समाज में हिंसा का विशिष्ट स्वरूप
समकालीन भारत में जो घटनाएं हो रहीं हैं अगर उनका समाज वैज्ञानिक और अपराध वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो सन्न कर देने वाले निष्कर्ष प्राप्त होंगे। इसमें दो बातें सबसे ज्यादा चकित करने वाली हैं। पहली कि अपराध की आविष्कारिता और दूसरे उसके चरित्र के बारे में कम से कम सैद्घांतिक ज्ञान। इस क्षेत्र में अवधारणा आधारित अध्ययन बहुत कम हुआ है, या कहें हुआ ही नहीं है, क्योंकि अबसे पहले इस तरह का सत्ता सामाजिक संरचना देखने को नहीं मिली थी। दर असल, ऐसा पहले कभी हुआ ही नहीं, जो आज हो रहा है। आज जो हिंसा हो रही है उसकी जटिलता केवल तकनीक अथवा संगठन क्षमता पर आधारित नहीं है। भारत में जो हिंसा हो रही है वह लगता है मानव विज्ञान की दृष्टि से सोची-समझी हुई है क्योंकि यह अवधारणा गढ़ने के लिए नए चिंतन की ओर इशारा करता है। हिंसा की सबसे चकित कर देने वाली अभिव्यक्ति यह है वह विशिष्ट हिंसा की वह प्रतिकात्मक क्षमता है जो सत्ता के साथ बराबरी करती दिखती है।
आतंकवाद या दंगे - फसाद से विपरीत विशिष्ट हिंसा सामूहिक स्तर पर नहीं होती। यह विचार के रूप एक क्षेत्र में सीमित नहीं होती। हिंसा के तौर पर यह अकेली होती है और स्वरूप में यह यह अतिवाद के उदाहरण की तरह दिखती है। इसमें अत्याचार से ज्यादा इसका लगातार प्रदर्शन प्रमुख होता है। घटना के रूप में इसकी संख्या कम होती है लेकिन प्रदर्शन की बारंबारता में बहुत ज्यादा। यह क्रिया एक तरह से बार-बार सबक सिखाने की तरह होता है। ऐसा सबक जो सामाजिक नियमों को तोड़ने वालों को सिखाया जाता है। अफराजुल की ही मिसाल लें। बंगाल से आए एक मजदूर को पीट-पीटकर मार डाला गया। उद्देश्य केवल यह सबक सिखाना था कि उस समुदाय के लोग " लव जिहाद " से बाज आएं। हिंसा की घटना की पृष्ठभूमि में अवधारणा यह है कि यह इतिहास को दुबारा लिखे जाने का प्रयास है। इसमें बेवजह सिनेमाई वीरता का प्रदर्शन होता है। ऐसा महसूस होता है जैसे कोई भी भारतीय राणाप्रताप बन गया है और हल्दीघाटी का बदला ले रहा है। ऐसे भारतीयों के लिए अगर इतिहास का दोबारा लेखन ना किया जा सके या उसे बदला नहीं जा सके तो वह इतिहास नहीं है। यहां कथाएं और इतिहास आपस में गड्डमड्ड हो जाती हैं। इतिहास और कथा का यह मिश्रण बहुसंख्यक वाद के गहरे घाव पर मरहम की तरह काम करता है।
हिंसा की इन घटनाओं में बहुत ज्यादा शब्द या कहानियां नहीं होतीं। इसमें कुछ शब्द या सतरे कहे जाते हैं। लेकिन यह भाषा में बहुत बड़ा काम करते हैं। अगर उनके अर्थ खोलने की कोशिश की जाए तो कुछ खास हाथ नहीं लगेगा।
विशिष्ट हिंसा उसके शिकार के शरीर पर इतिहास के लेखन की तरह है। यह लोकतंत्र और इतिहास को लोकलुभावन तरीके से भ्रष्ट करना कहा जा सकता है। ऐसी स्थिति में एक नागरिक कानून को अपने हाथ में ले लेता है और ख्यालों - कल्पनाओं में व्यवस्था बनाता है। वस्तुतः कानून और व्यवस्था के रखवाले भी इस विधि विहीनता का साथ देते हैं और बर्बरता के पक्ष में कीर्तन करते हैं। भीड़ इन्हें सलाम करती है। हमारे ऐतिहासिक ग्रंथ और कथा नायक जो न कर सके वह ये लोग करने की कोशिश करते हैं। बहुसंख्यकवाद के ख्यालों का ताकत है। ऐसी हिंसा में शरीर केवल बहाना है उससे ज्यादा कुछ नहीं। शरीर एक तरह से कच्चा माल है। अफराजुल कोई बलि का बकरा नहीं था। उसे बिना सोचे विचारे चुन लिया गया। वह केवल एक शरीर के रूप में प्रयोग में लाया गया। हत्या के साथ ही उसका अस्तित्व समाप्त हो गया। वह पूरी कथा में कहीं नहीं था I लेकिन देखने में ऐसी हिंसा की फितरत कुछ वैसी ही होती है जैसे कोई काम सोच विचार कर दिया गया है। यह समाज की सभी शक्तियों को मौन और चकाचौंध कर देते हैं। इसमें धर्मनिरपेक्षता का कोई मतलब नहीं रहता या भावनाओं का कोई महत्व नहीं होता। लेकिन इस किस्म की विशिष्ट हिंसा बिना आधुनिक तकनीक के नहीं हो सकती है।इसके लिए आधुनिक तकनीक जरूरी है। यह कहा जा सकता है की इसके उत्पादन में तकनीक, उसे बार-बार दिखाए जाने और देखने वाले का होना जरूरी है। विशिष्ट हिंसा बिना सेल्फी या वीडियो के नहीं हो सकती।
इसकी विशेषता दो स्तरों पर होती है। पहला यह कथा को नया स्वरूप प्रदान करती है और दूसरा यह सिद्धांतों का पुनर्वर्गीकरण करता है। दंडात्मक सबक के भय का वातावरण तैयार करता है। यह वातावरण निवास, खानपान और रहन सहन के चारों तरफ फैलता जाता है। जिसकी निगरानी बहुसंख्यकवादी समुदाय करता है। यहां सिविल सोसाइटी ऐसा दिखावा करती है कि वह सत्ता का अनुषंगी है और उसे अपनी करतूतों के लिए मंजूरी मिली हुई है। यह हिंसा नई तरह की नागरिक व्यवस्था का निर्माण करती है। अल्पसंख्यक संदेहात्मक होते हैं । यह संदेह देश भक्ति के चश्मे से देखा जाता है। जिस पर संदेह होता है उसे दंड देने की शुरुआत या कहें तैयारी होने लगती है। यह तैयारी नागरिक निषेध के नकली मानदंडों के प्रति लगाव को नजर में रखकर की जाती है। निषेध की खूबी होती है कि दंड के लिए इसमें किसी कानून की जरूरत नहीं होती। कोई भी आदमी कानून अपने हाथ में ले सकता है। यहां एक व्यक्ति दो तरह की स्मृति में के मुकाबिल होता है पहला तो ऐतिहासिक बहुसंख्याकवाद की स्मृति है , जो सदियों से मानस में बैठी हुई है। विशिष्ट हिंसा उसी स्मृति के आधार पर उभरती है और वर्तमान को धुंधला कर देती है। यहां मीडिया की भूल है कि वह समाज के कल को धुंधला करने वाली ताकतों पर मौन रहता है। यहां स्मृतियों का परिवर्तन होता है। यहां बहुसंख्याक समाज एक काल्पनिक हिंसा को अपने मन में बिठा कर अल्पसंख्यक समुदाय से बदल लेता है। वह मानता है इस समुदाय ने उन पर जुल्म किए हैं। विशिष्ट हिंसा एक तरह का रस्मी कार्रवाई है जो समसामयिक हिंसा से अलग होती है या भिन्न होती है। दंगे हिंसा का सामुहिक स्वरुप हैं। उसका निशाना एक पूरी आबादी होती है, जबकि विशिष्ट हिंसा किसी को सबक सिखाने की तरह होती है। यह दंगे की तरह अतिवाद पूर्ण नहीं होती लेकिन इसका उद्देश्य होता है कि अल्पसंख्यक उन्हीं शर्तों के अंतर्गत रहें जो बहुसंख्यक समाज ने बनाए हैं। आतंकवाद बिना सोचे समझे होता है जबकि यह विशिष्ट हिंसा अत्याचार पूर्ण होती है। आतंकवाद अनजाने में काम करता है जबकि यह अपनी पहचान बनाता है। किसी भी मानव विज्ञान में हिंसा को प्रोत्साहित करने वाला दल उसका भौतिक स्वरूप नहीं अपनाती। यह आमतौर पर उसका अवसर पैदा करता है, एक सोच पैदा करता है , वातावरण पैदा करता है। आने वाली पीढ़ी जब इसका विश्लेषण करेगी तो यकीनन राष्ट्र की अवधारणा पर उसे नये ढंग से काम करना पड़ेगा।
0 comments:
Post a Comment