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Thursday, January 25, 2018

हमारा गणतंत्र दिवस और हम 

हमारा गणतंत्र दिवस और हम 

जम्हूरियत वह तर्जे हुकूमत है 

जहां बंदे गिने जाते हैं तौले नहीं जाते 

भारतीय गणतंत्र के 68वर्ष पूरे हो चुके हैं। यह देश्ह फख्र से कहता है कि वह विश्व का सबसे बड़ा गणतंत्र राष्ट्र है।  इस देश की स्वतंत्र कराना और यहां एक मजबूत गणतंत्र की स्थापना करना  स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले महानायकों का स्वप्न था। उनहोंने अपने सपने को  लिए यथार्थ में परिवर्तित कर दिया। स्वतंत्रता संग्राम एक महानायक सुभाषचंद्र बोस ने नारा दिया  था ",...तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।.."  बेशक खून भी बहा और आजादी भी मिली। आज हम आजाद हैं, एक पूर्ण गणतांत्रिक ढांचे में स्वतंत्रता की साँस ले रहे हैं। आज हम हर तरह से स्वतंत्र हैं। पर क्या सचमुच एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के नागरिक कहलाने के लिए जो र्शें हैं वे सब हम पूरी करते हैं।  यह सवाल कई बार अक्सर  जेहन में आता है।कभी-कभी लगता है कि हम आज भी गुलाम हैं। बस गुलामी का चेहरा बदल गया है। समाजवैज्ञानिक तौर पर यह सोचना सही भी है। क्योंकि हजारों साल पुरानी हमारी इस सभ्यता को कई बार गुलाम बनाया गया।  कई सभ्यताओं ने हम पर शासन किया। हर बार हम हम उस व्यवस्था से लड़ते रहे। एक आदत सी पड़ गयी है गुलाम रहने की और आजाद हुये तो उसके मायने गलत समझने की। इसी मनो​िस्थति में हम जकड़े होते हैं।  

देश को सम्पूर्ण गणतंत्र राष्ट्र के रूप में अब 68 वर्ष पूरे हो गए हैं। हम निरंतर विकास की ओर ही अग्रसर हो रहे हैं। होना भी चाहिए। फिर भी ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो हमारे विकास के मार्ग में गड्ढे की तरह दिखाई पड़ती हैं। कई बार हम इन गड्ढों में गिर पड़ते हैं और कई बार इन्हें पार करके आगे निकल जाते हैं। 

विकास के पथ पर हम आज बहुत आगे निकल चुके हैं। विश्व में एक उभरती शक्ति के रूप में उभरकर दुनिया के सामने आ रहे हैं। दिनोदिन आईटी, व्यापार, अंतरराष्ट्रीय संबंध और विज्ञान जैसे क्षेत्रों में हमने सफलता के नए आयाम छुए हैं। इस कामयाबी के सोपान से जब हम नीचे देखते हैं तो कई हालात ऐसे दिखते जो चिंतनीय हैं।  

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेश्नल.. द्वारा करवाए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में करीब आधी से अधिक जनसंख्या जो सार्वजनिक सेवाओं में कार्यरत है, उनमें से अधिकांश घूस या सिफारिश से नौकरी पाते हैं। जहां हम दिन-रात विकास की मुख्यधारा से जुडऩे के लिए प्रयासरत हैं और अपने समाज को अपेक्षाकृत अधिक अच्छी जीवनशैली देने के लिए जुटे हुए हैं, वहीं कहीं न कहीं हमारे नैतिक मूल्य और आदर्श प्रतियोगिता की इस चक्की में पिसते जा रहे हैं। कितनी अजीब बात है कि 80.5 प्रतिशत हिंदू 13.4 प्रतिशत मुस्लिम, 2.3 प्रतिशत ईसाई, 1.9 प्रतिशत सिक्ख, 1.8 प्रतिशत अन्य धर्म के अनुयायियों वाले इस देश में, जो अपने आप को भाईचारे और सद्भावना का दूत मानता है, आज भी लोगों को खान पान या रहन सहन के कारण मारा जा रहा है। लड़किया बलात्कार का शिकार हो जाती हैं। काले धन और जाति सम्प्रदाय इत्यादि की भावनाएं उभार कर चुनाव जीते जा रहे हैं। 

जहाँ हमारे देश के एक भाग आर्थिक विकास की नई रूपरेखा बनाई जा रही है, वहीं उसी क्षेत्र में भाषा को लेकर तनाव बड़ते जा रहे हैं। दूसरी तरफ देश का दूसरा भाग आज भी जीवन-यापन की मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है। इसी देश में कहीं 4जी का फर्राटा है तो कहीं 24 घंटे बिजली नहीं है।जहाँ रेल परिवहन को तो छोड़िए, सड़कों का भी अता-पता नहीं है। जहां रेलें चल रहीं थी वहां से ट्रेनों की संख्या घटायी जा रही है। 

देश के कई भाग इतने अलग-थलग हो चुके हैं, कि आज यहां पर लोग खुद को राष्ट्र का हिस्सा भी नहीं मानना चाहते हैं। अशिक्षा, बेरोजगारी, अव्यवस्था, असुरक्षा, क्षेत्रीय पक्षपात जैसी कितनी ही बीमारियों से ग्रसित कई पिछड़े राज्यों जैसे कि बिहार, मध्यप्रदेश और झारखंड में अशिक्षित और बेरोजगार नौजवान नक्सलवाद या अन्य आतंकवाद की ओर देख रहे हैं। 

हम गणतांत्रिक देश के निवासी हैं। लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया ही हमारे देश का भविष्य लिखती है। लेकिन चुनाव कालेधन और जातिवाद तथ सम्प्रदायवाद के बल पर जीते जाते हैं। राजनीति के इस कीड़े ने हमारे शरीर पर इतने घाव बना दिए हैं कि हमारा स्वरूप ही खराब  दिखने लगा है। 

ऐसा नहीं है कि हम आगे नहीं बढ़ रहे हैं, हम विकास की ओर अग्रसर हैं, पर विकास की गति क्या है, इस पर भी गौर करना पड़ेगा। क्या यही है हमारे पूर्वजों के सपनों का गणतंत्र ? हमें खुद से सवाल पूछना चाहिये कि यह वास्तविक गणतंत्र है और क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ी को यह गणतंत्र सौंप कर संतुष्ट हो सकेंगे।  

गजब ये है कि अपनी मौत की आहट सुनते नहीं

सब के सब परीशां हैं कि वहां पर क्या हुआ होगा

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