भारत में शिक्षा
हर साल देश में शिक्षा की स्थिति पर रिपोर्ट जारी होती है उसने लंबी लंबी बातें होती हैं ,आंकड़े होते हैं और बाद में उन आंकड़ों पर बहस होती है। इस वर्ष भारत में हालात कुछ दूसरे और ऐसा लगता है इस पर अलग से सोचना जरूरी है। यह वर्ष ऐतिहासिक रूप से शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पहली बार शिक्षा का अधिकार प्राप्त बच्चे आठवीं तक पहुंचे हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2010 में बना था। यानी, ये बच्चे 8 वर्ष तक स्कूली शिक्षा में रहे हैं। अब हम बहुत अच्छी स्थिति में है कि इनके बारे में गंभीरता से सोचें कि 8 बरस स्कूली शिक्षा में बिताने के बाद इन बच्चों में क्या-क्या बदला है।
देश में शिक्षा की स्थिति के लिए दो आंकड़े हैं पहला ए एस ई आर और दूसरा जिलावार शिक्षा रिपोर्ट, जिसे नेशनल अचीवमेंट सर्वे ( एन ए एस)कहते हैं। अभी हाल में एन ए एस की रिपोर्ट जारी हुई। इस रिपोर्ट में आमतौर पर 14 से 18 वर्ष आयु वर्ग के छात्रों पर ध्यान दिया जाता है। यह रिपोर्ट देश के ग्रामीण क्षेत्रों पर ज्यादा फोकस करती है और इसमें बुनियादी शिक्षा के अलावा भी कई चीजों का आकलन किया जाता है। इसमें यह देखा जाता है कि बच्चे पढ़ने में कैसे हैं और गणित जैसे जटिल और उलझन भरे विषय को वे किस तरह समझते हैं। यह एक तरह से बच्चों के समझने के मनोविज्ञान का आकलन किया जाता है । ए एस ई आर की रिपोर्ट में गणित और उसके संदर्भ में दैनिक जीवन में छात्रों के विकास का आकलन किया जाता है। उसमें यह नहीं देखा जाता है कि कोई छात्र परीक्षाओं में कैसा नंबर लाया है। आठवीं कक्षा के छात्र कुछ ऐसे होते हैं जो छपे हुए पाठ को पढ़ लेते हैं लेकिन उसे समझते नहीं हैं। कुछ ऐसे होते जो नहीं छपता है उसे भी समझ लेते हैं। किसी भी चीज को खासकर गणितीय समस्याओं को समझने में सक्षम हो जाते हैं। 2017 के आंकड़े बताते हैं कि बच्चे अब ज्यादा समझदार और समस्याओं को सुलझाने में ज्यादा दक्ष हो रहे हैं। इन आंकड़ों को देखने से ऐसा महसूस होता है कि अब सामान्य शिक्षण से अलग सबके लिए शिक्षा पर जोर देना जरूरी है। हर साल वित्त मंत्रालय बजट तैयार करता है और उसके लिए विभिन्न स्तरों पर विचार-विमर्श करता है। हाल में ऐसे विचार विचार विमर्श के दौरान सुझाव दिया गया था कि शिक्षा विकास कोष मुहैया कराया जाए। यहां शिक्षा विकास का मतलब शिक्षण का विकास नहीं है, सीखने की प्रवृत्ति को विकसित करने से है और इसके लिए कोष। शिक्षा में विकास के लिए जरूरी है योजना प्रक्रिया में उसके लिए अलग से धन मुहैया कराया जाए। लेकिन जब बात स्कूल मुहैया कराने से शिक्षा मुहैया कराने की तरफ आती है तो समस्या उसके लागू होने में हो जाती है।
आज हमारे पास पर्याप्त आंकड़े हैं जिसके बल पर यह समझा जा सकता है कि भारत में शिक्षा का संकट खासकर सीखने का संकट बढ़ता जा रहा है। जबकि बच्चे सीखने को उत्सुक हैं। अब समय आ गया है कि शिक्षण और शिक्षा दोनों को विकेंद्रित कर शिक्षा पर विशेष बल दिया जाए जिससे बच्चों में वह गुण आ सके जिसका उद्देश्य शिक्षा में निहित है। यह रिपोर्ट का एक पक्ष है। ए सी ई आर 2017 की कमी यह है कि इस रिपोर्ट को एकतरफा कहा जा सकता है , क्योंकि इसमें देश के ग्रामीण क्षेत्रों को शामिल नहीं किया गया है । जिला राज्य स्तर राष्ट्रीय स्तर के आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं। यह रिपोर्ट देश के 24 राज्यों के 28 जिलों के सर्वेक्षण के आधार पर तैयार की गई है और इसमें 14 से 18 वर्ष के बच्चों को चुना गया है। उम्र के केवल 14.4 प्रतिशत बच्चे ही स्कूल या कॉलेज में पंजीकृत नहीं हैं,हलाकि उम्र बढ़ने के साथ-साथ इस संख्या में अंतर आना शुरू हो जाता है। मसलन, 14 साल की उम्र के केवल 5.3% बच्चे, 17 साल की उम्र के 20.7 प्रतिशत बच्चे तथा 18 साल की उम्र के तकरीबन 30.2% बच्चे हाई स्कूल में दाखिला नहीं ले पाते हैं। वस्तुतः इस सर्वेक्षण में देश के 10% आबादी ही शामिल है। यह आंकड़े गंभीर हालात की ओर इशारा करते हैं। इसके अलावा हाई स्कूल में नामांकन के मामले पर भी इस रिपोर्ट में प्रकाश डाला गया है। दाखिले में उम्र के साथ-साथ लड़कियों की संख्या में तेजी से कमी आने लगती है। एक ओर 14 वर्ष की आयु वर्ग के लड़के और लड़कियों का नामांकन अनुपात लगभग बराबर है वहीं दूसरी तरफ 18 साल की उम्र पहुंचते-पहुंचते 28% लड़कों की तुलना में 32% लड़कियां स्कूल कॉलेज जाना बंद कर चुकी होती हैं। एक और चौंकाने वाली बात है कि एनडीपी में के चलन में आने के बाद से बच्चों की सीखने की क्षमता लगातार कम होने लगी है । रिपोर्ट के मुताबिक कक्षा 5 के 48 प्रतिशत यानी कह सकते हैं कि लगभग आधे बच्चे क्लास 2 की किताब ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं। दूसरी तरफ गवई इलाके के तीसरी क्लास में पढ़ने वाले मात्र 45% प्रतिशत बच्चे सामान्य भाग बनाने में समर्थ होते हैं। ग्रामीण स्तर पर बच्चों में अंग्रेजी पढ़ने की क्षमता तेजी से कम हो रही है। रिपोर्ट के मुताबिक लड़कियां इसलिए स्कूल छोड़ती हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालयों का अभाव है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि स्कूलों में बड़ी संख्या में शौचालय का निर्माण किया गया है लेकिन सच तो यह है उनमें में से बहुत से शौचालय बेकार हैं। प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का मुख्य कारण शिक्षा पर होने वाले खर्च में भारी और असमानता है । चौंकाने वाली बात है कि केरल में प्रति व्यक्ति शिक्षा पर 42 हजार रुपए खर्च होते हैं जबकि बिहार और कई अन्य राज्यों में महज 6हजार रूपए । जनसंख्या के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 70% बच्चे पांचवी कक्षा के बाद पढ़ाई-लिखाई छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं । जाहिर है इसके लिए हमें समावेशी नीति बनानी होगी ताकि शिक्षा का उचित विस्तार हो सके। क्योंकि शिक्षा ही देश के विकास के लिए आवश्यक है।
Wednesday, January 31, 2018
भारत में शिक्षा
Posted by pandeyhariram at 5:25 PM
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