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Tuesday, January 23, 2018

अंधेरा कायम रहेगा

अंधेरा कायम रहेगा
लोकतंत्र में शासन के गवाक्ष खुले होते हैं और जनता जब चाहे उस के  पार देख सकती है। कहते भी हैं कि लोकतंत्र का मतलब "जनता के लिए, जनता के साथ और जनता के द्वारा" होता है, लेकिन हमारे गौरवशाली भारत में इस कथन के  दो वाक्यांश बदल गए हैं। हमारा लोकतंत्र जनता के लिए नहीं नेता के लिए  है और जनता के द्वारा नहीं नेता के द्वारा  है। चाहे जो भी सरकार हो सबके काल में ऐसा होता रहा है। हमारे लोकतंत्र में  कई पारदर्शी  खिड़कियों को बंद कर उन पर मोटे पर्दे लगा दिए गए हैं ताकि आम जनता उस पार ना देख सके। इनमें एक है राजनीतिक दलों द्वारा चंदे हासिल करने वाली। 
   सरकार का काला धन खत्म कब किए जाने की अभियान को देखें । नोट बंदी के दिनों में पूरा मुल्क, बड़े नेताओं को छोड़कर, बैंकों के खिड़कियों के सामने खड़ा था । नोटबंदी से क्या हुआ और क्या नहीं किया इसका विश्लेषण यहां  जरूरी नहीं है। लेकिन उस समय भी राजनीतिक पार्टियों को दो हजार तक के नगदी चंदे हासिल करने की छूट थी। अब चुनाव बांड या कहें निर्वाचक बांड की शुरुआत इस दिशा में दूसरा बड़ा कदम है। हमारे देश में राजनीतिज्ञों को वी आई पी  का दर्जा हासिल  लेकिन उनकी पार्टियों की दौलत वीवीआईपी का स्टेटस पाती है। एक ऐसा देश जहां सरकार काम धंधे या व्यापार-व्यवसाय करने वालों की आय और व्यय का पूरा लेखा जोखा रखने के लिए खुद को प्रतिबद्ध बताती है, वहीं राजनीतिक चंदे की ओर से आंख मूंद लेती है। नगदी चंदा क्या कम था कि अब सरकार ने व्यवस्था की है कि स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से 1 हजार, दस हजार, 1 लाख,10 लाख और एक करोड़ रुपए के निर्वाचक बांड या कहें इलेक्टोरल बांड खरीद सकते हैं । ऐसा कर  बैंक का उपयोग काले धन को निपटाने की दूर दराज की खिड़की के रूप में हो रहा है। आखिर सरकार को इसकी क्या जरूरत पड़ गई यह जानने के लिए हमें थोड़ा पीछे लौटना होगा।  पहली बार वाजपेई सरकार ने राजनीतिक चंदा को वी आई पी स्टेटस दिया।  उन्होंने आयकर कानून के तहत ऐसी व्यवस्था की कि कंपनियां राजनीतिक पार्टियों को दिये गये चंदे  को खर्चे में दिखा सकती हैं और उस पर आयकर पर छूट पा सकती हैं। डिमोक्रेटिक राइट्स एसोसिएशन द्वारा एकत्र आंकड़ों के मुताबिक 2012 से 2016 के बीच राजनीतिक पार्टियों के 85% चंदे यानी 856.77करोड़ रुपए इसी तरह के चंदे के रूप में आए। वे चंदे पूरी तरह कर मुक्त थे। इसके बाद यूपीए सरकार ने इससे भी बड़ा काम कर दिया।  कॉरपोरेट क्षेत्र को आजादी मिल गई कि वे निर्वाचक न्यास कायम कर सकते हैं और उस के माध्यम से राजनीतिक पार्टियों को चंदा दे सकते हैं । मोदी सरकार जब आयी तो पिछले वित्त विधेयक में इसने व्यवस्था की कि कंपनियां अपने पिछले तीन साल के शुद्ध आय का 7.5 प्रतिशत चंदे के रुप में दे सकती हैं। अलबत्ता कंपनियों को इसकी घोषणा अपने खाते में करनी होगी।  इसके बाद इलेक्ट्रल बांड की व्यवस्था कर दी गई। क्योंकि उपरोक्त किसी भी व्यवस्था के तहत मोटी राशि चंदे के रुप में देना संभव नहीं था। अब जो बांड  की व्यवस्था हुई है उससे कोई भी आदमी गलत पहचान के माध्यम से बैंक से करोड़ों रुपए के बांड खरीद सकता है।
यहां एक माकूल प्रश्न है की राजनीतिक चंदे पर दोहरी छूट क्यों  दी जा रही है। पहली छूट तो चंदा देने वाले की कंपनी को मिलती है और दूसरी राजनीतिक पार्टियों को मिलती है। इस पैसे से क्या लोकमंगल हो रहा है? इसमें क्या गलत है कि बता दिया जाए कि किस पार्टी को कितना पैसा दिया गया है । राजनीतिक चंदा या राजनीतिक वित्तपोषण सारी गड़बड़ियों की जड़ है। चाहे जो भी सरकार आए इस प्रकार का राजनीतिक घोटाला चलता रहता है। हमें अपने राजनीतिज्ञों के मामले में बहुत सतर्क रहना होगा अन्यथा  जो भी पार्टी सत्ता में हो उसका यह कारोबार बर्दाश्त करने के लिए अभिशप्त रहेंगे और या अंधेरा हरदम कायम रहेगा।

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