मानवीयता पराजित नहीं होगी
दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमरिकी चिंतक एलन जैकब ने एक किताब लिखी थी" क्रिश्चियन ह्यूमनिज्म इन एज ऑफ क्राइसिस।" इस पुस्तक में टी एस इलियट ,सिमोन वेल ,जैक मार्टिन और सी एस लेविस जैसे विचारकों के मानव परक विचारों की व्याख्या के साथ साथ यह बताने की कोशिश की गई थी की इंसानियत पर अधिनायकवादी महत्वाकांक्षाओं का ग्रहण लग रहा है और उदारवादी चिंतन समाप्त होता जा रहा है। जैकब ने चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि उदारवादी चिंतन और सच के आवेग को कामकाजी ज्ञान पराजित कर देगा। यह संयोग ही है कि पूरी दुनिया में भाषा ,साहित्य ,दर्शन, धर्म और इतिहास जैसे विषयों में छात्र घटते जा रहे हैं तथा तकनीकी विषयों में उनकी संख्या बढ़ती जा रही है। भयानक मंदी के काल में विख्यात इतिहासकार बेन श्मिट ने कहा था कि समाज विज्ञान ,मानव विज्ञान, राजनीति शास्त्र और अंतरराष्ट्रीय संबंध जैसे विषयों में छात्रों की संख्या का घटना एक अशुभ लक्षण है। गत वर्ष महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति डॉक्टर गिरीश्वर मिश्र ने भी कुछ इसी तरह की चिंता व्यक्त की थी। दुनिया भर में जिन बड़े कॉलेजों की रैंकिंग है उनमें तो लगभग ऐसा ही हो रहा है। सरकार भी जिन छात्रों को पढ़ने के लिए ऋण देती है उसमें सबसे पहले यही देखा जाता है कि वह किस तकनीकी विधा में शिक्षा प्राप्त करना चाहता है। मानविकी के लिए जल्दी ऋण नहीं मिलता है। यकीनन आर्थिक मजबूरियों के कारण यह हो रहा है और बड़े कॉलेज भी आतंकित हैं।
आर्थिक मंदी के बाद इस दिशा में और तेजी हो गई। कुछ विद्वान इसके लिए मानविकी को भी दोषी बताते हैं।उनका मानना है कि शिक्षा में सियासत की बेतरह दखलंदाजी के कारण भी उत्तर आधुनिक काल ऐसा हो रहा है। लगभग 70 साल पहले अंग्रेजी के कवि डब्ल्यू एच एडन ने हार्वर्ड में अपनी कविता पढ़ते हुए यह चेतावनी दी थी कि उपयोगी ज्ञान और तकनीकी दक्षता स्मृति एवं परंपरा का विरोधी है।
इस तरह की स्थिति का मुख्य कारण है मध्यकाल के धार्मिक तत्व की गैरहाजिरी और दार्शनिक प्रतिभाओं का उभरकर नहीं आना। इसके साथ ही प्रतिद्वंदी संस्कृतियों, साम्यवाद इत्यादि का दबाव मनुष्य से इंसानियत को छीन रहा है और पूरा विश्व प्लेटो से नाटो स्टाइल में परिवर्तित होता जा रहा है। प्रेम नफासत मानवीय गरिमा सब समाप्त हो रहे हैं। सब पर एक खास किस्म का प्रहार हो रहा है। चारो ओर हिंसा,आतंकवाद, कट्टर भौतिक गतिविधियों इत्यादि की आपाधापी मची है।
लेकिन इस अमानवीयता के घटाटोप में मानवीयता के उभरने के शुभ संकेत भी आने लगे हैं। इसका सबसे पहला उदाहरण साम्यवाद का पतन है । लोग धार्मिक सत्य की तलाश में अध्ययन करने लगे हैं तथा विचार , दर्शन एवं इतिहास में भी दिलचस्पी बढ़ी है । अंततोगत्वा आभासी और ऑनलाइन विश्व से चेतन विश्व की ओर बहुत धीमा ही सही कदम बढ़ने लगे है।
कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है,
रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में
सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे
20वीं शताब्दी के उत्तर काल में आधुनिक भौतिक शास्त्र की शुरुआत हुई । आइंस्टीन ने क्वांटम का सिद्धांत प्रतिपादित किया और इस सिद्धांत ने जहां वैज्ञानिक चिंतन को सदा के लिए बदल दिया वहीं सच्चाई के लिए मानवीय दृष्टिकोण को भी प्रभावित किया। संयोग ही कहा जाएगा उसी काल में कला के चिंतन में भी काफी परिवर्तन आया और अभिव्यक्ति बदलने लगी। आइंस्टीन और पिकासो कभी मिले नहीं थे लेकिन समय और दूरी के बारे में आइंस्टीन के चिंतन की पिकासो की कलाओं में भी अनुगूंज थी। पिकासो का चिंतन दृष्टि की सापेक्षता को एकमेव मानने के विचार का खंडन करता था और आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत भी लगभग इसी फ्रेम में बंधा हुआ था । सापेक्षता के सिद्धांत से उलझे आइंस्टीन ने रविंद्र नाथ टैगोर से मुलाकात की और आधिभौतिकता पर उनसे विचार विमर्श किया। परमाणु विनाश के बाद जो विचारों का विनाश चला था उनसे उभरकर दुनिया एक बार फिर आधिभौतिक वाद की ओर बढ़ रही है। यद्यपि यह अत्यंत धीमा है पर ऐसा लगता है तांडव के विनाश के बाद एक रचनात्मक विश्व का आहिस्ता-आहिस्ता उदय हो रहा है।
यह इंसानियत के लिए आशाजनक है। आधुनिक विज्ञान धार्मिक विचारों की गवेषणा में जुट गया है और धर्म तथा विज्ञान का ये संगम मानव मस्तिष्क को दोबारा ऊर्जा से भर देगा और आशा है कि विश्व ने मनुष्यता के नाम पर जो कुछ खोया है वह धीरे ही सही प्राप्त कर लेगा।
सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
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