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Thursday, January 18, 2018

कश्मीर में अमन जरूरी है सर

कश्मीर में अमन जरूरी है सर
कश्मीर में हिंसा जल्दी खत्म होती नजर नहीं आ रही है।  इस पर बहुत चर्चा हो रही है कि पाकिस्तान कश्मीर में हिंसा को समर्थन दे रहा है और भारतीय राजनीतिक वर्ग उसे रोकने में समर्थ नहीं है। हालांकि इसके पीछे जो सबसे महत्वपूर्ण कारक हैं उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। वह कारक है , कश्मीर के दोनों तरफ के लोगों का समुदाय जो विदेशों में बसे हैं। खबरें तो यहां तक मिल रही हैं कि उस समुदाय के लोग कश्मीर आंदोलन को ना केवल आर्थिक समर्थन दे रहे हैं बल्कि व्यक्तिगत रुप से हथियार भी उठा रहे हैं। कश्मीर  के सबसे ज्यादा लोग पश्चिमी देशों में बसे  हैं। कश्मीर के इन क्षेत्रों से जो लोग इंग्लैंड या अन्य पश्चिमी देशों में बस गए हैं वे आतंकवाद  को बढ़ावा भी दे रहे हैं । हलांकि ,विदेश में बसे कश्मीरी लोगों द्वारा इस हिंसा को बढ़ावा  दिया जाना और उसके कारणों का विश्लेषण बड़ा जटिल है।  कश्मीर एक विवादित क्षेत्र है और जो विदेश में बसे हैं वह इस पार और उस पर दोनों कश्मीर के लोग हैं।  उनके अंदर यह भावना है कि अपने होम लैंड में चल रहे  युद्ध को हम समर्थन देंगे। इंग्लैंड में जो कश्मीरी रहते हैं उनमें ज्यादातर पाकिस्तानी हिस्से   वाले कश्मीर के निवासी हैं । ये 1960 में वहां से आकर बसे हैं। वे किसी आतंकवाद अथवा राजनीतिक दमन के कारण वहां से नहीं आए बल्कि मीरपुर क्षेत्र में बनने वाले मंगला बांध के कारण विस्थापित होने के फलस्वरूप यहां आकर बसे। लगभग 5000 मीरपुरी कश्मीरी इंग्लैंड आए। पाकिस्तानी सरकार के मुआवजे में उन्हें वहां से यहां पर बसने में मदद की। ब्रिटिश सरकार को सस्ते मजदूरों की जरूरत थी उन्हें इंग्लैंड में कपड़ा मिलों में काम मिल गया । मीरपुर से आए कश्मीर के लोगों में से ज्यादातर लोग ब्रैडफोर्ड में बस  गए।  दक्षिण  एशिया में निर्वासित लोगों पर किए एक शोध में बताया गया है कि इंग्लैंड में रहने वाले दो तिहाई पाकिस्तानी मीरपुर के हैं और उन्हें वहां मीरपुरी कहा जाता है। यह समुदाय राजनीतिक रूप में अत्यंत सक्रिय है। उनकी सक्रियता यूरोप के नीति निर्माताओं के मन में कश्मीर को बनाए रखने में सफल है। कश्मीर के आंदोलन से दिए धन उगाहने के काम के लिए यूरोप खासकर इंग्लैंड  केंद्र है। उनकी सक्रियता 1990 के बाद और बढ़ गई। 
उनकी सक्रियता का मुख्य आधार कश्मीर की आजादी है जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट कश्मीर को पाकिस्तान के एक हिस्से के रूप में नहीं बल्कि एक आजाद मुल्क के रुप में देखना चाहता है और उसका जबरदस्त प्रभाव था।
इसे भारतीय और पाकिस्तानी हिस्से यह कश्मीरियों का समर्थन प्राप्त था, लेकिन 1990 के बाद जब दूसरी पीढ़ी के नौजवान कश्मीरी वहां वर्चस्व में आए तो उन्होंने पाकिस्तानी कश्मीर को समर्थन देना आरंभ कर दिया। जो वहां चल रहे था  उनको मदद देनी शुरू कर दी। क्योंकि यह पीढी जवान थी इसलिए उन्होंने भारतीय क्षेत्र के कश्मीर में सेना के किसी भी कार्रवाई को मानवाधिकार के हनन का मामला  बनाना  शुरु कर दिया। इससे यह आंदोलन वहां की आम जनता की नजर में आया और इसका स्वरूप बदलने लगा।
जब तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तो  कश्मीर में हालात सुधर रहे थे।  पाकिस्तान से रिश्ते भी अच्छे हो रहे थे , लेकिन नरेंद्र मोदी जी के आने के बाद हालात बदलने लगे।  दिनोंदिन पाकिस्तान से रिश्ते तनावपूर्ण होने लगे। नतीजा यह हुआ कि इंग्लैंड में निवास कर रहे कश्मीरी मूल के लोग फिर से पाकिस्तान का समर्थन करने लगे।  तरह-तरह के बहस और गोष्ठियों के जरिये   ब्रिटिश आबादी को यह बताने में जुट गए कि कश्मीर में भारत जो कर रहा है वह गलत है। वे कश्मीरियत और उसके इतिहास का गलत संदर्भ देने  लगे । कश्मीर में अशांति बढ़ती गई और सेना के लिए कठिनाइयां भी उसी अनुपात में बढ़ती गई। कश्मीर की कथित आजादी का आंदोलन धीमा पड़ता गया।  अलगाववाद तेज होने लगा इसे विदेशी कश्मीरी समुदाय का मनोबल बढ़ा। दूसरी तरफ ,अति राष्ट्रवाद समर्थक हिंदू बहुलवादी राजनीति ने  इंग्लैंड में विभाजित कश्मीरी मूल के उत्तेजना पसंद लोगों को बढ़ावा दिया। भारत की मौजूदा सरकार ने कश्मीर के लिए कोई ऐसी योजना नहीं पेश की जो मरहम लगाने की तरह महसूस हो। ना ही आगे कोई उम्मीद दिख रही है। नतीजा यह हुआ कि इंग्लैंड में बसे कश्मीरियों में नरेंद्र मोदी सरकार के विरुद्ध रोष पैदा हो गया और उन्होंने उनका प्रत्यक्ष विरोध आरंभ कर दिया। हाल में मोदी की यात्रा विरोध किया था। 
मोदी सरकार की हिंदुत्व राजनीति विदेशों में बसे कश्मीरियों को और नजदीक ला रही है यह कश्मीरी मुसलमानों में खास किस्म का भय पैदा कर रही है। जम्मू के संघ  काडरों का मिथ्या प्रचारित  डर कि वे उनका सफाया कर देंगे, यूरोप में सक्रिय कश्मीरी लॉबी को बहुत तेजी से भारत विरोधी बनाता जा रहा है।  पाकिस्तान का समर्थन कर रहे विदेशी संगठन,  वहां के विभिन्न कश्मीरी संगठन और अन्य भारत विरोधी संगठन लगातार आपस में जुड़ रहे हैं। अभी कुछ दिनों पहले राष्ट्र संघ के कार्यालय के सामने इन्होंने भारत की मुखालफत करते हुए प्रदर्शन भी किया। यही नहीं, कनाडा में सिख और कश्मीर संगठन मिलजुल कर काम कर रहे हैं। मनमोहन सिंह ने भारत पाकिस्तान शांति प्रक्रिया शुरू की थी और उसमें अमेरिका तथा कनाडा के कश्मीरी संगठनों ने समर्थन  दिया था। कश्मीरी संगठनों के बीच मतभेद लगभग समाप्त हो रहा था। मोदी सरकार के आने के बाद यह प्रक्रिया खत्म होने लगी। हिंदू राजनीति का वर्चस्व के कारण  कश्मीर में लगातार अशांति शुरू हो गई।अब स्थिति यह है विदेशों में जो कश्मीरी हैं और उनके संगठन हैं वह सब के सब भारत वाले हिस्से के विरोध में हैं और उसे पाकिस्तान का एक हिस्सा बनाना चाहते हैं आज कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है उसके पीछे मुख्य कारण ही है विदेशों से मिलने वाली मदद।  अगर उसे रोक दिया जाए या सरकार उन्हें अपने पक्ष में कर ले तो कश्मीर घाटी में गोली या फौजी कार्रवाई की जरूरत नहीं पड़ेगी।

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