आखिर आरक्षण कब तक?
आरक्षण को लेकर मामला फिर भी गरम हो गया है । संसद में बहस और अखबारों में चर्चा शुरू हो गई है। वैसे भी आरक्षण को लेकर कहीं न कहीं कुछ ना कुछ अक्सर होता रहता है । कभी न कभी कोई जाति खुद को पिछड़ा जाति कह कर आंदोलन पर उतर ही जाती है और आरक्षण की मांग करने लगती है। अलग-अलग राजनीतिक दल वोट के लोभ में इनके सुर में सुर मिलाने लगते हैं। जो जाति दबंग है और सरकार को झुका सकती है उसकी मांगे सरकार मान लेती है ।
अरसे से बात चल रही है और मांग भी की जा रही है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाए। लेकिन इस पर कोई कार्यवाही नहीं होती है। अभी हाल में मराठा आरक्षण को लेकर जो बवाल हुआ वह सब ने देखा और इससे हुई हानि के लिए उल्टा सरकार ने माफी मांगी। लेकिन यह आग नहीं बुझेगी क्योंकि समय-समय पर दबंग जातियां आंदोलन का झंडा उठाए रखती हैं।
दूसरी तरफ , ऊंची जातियों की ओर से आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग की जाती है । कई राजनीतिक दल और नेता इसका समर्थन भी करते हैं लेकिन शायद यह संभव नहीं होगा, क्योंकि अभी 49.5 प्रतिशत आरक्षण है और सुप्रीम कोर्ट ने यह सीमा बांधी है । कोई भी सरकार दलितों और आदिवासियों का हिस्सा कम कर आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की हिम्मत नहीं कर सकती। सरकारी नौकरियों के लोभ में भारत में हर जाति स्वयं को पिछड़ा और हर समुदाय खुद को अल्पसंख्यक साबित करने में लगा हुआ है।
आरंभ में वंचित वर्ग को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था , ताकि सामाजिक रुप से और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोग आगे बढ़ सकें। शिक्षा संस्थानों और सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण लागू करने का अधिकार राज्यों को दिया गया और इसी के तहत पिछड़े वर्गों को भी आरक्षण का लाभ दिया गया। पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को मानते हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राष्ट्रीय स्तर पर आरक्षण लागू किया और सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण दिया जाने लगा। यहां मंडल कमीशन में पिछड़े वर्ग का अर्थ पिछड़ी जातियां रखा गया। इस सूची में नई जातियों को भी शामिल करने की मांग बढ़ने लगी और वह हिंसक होने लगी । 2014 के चुनाव से ठीक पहले केंद्र सरकार ने जाटों को पिछड़ी जातियों की सूची में डाल कर आरक्षण का लाभ दिया तब आरोप लगा था कि राजनीतिक लाभ लेने के लिए केंद्र ने यह किया है। क्योंकि, इससे लगभग 9 करोड़ जाटों को लाभ मिलने वाला था। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने इस मांग को पहले अमान्य कर दिया था। वैसे यूपी, दिल्ली ,हरियाणा, एमपी, बिहार, गुजरात, राजस्थान ,हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में जाटों को आरक्षण मिल रहा था। लेकिन वे केंद्रीय सूची में नहीं थे। 2014 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने इस मुद्दे पर सुनवाई की थी। सुनवाई के बाद आयोग ने पिछड़ी जाति को केंद्रीय सूची में शामिल करने की मांग को अमान्य कर दिया था।
अब यह सवाल उठता है कि पिछड़ा होने का मापदंड क्या है? कैसे यह तय होगा फलां जाति पिछड़ी है ? मंडल आयोग मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से जाति को पिछड़ेपन का आधार माना। हालांकि अदालत ने यह भी कहा कि व्यवसाय के आधार पर पिछड़ेपन का निर्धारण हो ,मसलन छोटे-मोटे कारोबार करने वाले हैं जैसे कुली या स्लम्स में रहने वाले या ठेले पर फल - तरकारी बेचने वाले को पिछड़ा माना जा सकता है। लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। संविधान का उद्देश्य राष्ट्रीय एकता और अखंडता भी बनाए रखना भी है।
अभी यह जानना जरूरी है कि जातीय आधार पर आरक्षण दिया जाना सही है अथवा नहीं ,और अगर नहीं है तो इसका विकल्प क्या है? इन दिनों जातियों को बांटकर या प्राचीन वर्ण व्यवस्था के आधार पर राजनीतिक लाभ के लिए आरक्षण दिया जा रहा है। यद्यपि प्राचीन वर्ण व्यवस्था में जिन्हें दलित कहा गया था उनका शोषण निंदनीय है। लेकिन अगर आरक्षण व्यवस्था के 64- 65 वर्षों में उनकी स्थिति नहीं बनती या आरक्षण से किसी जाति का विकास नहीं हो पाया तो क्या उन्हें आरक्षण देना क्या उचित है ? देश में इस बात की कभी समीक्षा नहीं होती किस जाति का कितना विकास हुआ है। दलितों और पिछड़ों का विकास हो यह समाज का कर्तव्य भी है। लेकिन अभी आरक्षण का यह मतलब नहीं है इसका मतलब है सिर्फ राजनीतिक लाभ और सरकारी नौकरियों का लोभ। एक सवाल और है कि आखिर सरकारी नौकरियों में इतना आकर्षण क्यों है ? इसकी जड़ें गुलामी के दिनों में पैबस्त हैं। ब्रिटिश राज में भारतीय संपदा को लूटने का क्रम चल रहा था और इस लूट को कायम रखने के लिए अफसरशाही पर बेहिसाब खर्च किया जा रहा था। ब्रिटिश अधिकारियों के वेतन और सुविधाएं इतनी ज्यादा थी जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उसी समय से यह लोभ कायम है। इसके विरुद्ध 1883 में हंटर आयोग के सामने एक ज्ञापन पेश किया गया था जिसमें मांग की गई थी कि कमजोर वर्गों को सरकारी नौकरियों में उनकी जाति के अनुपात के आधार पर आरक्षण दिया जाए ,ताकि उनकी गरीबी खत्म हो सके और राज्य के प्रशासन में वे भागीदार बन सकें। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। आरक्षण को आधार बनाकर हमारे नेता जाति कार्ड खेल रहे हैं। वैसे सब जानते हैं कि हर जाति में मेहनती -प्रतिभाशाली लोग हैं और हर जाति में अज्ञानी हैं। हर जाति के लोग उद्योगपति हैं और हर जाति में कुछ ऐसे हैं जो बिल्कुल कंगाल हैं। जरूरी है जाति-पाति को भुलाना। इसे खत्म करने की कोशिश करना और योग्यता के आधार पर देश के भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए लोगों को आगे बढ़ने का मौका देना। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक आरक्षण को लेकर विवाद चलता रहेगा।
Monday, August 6, 2018
आखिर आरक्षण कब तक?
Posted by pandeyhariram at 5:56 PM
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