प्रगति के लिए महिला सुरक्षा ज़रूरी
हमारा देश एक तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है , प्रति व्यक्ति आय इसका सबूत है। किंतु इसके बावजूद भारत, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, वह अपने नागरिकों को मौलिक अधिकार सुनिश्चित करने में असफल हो रहा है, खासकर महिलाओं को शोषण के खिलाफ अधिकार दिलाने में नाकामयाब है।
कोई ऐसा दिन नहीं आता है जब यह सुनने को ना मिले कि कहीं ना कहीं किसी न किसी महिला के साथ कोई अत्याचार हुआ है । इनमें अत्याचार की शिकार महिलाओं में बच्चियां भी शामिल हैं, किशोरी लड़कियां भी शामिल हैं और युवा महिलाएं भी। अखबारों की सुर्खियां हमें हमेशा आतंकित कर देती है। बलात्कार की घटनाएं ,यौन शोषण की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। जून में थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार "भारत दुनिया में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है।"
इस रिपोर्ट को तैयार करने के दौरान जिन विषेषज्ञों की राय ली गई उनकी समाज में साख है। भारत में इस मसले पर ज्यादा कुछ नहीं किया जा सका है।इस सर्वेक्षण ने एक सवाल खड़ा किया है कि हम अपनी महिलाओं की हिफाजत के लिए के लिए क्या कर रहे हैं? क्यों नहीं हमने ऐसी कोई नीति बनाई जिससे इस मसले को खत्म किया जा सके ? राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2016- 17 में बलात्कार की घटनाओं में पिछले साल के मुकाबले 12 से 13% वृद्धि हुई है । कुल घटनाओं का अकेले दिल्ली में इस अवधि में 40% बलात्कार की घटनाएं हुई हैं। अगर हम शहर के आधार पर इस आंकड़े को देखेंगे तो यह मानना पड़ेगा " दिल्ली भारत की बलात्कार राजधानी है" और इसके बाद पुणे और बंगलोर का स्थान है।
बलात्कार के लिए भारत हाल में सुर्खियों में रहा लेकिन इसके अलावा एक अत्यंत घृणित अपराध छूट रहा है वह है महिलाओं पर तेजाब से हमला। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2016 में देश भर में महिलाओं पर तेजाब से हमले की 187 घटनाएं हुईं हैं। ये घटनाएं आश्चर्य में डालती हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने एसिड ,खासकर सल्फ्यूरिक एसिड और हाइड्रोक्लोरिक एसिड की बिक्री पर रोक लगा दी है, ऐसी स्थिति में भी 2016 में केवल दिल्ली में महिलाओं पर एसिड से हमले की 19 घटनाएं हुईं।
पतियों और संबंधियों द्वारा महिलाओं पर किए गए अपराध भी सामान्य बात है। 2015- 16 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 30% महिलाओं ने पतियों द्वारा कम से कम एक बार हमले की बात स्वीकार की है। इस मामले में न्याय की गति धीमी है । केवल इसलिए कि हमारे व्यवस्था भी इसे बहुत गंभीरता से नहीं लेती क्योंकि इसे पारिवारिक मामला समझा जाता है।
आज शहर हो या गांव हर जगह महिला सशक्तिकरण पर चर्चा तो होती है लेकिन इसके वास्तविक मायने बहुत लोग नहीं समझ पाते? हमारे भारतीय समाज में इस को कितनी मान्यता मिलती है यह जानना बड़ा कठिन है। आने वाले समय में महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है हालांकि क पहले की अपेक्षा काफी सुधार हुआ है और जागरूकता आई है। फिर भी महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा और शोषण की घटनाएं खत्म होने का नाम नहीं लेती। हर क्षेत्र में महिलाएं चुनौतियों का सामना कर रही है, लेकिन दुर्भाग्य है इस समाज के पुरुष प्रधान मानसिकता में महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिलता ही नहीं है।
हमारी व्यवस्था इस मामले में बहुत गतिशील नहीं है और ना ही स्थाई परिवर्तन लाना चाहती है । यह बात निर्भया कोष के उपयोग में असफलता से भी समझी जा सकती है । यूपीए सरकार ने 2013 में महिलाओं की सुरक्षा के लिए 1000 करोड़ का निर्भया कोष स्थापित किया था। आज इस कोष में 312 करोड़ रुपए जमा हो गये हैं। 5 साल के बाद भी केवल 30% ही खर्च किया जा सका है और सरकार महिलाओं को सुरक्षा देने के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करती है । महिलाओं प्रति अपराध की कोई भी घटना सरकार की सुस्ती का परिणाम है।
इस विषय में कई कानून बने हैं लेकिन सब सिर्फ प्रतिकात्मक हैं। इसमें सरकार की इच्छा शक्ति कहीं नहीं दिखाई पड़ती। हम अपनी महिलाओं को सुरक्षित रखने के लिए क्या कर सकते हैं इसका उत्तर आसान नहीं है। हमें इसके लिए ऊपर से नीचे तक सुधार करना होगा ,कानून बनाने होंगे ,नीतियां बनानी होंगी जिससे महिलाओं को शक्ति मिल सके। विधाई अधिकार मिल सके। क्योंकि कानून बनाने में महिलाओं की भागीदारी से लाभ होगा । महिलाओं की शिक्षा के प्रति समाज का नजरिया बदलना होगा। यह विचार बदलना होगा कि महिलाओं को दबाकर रखना ही उनकी सुरक्षा है। जबतक हम यह नहीं कर पाएंगे और हमारे देश की आधी आबादी भयभीत रहेगी तब तक हम खुद को एक प्रगतिशील राष्ट्र नहीं कह सकते।
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