क्यों उखड़े मी लॉर्ड्स
देश की सर्वोच्च अदालत के चार चार जजों ने एक चिट्ठी जारी कर कहा है कि चीफ जस्टिस साहब दीपक मिश्रा जो कुछ भी कर रहे हैं वह सब सही नहीं है। इससे न्यायपालिका और लोकतंत्र दोनों को खतरे हैं। इस पत्र के चाहे जो भी मतलब निकाले जाएं पर इसका रहस्य न्यायिक प्रक्रिया और उसके परम्पराओं से सम्बद्ध है, खास कर एक विशेष पीठ को मामले कौन अनुबंधित करता है और किस आधार पर करता है। इसके बावजूद जजों को खुलेआम अपनी बात कहना हमारे लोकतंत्र और उसके अद्भव के लिये एक गंभीर क्षण है। रिपोर्ट के मुताबिक, चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट में सभी जज बराबर हैं और उन्हें पूरी स्वतंत्रता रहती है। मिश्रा ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट में सभी केसों का सही बंटवारा होता है। ऐसे समय में जब बदनाम सियासी समुदाय के हाथों कार्यपालिका और विधायिका सहित देश के सार्वजनिक संस्थान अराजकता से दो चार हैं उस समय न्यायपालिका हमारे भरोसे की एक छत हुआ करती थी। इसकी निष्पक्षता जनता के लिये एक उम्मीद हुआ करती थी। चाहे वह मामूली अपराध हो या सांविधानिक संकट जनता को भरोसा रहता था कि अदालत इसे सुलझा देगी। इस पूरे सिस्टम पर जनता को विश्वास था। आज उसका विश्वास भंग हो गया। देश की जनता न्यायपालिका को अशक्त होता नहीं देख सकती। न्यायपालिका की आत्मा इसकी आजादी में बसती है। आजादी का यहां मतलब है कि किसी दूसरे सरकारी अंग के दबाव से मुक्त। हालांकि आजादी का मतलब न्यायपालिका में कार्यपालिका या विधायिका की हस्तक्षेपहीनता नहीं है साथ ही उसे खुद अनियमितता की आजादी नहीं है। न्यायमूर्ति चेलामेश्वर ने सही कहा है कि अदालतों की साख में ही लाकतंत्र की क्षमता निहित है। न्यायपालिका और सेना दो ही ऐसे हैं जिनकी देश में बहुत इज्जत है। लेकिन इसकी साख इसके कामकाज में पारदर्शिता और सुसंगति पर निर्भर है। यही कारण है कि हमारे सामने न्यायपाग्लिका के लम्बे - लम्बे फैसले आते हैं जिनमें यह स्पष्ट तौर पर लिखा होता है कि उस खास फैसले के पीछे क्या कारण हैं। अब ऐसे सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों, जिनमें से प्रधान न्यायाधीश होने वाले हैं, का यह दावा देश के लिये गंभीर चिन्ता का विषय है क्योंकि यह अदालत के प्रशासनिक पक्ष में अंदरूनी शिकायतें दूर करने के तंत्र समाप्त हो गये हैं। जैसा कि जजों ने बताया कि प्रधान न्यायाधीश केवल दैनिक प्रशासनिक कामकाज को ही संभालते हैं।ये भी दिलचस्प है कि यही चार जज, चीफ जस्टिस के साथ मिलकर कॉलेजियम बनाते हैं- यानी वो संस्था जो जजों की नियुक्ति करती है। कहने को उनका मकसद खिड़की खोलकर थोड़ी रोशनी भीतर लाने का रहा हो लेकिन इसका एक मतलब ‘अविश्वास प्रस्ताव’ की तरह भी निकाला जा सकता है। देश के चीफ जस्टिस के खिलाफ अविश्वास। ये अपनी ही दिक्कतों को सुलझाने में सुप्रीम कोर्ट की नाकामी भी दिखाता है। यह कुछ ऐसा है कि इसे न्यायपालिका को ही सुलझाना होगा। अब न्यायपालिका चहे जितनी पवित्र हो इस संकट से क्रेद्र सरकार के कामकाज पर भी उंगली उठती है , खासकर जजों की नियु्क्ति को लेकर। अब चाहे जो हो बत तो बहर आ ही गयी है। लेकिन एक बात है कि जज साहब लोगों ने यह नहीं सोचा कि नियुक्ति के समय उन्होंने संविधन की रक्ष की शपथ ली थी। अदालत के कामकाज की आजादी भी उस शपथ का अविभाज्य अंग है। ये कहना मुश्किल है कि इस घटनाक्रम के बाद हम एक मजबूत सुप्रीम कोर्ट देखेंगे या अंदरूनी झगड़े से जूझती, प्रक्रिया के सवालों में उलझी कमजोर कोर्ट। कहना तो ये भी मुश्किल है कि सरकारें या फिर आज की सरकार ही इस कमजोरी का फायदा उठाएगी या सुप्रीम कोर्ट को मजबूत बनाने के लिए ठोस कदम उठाएंगी। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट भी इस दिशा में कोई मजबूत कदम उठने नहीं जाल रहा है। जर्मन दार्शनिक गेटे ने कहा था कि जो खुद को सबसे ज्यादा आजाद समझता है वह सबसे बड़ा गुलाम है। सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों द्वारा इस तरह खुल्लम खुल्ला अपना असंतोष जाहिर करना भारतीय समाज में एक खास किस्म के कुंठा का संकेत है। जबसे यह सरकार सत्ता में आई है तब से विरोध को दबा दिया गया है और संवैधानिक संस्थानों को धीरे-धीरे कमज़ोर किया जा रहा है। विगत 3 वर्षों में चुनाव आयोग और भारतीय रिजर्व बैंक जैसे सांविधानिक संस्थानों को भी दूषित कर दिया गया और अब सामने आया है सुप्रीम कोर्ट का मामला। समाज के कई क्षेत्रों में सरकार के कामकाजों के प्रति अविश्वास है लेकिन मतभेद को खुल्लम खुल्ला राष्ट्र विरोध की संज्ञा दे दी जा रही है। सरकार में राजनीतिक परिपक्वता का अभाव दिख रहा है और मंत्रिमंडल में समझदारी समाप्त हो चुकी है। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर गद्दारी का आरोप लगाया जाना है। गुजरात चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद मनमोहन सिंह पर गद्दारी के आरोप लगाए थे और अब तक उन्होंने ना इसे प्रमाणित किया नहीं उन्होंने खेद जताया। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार ने प्रशासन और संविधान रक्षा की अपने प्राथमिक कर्त्तव्य को तिलांजलि दे दी है और वह अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने में लगी है। अपनी कमजोरी छिपाने के लिए सरकार ने सांविधानिक संस्थानों को कमजोर करना शुरू कर दिया है क्योंकि लोकतंत्र में ये संस्थान संतुलन और चेतावनी का काम करते हैं।
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