से पीड़ित है समाज 

हंसी की कमी से पीड़ित है समाज 

इस देश को ध्यान से देखें। ऐसा महसूस होता है कि विद्वानों, नौकरशाहों और राजनेताओं को ऊनकी गंभीरता से तौला जाता है। वे एक निराशाग्रस्त वातावरण के लिए काम करते हैं, और अपने इस कार्य पर  नीति का लेबल चस्पा करते हैं। सोचिये  हंसी कहां गई? हँसी आज कई लबादे  पहनती है मसलन, आपकी हंसी से किसी की भावनाओं को आघात ना लगे, या यह कानून और व्यवस्था को बिगाड़ ना दे, या यह राजनीतिक रूप में विद्रूप ना हो इत्यादि - इत्यादि। ऐसा लगता है कि शासन और नागरिक समाज के बीच हंसी का स्कोप ही नहीं रहा। हंसने वाले या हंसाने की कोशिेश करने वाले को राष्ट्रद्रोही तक कह दिया जा रहा है। पहले विश्वयुद्ध के आसपास इस बौद्धिक धैर्य का आरंभ हुआ था और इससे ऊब कर फ्रांसीसी लेखक ने पैटाफिजिक्स यानी सामाजिक यथार्थ का काल्पनिक सिद्धांत का आविष्कार किया था। यह एक टकाल्पनिक बिम्ब था जिसने धीरे-धीरे अपना वजूद खो दिया। हंसी अभी बी जीवतत है पर अब विध्वंसक होती जा रही है। हँसी कभी भौतिकीविदों, साहित्यकारों ,कलाकारों और दार्शनिकों के बीच बातचीत में एक अनवरत पक्रिया थी। रवींद्र नाथ टैगोर और आईंस्टीन के मुलवाकात के दौरान खुलकर हंसने वाली तस्वीर तो अभी भी ऐतिहासिक है।  यह उनके रूपकों की तरह उनके  खुश संस्कारों में बसी थी। ऐसा नहीं है कि इन पुरुषों और महिलाओं ने त्रासदी का सामना नहीं किया। वे वास्तव में महसूस करते थे कि हिंसा को हँसी कुंद कर देती हैं। उन्होंने सांस्कृतिक टुकड़ों को बनाए रखने के लिए विभिनन  रूपक के तौर पर हँसी का इस्तेमाल किया था। लेकिन अब जैसा कि हम देखते हैं ऐसा लगता है कि भाषा ने फैसला किया है कि वह हँसी बर्दाश्त नहीं कर सकती। मजाक इन दिनों जीवन में खासकर भारतीय जीवन में यह एक प्रकार का व्यंग्यपूर्ण और स्टाइलिश विषाद है। राजनीति इसका एक उदाहरण है। जिस तरह सत्तापक्ष और विपक्ष काम करते हैं उसे देख कर उनकी हंसी  सब कुछ मिथ्या बना देती है, यहां तक ​​कि जिज्ञासा को भी। ऐसा लगता है कि हर समूह अपनी पहचान की पेटी बांध कर हंसने वाले से दो- दो हाथ करने को तैयार है। पद्मावती जैसी काल्पनिक कथा पर भी हमले होते हैं। अखबारों में छपे व्यंग्य चित्रों को लेकर फसादात हो जा रहे हैं।  हंसी के  विरूपण या व्यंग्य,  चंचलता की भावना की आवश्यकता होती है जो रचनात्मक संभावनाओं के द्वार खोलता है।लेकिन हमारा अब समाज है जहां हम काल्पनिक अपमान पर भी एक-दूसरे को से गुत्थम गुत्था हो जाते हैं। एक  समय में हम रूढ़ीवादी थे और हमारे रूढ़िवाद ने हमें मानव बना दिया। आज हम विकसित लोग हैं लेकिन एक मजाक ,एक दंगा या एक कार्टून  गृहयुद्ध को बढ़ावा दे सकता है। बातचीत में हंसी खो गयी है। ऐसा लगता है कि वर्तमान शासन ने निर्णय लिया है कि हर अवधारणा आधिकारिक है और उसे कोई ना कोई वर्दी पहननी चाहिए या किसी खेमे के सामने खड़ा होना चाहिये। । एक अवधारणा को डिजाइन करने के लिए  कानून की आड़ ली जाती है।  हंसी सचमुच धारा 144 के के तहत आ गयी है जसां छह लोगों के एक साथ नहीं हंस सकते हैं।  चुटकुले गायब होते जा रहे हैं। सरदारजी के चुटकुले ही लें आज कोई भी सार्वजनिक रूप से उन्हें बोलने की हिम्मत नहीं करेगा। हंसी की अनुपस्थिति में एक विडंबना है। दफ्तरों में लोग काम करते हुये ठहाके लगाते थे आज हंसना मना हो गया है। भारत में नैतिकता हंसी का आखिरी बचा क्षेत्र था। राजनीति का क्षेत्र देखें तो गांधी चाहे नैतिकतावाद​ी हों या ना हों पर विनोदी थे इससे इंकार नहीं करेगा। वास्तव में, गांधी को नैतिकता और हास्य का एक सामान्य रहस्य पता था। धर्मनिरपेक्षता एक नैतिकता को धार्मिकता के रूप में बदलती है, जिसे हिंदूवादी मोर्चों ने मुसलमान और ईसाइयत के खांचे में डाल दिया। एस्केटिसिज़म में होने की एक  लपट है यह स्वयं पर लागू होता है, सद्भाव और स्वैच्छिकवाद से बाहर वह  एक अनुशासन पैदा करता है। तपस्या में एक सहजता है जो  प्युरिटन प्रदर्शित नहीं कर सकता है। यह उनकी नैतिकता और हंसी की भावना थी जिसके बल पर वे साम्राज्य को नीचे ला सके थे। आज हँसी की अनुपस्थिति की सबसे बड़ी त्रासदी बचपन है। बचपन और स्कूल लगभग सैन्यवाद का एक रूप बन गया है। प्रतिस्पर्धी परीक्षाओंऔर आईआईटी- मेडिकल के  मिथक ने किसी भी नीति व्यवस्था से बचपन और हँसी को नष्ट कर दिया है। विफलता के डर से बच्चे हंसी की संस्कृति को खो देते हैं। आज चार्ली ब्राउन, एस्टरिक्स, तेनाली राम या यहां तक ​​कि डेनिस द मेनस विदेशी आंकड़ों की तरह दिखता है क्योंकि हम अपनी हंसी की क्लासिक भावना खो रहे हैं।आज जो कुछ भी हो रहा है वह हम एक दूसरे की छवियों को दर्पण में देख रहे हैं।  आज जो त्रासदी है वह सिर्फ हंसी से ही समाप्त हो सकती है। आज के भारत का मध्यवर्ग अपने पर ही हंसना भूल गया। यही कारण है कि सुरक्षा और देशभक्ति जैसे विचारों को वह गंभीरता से लेता है, वह आतंकित है।  हम कम हंसी की एक भावना से पीडित हैं। 

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