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Tuesday, January 2, 2018

अपनी हंसी में सबसे अलग  है बनारस

अपनी हंसी में सबसे अलग  है बनारस

सन्मार्ग का सफर बनारस से ही शुरू हुआ था कलकत्ता के लिये। इसलिये अगर जिक्र बनारस का ना हो तो सन्मार्ग के संघर्ष की गाथा अधूरी रह जायेगी।   सन्मार्ग का जिक्र हो और रामअवतार गुप्त जी का जिक्र ना हो तब भी बात पूरी नहीं होगी। गुप्त जी अपनी आत्म कथा " कर्म मार्ग धर्ममार्ग सन्मार्ग " में बड़े बेलौस ढंग से लिखते हैं कि " बनारस का प्रवासकाल ( 1946 से 1948 ) मेरा स्वर्णिम काल था। बनारस के अपने रंग हैं अपने ठाट हैं। मस्ती है , ऊर्जा है , फिकरेबाजी भी है , शिव की नगरी है , न्यारी काशी है।" कवि दिनेश कुशवाह लिखते हैं -

अगर गंगा न होती इसकी सहेली 

अड़भंगी ना होते इसके किरदार 

तो औरों की तरह कब का 

पत्थर हो गया होता बनारस।

बनारस का किरदार कुछ ऐसा है कि राम अवतार गुप्त उसे मस्ती भरा शहर कहते हैं तो मार्क ट्वेन कहते हैं कि "  Benmaras is older than histotry , older than tradition, older even than legend and looks twice as old as all of them put togather." कवि दिनेश कुशवाह लिखते हैं -

पहले पहल जब 

लोहे काठ और पत्थरों से मिलकर 

मनुष्य ने बनाये नगर 

नदियों ने दी सभ्यताएं 

तभी सिंदूरी बिन्दी की तरह 

धरती केभाल पर उग बनारस

उधर विख्यात कथा लेखक एवं उपन्यासकार काशीनाथ सिंह लिखते हैं कि " यही अस्सी मेरा बोधगया है और अस्सीघाट पर गंगा के किनारे खड़ा वह पीपल का दरख्त बोधिवृक्ष, जिसके नीचे मुझे निर्वाण प्राप्त हुआ था !" बनारसी मस्ती का यह आलम कि अगर किसी ने छेड़छाड़ की या फिकरेबाजी की तो ऐसा जवाब मिलता है कि बोलती बंद हा जाती है। कासी के अससी घट की मस्ती के बारे में कासी गुरू लिखते हैं कि " तुलसी दास हीं 

रहते थे और बुढ़ापे में  कुछ-कुछ ‘पिड़काह’ और चिड़-चिड़े हो चले थे। मुहल्ले वालों ने उनसे जरा भी छेड़छाड़ की, पिनक गए और शाप दे डाला—‘जाओ, तुम लोग मूर्ख दरिद्र रह जाओगे !’ मेरा मतभेद है कि  बाबा को  अगर  शाप ही देना था तो जाते-जवाते इनके हाथ ‘मानस’ पोथी क्यों पकड़ा जाते ? फिर भी ये कहते हैं, तो हम मान लेते हैं; लेकिन सरापकर भी क्या कर लिया बाबा ने ? माथे पर चंदन की बेंदी, मुँह में पान और तोंद सहलाता हाथ ! न किसी के आगे गिड़गिड़ाना, न हाथ फैलाना। दे तो भला, न दे तो भला ! उधर मंदिर, इधर गंगा; और घर में सिलबट्टा ! देनेवाला ‘वह’; जजमान भोंसड़ी के क्या देगा ? भाँग छानी, निपटे और देवी के दर्शन के लिए चल पड़े।" 

सावनी गंगा की तरह उठी होगी तरंग 

जब किसी युवा संन्यासी के मन में 

तो उसने ही रोपा होगा पहली बार 

काशी में तुलसी की जगह भांग का बिरवा।

अब का बताए गुरु ! जो शहर इतिहास से भी पुराना है उसके बारे में बताना कहाँ से शुरु करें? शिव-शक्ति के दम-दम और बाबा के बम-बम से गूँजते इस शहर के कई नाम है- काशी, अविमुक्तका, महाश्मशान, आनन्द-कानन, सुरंधन, ब्रह्मावर्त, सुदर्शन, रम्य । लेकिन यहाँ के लोगों की पहचान ‘बनारस ’ नाम से हैं। वर्तमान में इस शहर का नाम है- वाराणसी।चौसठ योगिनियों, बारह सूर्य, छप्पन विनायक, आठ भैरव, नौ दुर्गा, बयालीस शिवलिंग, नौ गौरी, महारुद्र और चौदह ज्योतिर्लिंगों वाला यह बनारस, देश की सांस्कृतिक राजधानी हैं ।  यही तो बनारस की सिफत है कि एक बनारस के भीतर कई बनारस हैं। एक बनारस जो घाटों के किनारे बसा है । एक बनारस जो चांदपुर में रहता है जिसे छोटा कानपुर कहते हैं। एक बनारस जो लंका में खरीदारी करता हे। यह यहां का कनाट प्लेस है। एक वो बनारस जो रामनगर में रामलीला खेलता है। मालूम है राम नगर की लस्सी जो कोलकाता के बनारसी लस्सीवालों कीजुबान को भी मीठी कर जाती है। 

बनारसियों का भौकाल और मस्त-मौला व्यवहार दुनिया को अपने ठेंगे पर रखकर जीने के अंदाज को बयां करता है । गंगा नदी के किनारे बनारस को बसना था या इस नदी को बनारस के किनारे बहना था! मालूम नहीं,क्योंकि बनारस ही एकमात्र ऐसी जगह है जहां गंगाउल्टी दिशा में यानि दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है । कभी घाटों की सिढ़ियों पर अठखेलियां करती हुई, तो कभी चमकीले रेत पर चढ़ती-उतराती यह पवित्र नदी सभी धर्मों में पूज्यनीय है । ‘गंगा’ सब धर्मों और कौमों की ‘मां है । इसकी हर बूंद में बनारस घुला है।

 शायर नज़ीर  बनारसी कहते हैं 

हमनें तो नमाज़े भी पढ़ी है अक्सर

गंगा के पानी में वजू कर- करके

जब कभी बनारस के जाम में फंसी मोटर  किसी कीसाईकिल को छू भी ले, तो आवाज आती है-“ का गुरु ! ढेर जल्दी हौ। उड़ के जईबा, हेलिकाप्टर मँगवा देई ? ”गंगा-जमुनी तहजीब बाले शहर बनारस में प्रकाण्ड विद्वान और राजनीति के विश्लेषक हर गली-मुहल्ले में किसी चाय या पान की दुकान पर मीटिंग करते हुए आसानी से मिल जाते है । जब मुंहमें पान घोले कोई बनारसी ज्ञान देता है तो लगता है कि साहित्य के नौ रस टपक रहे हो । फिर चाहे कुछ समझ आए, न आए।यह वह शहर है जहां

राम नाम सत्य है लेकिन मुर्दा भी मस्त है । सातदिन में नौ  त्योहार की 

परम्परा में अहंकार रहित होना ही बनारस है । लोगों का दृढ़ विश्वास है कि बनारस में मरने से मोक्ष मिलता है लेकिन गुरु हकीकत त ई बा कि " बनारस जीए सीखावला ।"

जैसे ठहाके अट्टाहास खिलखिलाहट 

दुनिया की सारी हंसियां जुटाई जाएं एकसाथ 

तो अपनी हंसी में सबसे अलग होगा बनारस।

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