भारत पाक संबंध और द्विपक्षीय वार्ता
हमारे देश के जो लोग पाकिस्तान से बातचीत के लिए दबाव दे रहे हैं वही लोग इस मामले में भारत की सोच में दोष भी ढूंढ रहे हैं । आम जनता को उनकी गलत दलीलों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। एक कहावत है कि हम दोस्त अपनी मर्जी के मुताबिक ढूंढ सकते हैं पड़ोसी नहीं। चूंकि पाकिस्तान को हम भौगोलिक रूप से अपने पड़ोस से अलग नहीं कर सकते तो इसके साथ बातचीत करनी ही होगी। भारत में दोष खोजने के लिए जो दलीलें पेश की जाती हैं वह सही होतीं बशर्ते पड़ोसी एक पड़ोसी की तरह पेश आता। वह तो लगातार शांति भंग करने में लगा हुआ है। वह भारत के एक हिस्से में जमा हुआ है और आगे बढ़ने की कोशिश में लगा है। इसके लिए वह हिंसा का भी सहारा ले रहा है। ऐसी स्थिति में क्या एक पड़ोसी के साथ सभ्य व्यवहार और सभ्य तरीके से बातचीत करनी होगी ? इस उम्मीद में कि वह हिंसा त्याग देगा, अपना आचरण बदल लेगा और जो भारत का जो हिस्सा जबरदस्ती दखल कर चुका है उसे छोड़ देगा । शायद नहीं अंत में एक ही राह बचती है वह है हम खुद की हिफाज़त करें । वैसे शांति से रहना उसके हित में है। तरह- तरह समस्या पैदा करने वाले पड़ोसी के साथ क्या किया जाए ,क्या बातचीत की जाए? दशकों का तजुर्बा यह बताता है कि इस दिशा में सकारात्मक विचार बेकार साबित होते हैं। वस्तुतः वह इसे हमारी कमजोरी समझता है। इसलिए हमें इससे सबक लेनी चाहिए और शांति के खोखले मंत्र नहीं जपने चाहिए।
इस बात पर बल देना कि हमारे पास वार्ता के सिवा और कोई विकल्प नहीं है यह पाकिस्तान की दबावमूलक रणनीति का शिकार होने के बराबर है और यह मानना है कि सिर झुका कर रहना ही व्यवहारिक है। इस वास्तविकता से अलग कि पाकिस्तान ने शिमला समझौते पर कुछ नहीं कहा है और न किया है। वह राष्ट्र संघ प्रस्ताव के अनुरूप आत्म निर्णय की बात करता है । शिमला समझौते में कई जगह इस बात का उल्लेख है कि दोनों पक्ष शांतिपूर्ण ढंग से अपने मतभेदों को सुलझा लें तथा जम्मू कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर किसी तरह के बल का प्रयोग ना करें। परंतु कारगिल, हमारी संसद पर हमला ,उड़ी, पठानकोट हमले जैसी अन्य कई घटनाओं में पाकिस्तान की पूरी भूमिका थी। वह नियंत्रण रेखा के उस पार से घुसकर कश्मीर में आतंकवाद फैलाता है। शिमला समझौते में सिफारिश की गयी थी कि नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमाओं में बदल दिया जाना चाहिए, लेकिन यह पाकिस्तान को कभी मंजूर नहीं हुआ । अब जब से चीन पाकिस्तान में आर्थिक गलियारे के रूप में संबंध बना है तो वह हमारी सुरक्षा को खुली चुनौती दे रहा है। चीन भी कश्मीर में कब्जे को वैध बता रहा है। हमारे देश में कुछ लोग हैं जो वार्ता के पक्ष में तो हैं लेकिन भारत की खुली आलोचना करते हैं कि भारत खुद को बड़ा समझता है और पाकिस्तान को बराबरी का दर्जा नहीं देता। उसकी संप्रभुता का सम्मान नहीं करता । लेकिन वास्तविकता तो यह है कि भारत पाकिस्तान की संप्रभुता का कहीं अनादर नहीं करता और ना ही उसके आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करता है । भारत सदा उसकी संप्रभुता को अपने बराबर समझता है और उसे बराबरी का दर्जा देता है। 1947 - 48 में जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया था तो भारत ने राष्ट्र संघ में फरियाद की थी। यह सबूत है कि भारत उसको बराबरी का दर्जा देता है। 1971 में पाकिस्तान की भयानक पराजय के बाद भी शिमला समझौते में पाकिस्तान को बराबर का दर्जा दिया गया और उसके बाद दोनों देशों के बीच जो भी घोषणाएं हुई उनमें भी उसे पूरा सम्मान दिया गया । एक और उदाहरण है कि आतंकियों के खून खराबे के बावजूद भारत सिंधु जल समझौते के प्रावधानों को पूरी तरह सम्मान देता है। दूसरी तरफ पाकिस्तान यह कहते चलता है एक मुस्लिम सैनिक 10 हिंदुओं के बराबर है। यही नहीं कुछ साल पहले उसने भारत की गरीबी का भी मजाक उड़ाया था और कहा था सब बनिए हैं । पाकिस्तान की समस्या यह नहीं है कि हम उसे बराबरी का दर्जा देते हैं या नहीं बल्कि उसकी समस्या है कैसे भारत के बराबर हुआ जाए। अगर भारत के पास एक परमाणु बम है तो उसके पास भी होना चाहिए । भारत के पास अगर कोई हथियार है तो उसके पास भी होना चाहिए। भारत न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में तब तक शामिल ना हो सके जब तक वह इसमें शामिल नहीं हो जाता। राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता का वह इसी मानसिकता के कारण विरोध करता है। वह जानता है कि दक्षिण एशिया में शांति और सुरक्षा के लिए दोनों देशो में संतुलन जरूरी है और भारत कभी पहल नही करेगा।भारत ने जम्मू और कश्मीर का बड़ा हिस्सा 1947 - 48 में पाकिस्तान को दे दिया। 1966 में भारत हाजी पीर दर्रे को वापस कर दिया। अतीत में वार्ता में आतंकवाद को शामिल नहीं किया गया ।
जो लोग भारत पाकिस्तान वार्ता के मामले में भारत में दोष ढूंढ रहे हैं उन्हें यह स्पष्ट करना पड़ेगा कि वे समस्या के समाधान के लिए और क्या देना चाहते हैं?
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