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Sunday, August 12, 2018

भारत विभाजन सत्ता के अन्तर्सम्बन्धों की साजिशों का परिणाम था

भारत विभाजन सत्ता के अन्तर्सम्बन्धों की साजिशों का परिणाम था

बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा ने पिछले हफ्ते गोवा के मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट में अपने भाषण में कहा कि महात्मा गांधी जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे लेकिन जवाहरलाल नेहरू अड़ गए और इसी कारण भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। अव्वल तो धर्मगुरु को राजनीति पर बोलना ही नहीं चाहिए था लेकिन अगर उन्होंने कहा तो इतिहास की विथियों में जाकर सच को तलाश लेना चाहिए था। सच तो यह है पाकिस्तान की नींव बहुत पहले पड़ चुकी थी और स्थितियां गांधी के नियंत्रण से बाहर निकल चुकी थी। दरअसल दोष न नेहरु में था और ना जिन्ना में ।  औपनिवेशिक वातावरण में समान स्तर पर विभाजित समाज जिसमें  आर्थिक  विकास  और रोजगार के अवसर का अभाव था वैसे में अभिजात वर्गीय और संस्कृति उन्मुख सत्ता की राजनीति अपने साथ आजादी और बंटवारा दोनों लेकर आई । ऐसी स्थिति थी जिसमें धार्मिक स्तर पर अपील के माध्यम से प्रत्यक्ष कार्रवाई के बल पर असमानता समाप्त करने की कोशिश की गई। अनुबंध आधारित संस्थानिक विकास की गैरहाजिरी में भारत में जाति गौरव में आबद्ध ऐसे सामाजिक समूह जो धर्म और अर्थव्यवस्था को  अलग अलग  नहीं समझते थे वे अपने - अपने मुल्क के नाम पर कूद पड़े।  अलबत्ता जवाहरलाल नेहरू मैं तो गलतियां जरूर हूं पहले उन्होंने कैबिनेट मिशन योजना को कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से अमान्य कर दिया जबकि गांधी चाहते थे कि वह कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार कर मैं और दूसरी की उन्होंने कांग्रेस नेताओं को यह समझाने की कोशिश की कि अगर पंजाब और बंगाल लेजिस्लेटिव असेंबली को वोट देने का अवसर मिले तो वे  एकता  और अखंडता  के नाम पर वोट देंगे  और  इस आधार पर रास्ते से जिन्ना को हटाया जा सकता है। गांधी इस पक्ष में नहीं थे और नेहरू ने कांग्रेस के नेताओं को तैयार कर लिया था। चुनाव का परिणाम नेहरू के उम्मीद के विपरीत हुआ। पंजाब और बंगाल में बंटवारे के पक्ष में वोट दिए। 1941 की जनगणना के मुताबिक मुस्लिम बहुल राज्य ने पाकिस्तान का समर्थन किया। यहां तक कि खिजर हयात खान ने भी बंटवारे का पक्ष लिया। यहीं एकता समर्थक पार्टी समाप्त हो गई और भारतीय राजनीति में अर्थव्यवस्था के मुकाबले धर्म ज्यादा ताकतवर रूप में उभरा। उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत में जनमत संग्रह में कांग्रेस बुरी तरह हार गई । सिलहट भी पूर्वी बंगाल में शामिल होने को तैयार हो गया।
असल में कैबिनेट मिशन योजना के समय ही भारत के बंटवारे योजना बन गई थी कैबिनेट मिशन भारत को जो ब्रिटिश शासन के अंतर्गत जो भारत था उसे तीन हिस्सों में विभाजित किया गया पहला भारत के हिंदू बहुल क्षेत्र, दूसरा पंजाब, सिंध ,अफगानिस्तान और उत्तर पश्चिम सीमांत  था और तीसरा बंगाल, असम एवं अन्य क्षेत्र । कांग्रेस अध्यक्ष के पद के चुनाव में अबुल कलाम आजाद को पराजित करने के बाद नेहरू ने अपने भाषण में स्पष्ट कहा था कैबिनेट मिशन योजना को नहीं मानेंगे। हमें संपूर्ण भारत चाहिए  जबकि जिन्ना ने इसे मान लिया था ।
नेहरू के भाषण को ही हडसन जैसे इतिहासकार विभाजन का उत्तरदाई मानते हैं। जिन्ना भी नाराज हो गए। हालांकि नेहरू ने बहुत गलत नहीं कहा था क्योंकि  कैबिनेट मिशन में जो बंटवारा किया गया था उसमें दो वही क्षेत्र से जिसे जिन्ना पाकिस्तान में शामिल करना चाहते थे। लेकिन नेहरू के भाषण का समय और तरीका गलत था, उन्हें थोड़ा संयम रखना चाहिए था।
यहीं पाकिस्तान सत्ता संपन्न राष्ट्र के रूप में उभर आया । 18 जुलाई 1947 को इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट पास हो गया जिसमें भारत और पाकिस्तान दो अलग अलग मुल्क तक्सीम हो गए। इस बीच जो खून खराबा हुआ उसे छोड़ दें क्योंकि वह इस आलेख का विषय नहीं है।
    कुछ इतिहासकार इसी बिंदु को सामने रखकर नेहरू को बंटवारे के लिए दोषी बताते हैं । जबकि सच यह है कि 1930 में ही मुस्लिम राज्य के लिए प्रस्ताव आ गया था । मोहम्मद इकबाल ने इसे सबके सामने पेश इसे किया। वह उत्तर पश्चिम में एक मुस्लिम राष्ट्र चाहते थे। अपनी कविताओं में उन्होंने इसका काफी जिक्र किया है । इकबाल ने जिस  पाकिस्तान की कल्पना की थी उसमें बंगाल शामिल नहीं था। इकबाल के अनुसार  पाकिस्तान के "पी " से पंजाब "ए " से  अफगानिस्तान ( उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत) "के" से कश्मीर "एस " से सिंध और "तान "से बलूचिस्तान शामिल था । लेकिन बंटवारे  के विशेषज्ञ के रूप में माने गए इतिहासकार मुशीरुल हसन ने अपनी पुस्तक " विदिन द बॉडी पॉलिटिक ऑफ इंडिया" में लिखा है कि इकबाल ने स्वतंत्र पंजाब, सिंध ,अफगानिस्तान और उत्तर पश्चिम सीमांत इलाके को ही लेकर पाकिस्तान की कल्पना की थी । चौधरी रहमत अली इससे सहमत नहीं थे। 1935 में रहमत अली ने एक पर्चा प्रकाशित किया  जिसका उन्वान था "नाउ और नेवर" इसमें उनकी पाकिस्तान की अवधारणा इकबाल से अलग थी । उत्तर पश्चिम के साथ पूर्वोत्तर, बंगाल और असम के साथ-साथ हैदराबाद को भी मुस्लिम पाकिस्तान में शामिल करना चाहते थे। विख्यात इतिहासकार एच वी हडसन ने अपनी पुस्तक "द ग्रेट डिवाइड " में इसे भारत पाकिस्तान और ब्रिटेन के  बीच एक त्रिकोणीय मामला माना है । इनके अलावा साम्राज्यवादी इतिहासकार पर्सेबिल स्पीयर, पेंडरल मून, विंसेंट स्मिथ एवं अन्य तथा भारतीय इतिहासकार आर सी मजूमदार, वी डी महाजन ,मुशीर उल हसन ,विपिन चंद्र, पणिक्कर एवं अन्य के अलावा पाकिस्तानी इतिहासकार आई एच कुरेशी , एम डी जफर, मुमताज हसन ,अली तय्यब एवं अन्य ने अलग-अलग कोणों से स्थितियों की व्याख्या की है और इससे सच को समझ पाना बड़ा कठिन है । इसके लिए किसी एक नेता या एक संप्रदाय को दोषी कहना गलत होगा । यह सत्ता के अंतर्संबंधों की जटिल साजिशों और प्रक्रियाओं का परिणाम था। ऐतिहासिक तथ्यों के अध्ययन से साफ पता चलता है इस समस्त प्रक्रिया का कारक तीन शक्तियां थीं।वे शक्तियां थीं  संप्रदायिकता ,राष्ट्रीयता और साम्राज्यवाद। तीनों ताकतों ने यह स्थिति पैदा की ना कि किसी व्यक्ति ने। इतिहास की भ्रामक व्याख्या आम जन को गुमराह करती है। बंटवारे का इतिहास समय सापेक्ष और विषयनिष्ठ है इसलिए सावधानी अपेक्षित है।

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