सिनेमा : थोड़ी हकीकत , थोड़ा फसाना
भारतीय सिनेमा का यह 105 वां साल है। कुछ लोगों को इन फिल्मों का गीत-संगीत, लार्जर देन लाइफ़ कैनवस, हकीकत से दूर काल्पनिक दुनिया और इसकी रंगीनीयत पसंद आती है और कुछ को इस सबसे अलग वास्तविकता के इर्द गिर्द घूमती, जीवन के कड़वे सच दिखाती फ़िल्में। साल दर साल अमिताभ बच्चन, शाहरुख़, आमिर और सलमान खान जैसे सितारे सपने बेचते हैं और लोग हाथों हाथ इन सपनों को ख़रीद भी लेते हैं। कभी डॉन, कभी बाजीगर तो कभी दबंग बनकर। इसी फंतासी के बीच दो बीघा जमीन , कभी अर्धसत्य, अंकुर या अर्थ भी निकल आती है। इसका कारण भारतीय सिनेकला पर विभिनन परम्पराओं का असर। भारतीय फिल्मों पर 6 परम्पराऔं का स्पष्ट प्रभाव है। पहला; कथानक पर प्राचीन भारतीय महाकाव्यों के विचार और कल्पना का प्रभाव, दूसरा संस्कृत नाटक का शैलीबद्ध स्वरुप और संगीत, नृत्य के साथ उसकी भंगिमा , तीसरा अभिनय की रास विधि जिसकी उत्पत्ति प्राचीन संस्कृत नाटक के काल में ही हुई थी चौथा ,10वीं सदी में संस्कृत नाटक के पराभव के बाद उभरा लोक नाटक जैसे बंगाल की जात्रा, उत्तर प्रदेश की राम लीला इत्यादि, पांचवा यथार्थ और फतांसी के मेल जोल से बना पारसी थियेटर , छठा, बीस के दशक की हॉलीवुड की फिल्मों की संगीतमयता। इन 6 परम्पराओं से प्रभावित भारतीय सिनेमा समय के साथ खुद को बदलने लगा। जिस तरह पुराने समय में हल तरह की दृश्य विधा का अलग- अलग दर्शक वर्ग होता था उससे बिल्कुल अलग आज के हिंदी सिनेमा ने समय की नब्ज को पहचान कर उन रूढ़ियों को भंग किया और नया दर्शक वर्ग तैयार किया है। इसने विषय, भाषा, पात्र, प्रस्तुति सभी स्तरों पर अपने को बदला। ध्वनि , विचार प्रकाश , संगीत और अभिनय के मेलजोल से सिनेता हकीकत का प्रतिरूप लगने लगा और उसमें समानुभूतिकता ने सिनेआ को समाज से जोड़ दिया। फिल्मों ने बिल्कुल नए तरह के सिनेमाई-सौंदर्यशास्त्र का विकास किया है। मसलन ‘हाईवे’ की वीरा एक उच्चवर्गीय और इज्जतदार परिवार की लड़की है। बचपन से ही वह अपने ताऊ से शारीरिक शोषण का शिकार होती आई है। जब वह इसके बारे में अपनी मां को बताती है, तो उसकी मां उसे चुप रहने और इस बाबत किसी से न कहने की सलाह देती है। यही वह तथाकथित सभ्य वर्ग है, जहां बात-बात पर लड़कियों को तहजीब और सलीके की दुहाई दी जाती और दीवारों के पीछे स्त्री को सजी-संवरी वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जाता है। वीरा की मां का उसे चुप रहने की सलाह सिर्फ वीरा को नहीं, पूरे स्त्री समूह को दोषी बनाती है। आज सिनेमा ने मनोरंजन के अर्थ और पैमाने बदले हैं। सिनेमा ने समझ लिया है कि बदला हुआ यह दर्शक केवल लटकों-झटकों से तुष्ट नहीं होने वाला, उसे कुछ ठोस देना होगा। यही कुछ वजहें हैं कि करण जौहर सरीखे सिनेमा के असली व्यवसायी फिल्मकार को भी अपने रूमानी किले से बाहर निकलना और ‘माइ नेम इज खान’ और ‘बॉम्बे टाकिज’ जैसी स्तरीय फिल्में बनाने को मजबूर होना पड़ा। यहां एक सवाल उठता है कि सिनेमा के बदलने के सााथ सााथ क्या समाज बदला है।
मुझे याद है कई साल पहले कलकत्ता फिल्म फेस्टीवल में हास्य अभिनेता महमूद का इंटरव्यू। मैने उनसे पूच कि आप ये चरित्र कहां से लाते है? महमूद ने कहा- हमसब तो लोगां के ही रूपां हैं। समाज से चरित्रों का चुनाव कर उनके पात्र को समानुभूति के आधार पर प्ले करना यह सचमुच भारतीय सिनेमा की ही विधा है। हालीवुड और भारतीय सिनेमा में यही एक बहुत बड़ा फर्क है। हॉलिवुड की फिल्मों में नायक स्टानिसलावस्की पद्धति के अनुरूप जहां अपने चरित्र का "जीता जागता अवतार" होता है वहीं भारतीय सिनेमा में अभिनेता दर्शक से समानभिूति अपनाते हुये उसके मानस में प्रवेश कर जाता है। यहां एक सवाल उठता है कि क्या सिनेमा समाज में कोई बदलाव लाया है?
भारतीय सिनेमा की सबसे बड़ी खूबी है कि वह इस बात को दिखाने की कोशिश करता है कि हम क्या हैं और जीवन में क्या होना चाहते हैं। फिर एक प्रश्न आता है कि क्या एक समाज के रूप में हम बदले हैं। मनोविज्ञान में बदलाव विरोधाभासी होता है। यह किसी संदर्भ से जुड़ा होता है। संदर्भहीन बदलाव नहीं हो सकता है। फिल्मों में बदलाव का संदर्भ एनिमेशन या तकनीक के इस्तेमाल, स्क्रिप्ट के प्रकार और नग्नता का स्तर नहीं है। हमारा समाज इतनी फिल्मों को पचा चुका है कि हम कितनी भी अजीब फिल्म या गाने को झेल सकते हैं। यहां बदलाव का विश्लेषण उपभोक्ता के गहरे अर्थ के संदर्भ में करना होगा।सिनेमा या मनोरंजन का कोई भी माध्यम, समाज में बदलाव के आधार पर ही बदलता है। हम कई तरह के मजेदार बदलावों को देख रहे हैं और सामाजिक अर्थों में बदलाव के कई नए संदर्भ भी उभर रहे हैं। हम भारतीय सिनेमा को इससे अलग-थलग करके नहीं रख सकते।पिछले कुछ दशकों में सांस्कृतिक मायनों में कई बदलाव आए हैं और उनका भारतीय सिनेमा पर भी प्रभाव पड़ा है। दो फिल्मों, 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और 'रब ने बना दी जोड़ी' को हम उदाहरण के रूप में लेते हैं। पहली फिल्म में लड़की की मां तक चाहती हैं कि वह लड़के के साथ भाग जाए। वह अपने गहनों की भी तिलांजलि देने को तैयार है (बमुश्किल ही कोई भारतीय महिला ऐसा करेगी)।लेकिन हीरो लड़की के पिता की मर्जी से ही शादी करने पर अड़ जाता है। भारतीय समाज में इसे बहुत सम्मानित माना जाता है। घर से भागना उस समय बहुत खराब बात मानी जाती थी।
दूसरी फिल्म ' रब ने बना दी जोड़ी ' में पूरी तरह अलग विचार है। हीरो शादीशुदा हीरोइन को कहता है कि अगर वह अपने दब्बू पति के साथ ख़ुश नहीं है तो उसके साथ भाग चले। शादीशुदा के साथ प्रेम संबंध और भाग जाने का विचार हमें स्वीकार्य हो गया है। इन्हीं बदलावों को हम बाद की अन्य फिल्मों में भी देख सकते हैं।
शिक्षा के अर्थ ,उधार के अर्थ को लेकर हमारे समाज में कई बदलाव आए हैं। थोड़े से अतिक्रमण से हमारा समाज बैंकरों का समाज या कारोबारी समाज बन गया है।
नए हिंदी सिनेमा में औरत की शख्सियत की वापसी हुई है। औरत की इस वापसी, उसके जुझारूपन को दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया है। दर्शक अब अस्सी-नब्बे के दशक की शिफॉन साड़ियों की फंतासी से बाहर निकल कर यथार्थ की खरोंचों को महसूस करना चाहता है। वह आईने में अपने को देखना और खुद को जानना चाहता है। फिल्मों ने जेंडर की बहसों को नया मोड़ दिया है। यहां पुरुष स्त्री का शत्रु या उसका प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उसका साथी है। वह अपने पुरुष अहंकार और वर्चस्ववाद से मुक्त होकर, स्त्री के मर्म और उसके अधिकारों को समझते हुए नए तरीके से अपना विकास कर रहा है। स्त्री छवियों के साथ-साथ पुरुषों की सामंती छवियां भी खंडित हुई हैं और अब ये पूरी तरह स्वीकार्य हैं।
आज सिनेमा ने मनोरंजन के अर्थ और पैमाने बदले हैं। सिनेमा ने समझ लिया है कि बदला हुआ यह दर्शक केवल लटकों-झटकों से तुष्ट नहीं होने वाला, उसे कुछ ठोस देना होगा।अब हिंदी सिनेमा ने दर्शकों की बेचैनी को समझा है, उसे आवाज दी है। अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, इम्तियाज अली जैसे युवा निर्देशकों और जोया अख्तर, रीमा कागती, किरण राव जैसी सशक्त महिला फिल्मकारों ने हिंदी सिनेमा को तीखे तेवर दिए हैं। उसके रंग-ढंग बदले हैं। इनकी स्त्रियां जीने के नए रास्ते और उड़ने को नया आसमान ढूंढ़ रही हैं। दर्शक भी रोते-बिसूरते, हर वक्त अपने दुखड़े सुनाते चरित्रों पर कुछ खास मुग्ध नहीं हो रहा। उसे भी पात्रों के सशक्त व्यक्तित्व की खोज है।
अब हिंदी सिनेमा अपने पुरसुकून रोमानी माहौल से उबर रहा है। उसने दर्शकों की बेचैनी को भांप लिया है और अब उसे आवाज देनी भी शुरू कर दी है। अपने नये मिजाज से दर्शकों को नये सिरे से न सिर्फ अपनी तरफ खींचा है बल्कि उन्हें नये तरीके से सोचने पर मजबूर भी किया है। अनुराग कश्यप, दिबाकर बैनर्जी, इम्तियाज़ अली जैसे युवा निर्देशकों तथा जोया अख्तर, रीमा कागती और किरण राव जैसी सशक्त महिला फिल्मकारों ने हिंदी सिनेमा को तीखे तेवर दिए हैं। उसके रंग-ढंग बदले हैं। इनके स्त्री पात्र अब विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी डिप्रेशन के शिकार नहीं होते। ना ही ये किसी ‘मीना कुमारी सिंड्रोम’ से ग्रस्त हैं। ये लड़कियां तो इन झमेलों से आगे निकल, जीने के नये रास्ते और उड़ने को नया आसमान ढूंढ़ रही हैं। दर्शक भी रोते-बिसूरते, हर वक़्त अपने दुखड़े सुनाते चरित्रों पर कुछ खास मुग्ध नहीं हो रहे। वे भी दिलीप कुमार सिंड्रोम से दूर हो अमिताभ बच्चन की तरह ' हम जहां से खड़े होते हैं लाइन वहीं से शुरू होती है ' की तरह जीना चाहते हैं। उन्हें भी पात्रों में समय को परिभाषित करने वाले सशक्त व्यक्तित्व और चरित्र की खोज है। यह खोज न सिर्फ सिनेमा की है बल्कि भारतीय समाज की भी है।
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