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Tuesday, August 28, 2018

सड़कों पर शोर और धर्म का राजधर्म

सड़कों पर शोर और धर्म का राजधर्म

सावन बीत गया और इसी के साथ खत्म हो गया कांवरियों का आतंक उनकी कथाएं और उनकी चर्चा। हर साल कांवरिए जल लेकर कर निकलते हैं। किसी न किसी मंदिर में भगवान शिव पर अर्पित करने के लिए। लेकिन ऐसा आतंक कभी नहीं था ना उनकी कभी ऐसी चर्चा थी। इस साल उन का उत्पात इतना ज्यादा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट तक को संज्ञान लेना पड़ा। कांवरियों के पथ में जगह जगह शिविर लगाए जाते हैं और आम लोग उधर से डरे सहमे से निकलते हैं क्योंकि अगर कांवरियों से कहीं टकराव हो गया तो समस्या हो जाएगी। इस बात की इतनी चर्चा कभी नहीं थी । लोग साल के एक महीने को मामूली दिक्कत मानकर बर्दाश्त कर लेते थे। लेकिन इस साल हिंदुत्व का जैसा सर्वव्यापी माहौल बनाया गया है उसी के साथ उसका विरोध भी बढ़ता गया है। उत्तर प्रदेश में तो बड़े पुलिस अफसरों और मुख्यमंत्री ने खुद हेलीकॉप्टर से फूल बरसाकर इस विरोध को और भी प्रज्वलित कर दिया। क्योंकि कांवरियों के उत्पात को हिंदुत्व की परियोजना के रूप में देखा गया । जरा सोचें क्या आप की बगल से कुछ ट्रक गुजर रहे हों जिस पर तेज आवाज में बंबईया फिल्म के धुन बजती हो और कुछ लोग उस धुन पर नाच रहे हों तो क्या आपके मन में भगवान शिव के प्रति श्रद्धा होगी या उस स्थिति को देखकर खौफ? शोर के नशे में कांवरिए सम्मोहन की अवस्था में लगते हैं। व्यापक शोर किसी भी भीड़ के लिए नशे की मानिंद होता है।  सड़क पर बेखौफ नाचते कांवरियों से अगर कोई वाहन छू गया तो क्या होगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। बंगाल में तो इस दौरान कोई अप्रिय घटना नहीं घटी लेकिन दिल्ली, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश  के कई जिलों में कई वाहन  और घर - दुकान इन शिव भक्तों के प्रकोप का शिकार हुए । पूजा पंडालों में और सड़क पर चलते हुए भक्तों की भीड़ में बजते हुए डीजे को जिन्होंने भोगा है वह अच्छी तरह जानते हैं कि इसका भक्ति ,अध्यात्म और संगीत की कोमल भावनाओं से कोई रिश्ता नहीं है।
      इन कांवर  यात्राओं का एक अर्थशास्त्र भी विकसित हो चुका है । चंदे से धन जमा कर रास्ते भर में तंबू और भंडारों की व्यवस्था होती है।  यह व्यवस्था कहीं भी किसी भी सड़क पर खड़ी कर दी जाती है, और इसके लिए सरकारी अफसरों से अनुमति भी नहीं ली जाती है। बेरोजगारी से जूझते अनिश्चित भविष्य वाले नौजवानों को इन यात्राओं में ज्यादा दिलचस्पी होती है। क्योंकि, कुछ समय के लिए ही सही उन्हें अपनी निरुद्देश्य भटकती जिंदगी एक राह पर दिखती है । यही कारण है कि दिनों दिन कांवर  यात्रा में भीड़ बढ़ती जा रही है  साथ में उत्पात भी। पहले ऐसा नहीं था।  कांवरियों की तादाद कम थी और उनके स्वागत - आवभगत के लिए इस तरह की तैयारियां भी नहीं थी । यह एक धार्मिक आयोजन का हिस्सा था, हिंदुत्व का हिस्सा नहीं । धीरे धीरे इस में मिलावट होती गई और उग्र हिंदुत्व बढ़ता गया । इन के तेवर गोरक्षकों से कम नहीं हैं। ऐसा भी हो सकता है इनमें  बहुत से लोग ऐसे भी शामिल हों जो गोरक्षक भी हों।  खबरों पर अगर विश्वास करें तो आक्रामक नौजवानों की भीड़ देश में बढ़ती जा रही है और वह अनौपचारिक रूप से संगठित भी हो रहे हैं । उनमें से कुछ लोग मॉब लिंचिंग में व्यस्त हैं तो कुछ सोशल मीडिया में गाली गलौज करने में ।। किसी की भी पगड़ी उछाल देने में इन्हें देर नहीं लगती। अराजक और उग्र नौजवानों का राजनीति में उपयोग आजादी के बाद इस देश में सबसे पहले संजय गांधी के जमाने में देखा गया । आज फिर ऐसे ही नौजवान दिख रहे हैं। यह लोग समाज से उपेक्षित थे अचानक हिंदुत्व की परियोजना ने इन्हें समाज में इज्जत दिलाई। इतिहास गवाह है कि दिशाहीन नौजवानों का उपयोग हमेशा से एकाधिकारवादी नेता गैर संवैधानिक ताकत के लिए करते रहे हैं। बहुत से ऐसे काम होते हैं जो सरकार या पार्टी के अनुशासन में नहीं किए जा सकते। यह सारे काम ये नौजवान ही करते हैं और इनकी वफादारी  अपने नेता के प्रति होती है। वक्त जरूरत वह नेता इन  नौजवानों को अपनी निजी सेना की तरह उपयोग भी कर सकता है। जिन्होंने इतिहास पढ़ा होगा वे चीन के माओ की " द ग्रेट लीप फॉरवर्ड" नीति के बारे में जानते होंगे । 50 के दशक में इस नीति ने चीन की अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया था और जब देंग जियाओ पिंग ने माओ को किनारा करना शुरू किया तो माओ ने सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर ऐसे नौजवानों की भीड़ को सक्रिय कर दिया। इन नौजवानों ने पार्टी और सरकार के समस्त ढांचे को तबाह ओ बर्बाद कर दिया। इस ताकत का एहसास उन नौजवानों में किसी नशे से कम नहीं था ।  संजय गांधी के जमाने में भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता किसी की भी टोपी उछाल देते  थे। आज हिंदुत्ववादी  नौजवान भी कुछ वैसा ही कर रहे हैं। उनसे उदारवादी भाजपा नेता भी सहमते हैं । सुषमा स्वराज का ट्रोल किया जाना और जयंत सिन्हा द्वारा मॉब लिंचिंग के अभियुक्तों को हार पहनाना कुछ इसी तरह की घटना है। धर्म के नाम पर अगर इस तरह का माहौल बनता है तो  इससे धर्म का भला नहीं होता। बेशक देखने में ऐसा लगता है कि धार्मिकता का प्रसार हो रहा है। जैसे ही धर्म में से अध्यात्मिकता नैतिकता और दूसरे के दुख से दुखी होने का भाव खत्म हो जाता है तो धर्म  सत्ता का व्यापार बन जाता है और ऐसा धर्म लोगों को वास्तविकता से परे कर देता है। माओ के सांस्कृतिक क्रांति के नौजवानों और संजय गांधी के सेकुलर नौजवानों की तुलना में ऐसे दिशाहीन युवकों से बड़ा खतरा है । क्योंकि धर्म एक  स्थाई भाव है और इसका उन्माद ज्यादा दिनों तक टिकता है। आगे जाकर यही स्थिति देश के लिए भी बुरी बन सकती है । इन नौजवानों पर क्रोधित होने के बजाय इनसे सहानुभूति पूर्वक बात की जाए। उन्हें समझाया जाए ताकि हमारे समाज के नौजवान धर्म के नाम पर भस्मासुर ना बनें।

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